कबीर की उलटवाँसियाँ पहेली बुझौअल के रूप में है। उनने अध्यात्म तत्वज्ञान तथा साधना विज्ञान के गूढ़ रहस्यों को इनमें गागर में सागर की तरह भर दिया है। पहेलियों के रूप में इनकी गम्भीरता को समझा जा सके और कौतूहल के साथ इन्हें चिरकाल तक स्मरण भी रखा जा सके यह कबीर का प्रमुख प्रयोजन मालूम पड़ता है। यहाँ ऐसी ही तीन उलटवाँसियाँ और दी जा रही हैं।
मिथ्या मनोविनोद-
हरि के बारे बड़े पकाये, जिन जारे तिन पाये। ज्ञान अचेत फिरै नर लोई, तामे जनमि जनमि डहकाये।
धाल मन्दलिया बैल रबाबी, कऊआ ताल बजावै। पहिर चोलिनी गदहा नाचै, भैंसा निरति करावै।
स्यंध बैठा पान कतरै, घूंस गिलौरा लावै। उदरी बपुरी मंगल गावै, कहू एक आनन्द सुनावै।
कहे कबीर सुनो रे सन्तो, गड़री परवत खावा। चकवा बैठि अंगारै निगलै, समुद्र अकासा धावा।
अर्थात्- हरि के बाड़े में बड़े पके- जिनने पकाये, उनने पाये। मनुष्य में अचेत फिरता है, हे लोई! इसी से जन्म जन्म बहकाया है।
बैल ने थाली और रकाबी भर ली। कौआ ताल बजाने लगा। चोलनी पहन कर गदहा नाचा। भैंसा ने निरति कराई। घोड़ा बैठा पान कुतरे। घूसने गिलौरा खाये। बेचारी चुहिया मंगल गाती है। कुहू एक आनन्द भरी ताल सुनाता है।
कबीर संतों को सुनाकर कहते हैं भेड़ ने पर्वत खा लिया। चकवा ने बैठकर अँगारे निगले और समुद्र आकाश की ओर दौड़ पड़ा।
तात्पर्य है कि ईश्वर के बाड़े में क्षेत्र में जिनने बड़े पकाये, उन्हीं ने उसके प्रतिफल चखे। बड़े पकाने से तात्पर्य साधना करने से है और बाड़ा अर्थात् क्षेत्र। बाड़े बड़े पकाना अर्थात् भगवान की परिधि में साधना करना जो करेगा उसका प्रतिफल मिलेगा ही। कबीर अपनी पत्नी लोई को संबोधित करते हुए कहते हैं उनकी चेतना गगन में अचेत होकर फिरती है। डहकाये अर्थात् डगमगाती हुई। जो बड़े बन गये उन्हें खाने के लिए बैल थाली और रकाबी लेकर आ पहुँचा। चेतना ने साधना का परिश्रम किया पर मन रूपी मूर्ख बैल उसका प्रतिफल पाने के लिए पहले तैयार होकर आ गया और साथ-साथ ही कुसंस्कारी चित्त (कौआ) ताली बजाने लगा। प्रसन्नता प्रकट करने लगा अथवा ताल में ताल देकर समर्थन करने लगा। (गदहा) अहंकार चुनरी ओढ़ कर नाचने लगा। बिना परिश्रम किए ही बड़े खाने को मिलेंगे तो साथियों के साथ मजा उड़ाने में कितना आनन्द आयेगा। इतने में भैंसे की भी बन आई। गदहा मूढ़ता का और भैंसा जड़ता का प्रतीक है। भैंसे से कुछ और श्रृंगार करते तो बन न पड़ा तो इन सबसे निरति कराने लगा। निरति से अभिप्राय यहाँ गुदा मैथुन से है साथ ही दूसरा अर्थ है समाधि का। भैंसा समाधि का सपना देखने लगा अथवा उसका ढोंग बनाने लगा। इस माहौल में स्पन्दन (रथ अथवा घोड़ा) पान कुतरने लगा। सब मूर्खों के साथ उनकी भी बन आई। घूंस (बड़ा चूहा) गिलौरा खाने लगी। गिलौरा दुहरे पान को भी कहते हैं और लड्डू को भी। जब इतना त्यौहार मनाया जा रहा है। खुशी का अवसर आया तो बेचारी चुहिया मंगल गीत गाने लगी। चुहिया अर्थात् बुद्धि भी सुखद सम्भावनाओं के गीत गाने लगी।
इतने में कुहू की भी बन आई और वह आनन्द गीत गाने लगी। कुहू से मतलब इस मलमूत्र की गठरी जैसे शरीर से है। इस माहौल में कामना (भेड़) ने पर्वत खा लिया। लक्ष्य को प्राप्त करना पर्वत है और उसे प्राप्त करने वाले के लिए कल्पना ने ही ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया। चकवा बादलों का जल पीता है पर उसने चकोर की तरह अंगार खाना शुरू कर दिया। सभी ठाट उलटे ठनने लगे। चेतना परिकर के सभी सदस्यों ने बड़े पकाने का सरंजाम जुटाते-जुटते इतनी खुशियाँ मनानी शुरू कर दी मानो यह सभी बड़ा सरल हो। इतनी सस्ती और सुखद शेखचिल्ली वाली कल्पना तो ऐसी है मानो समुद्र उछलकर आकाश निगलने की तैयारी कर रहा हो।
लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन है। उसके लिए धैर्यपूर्वक कठोर साधना लम्बे समय तक करनी पड़ती है। पर चेतना परिकर की मूर्खता तो देखिये। समय से पहले ही बिना मूल्य चुकाये ही पूरा समुदाय ऐसी कल्पना कर रहा है मानो यह सब बहुत ही सरल है। उड़ाने उड़ने भर से सारा प्रयोजन पूरा हो जायेगा। खुशियाँ इसी बात की मनाई जा रही हैं और यह भुला दिया जा है कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए जितनी कठिन मंजिल पार करनी पड़ती है। वह लोहे के चने चबाने और तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है। जो इतना कर पाते हैं वे ही बड़े खाकर पेट भरते हैं। अन्यथा कल्पना के साथी सहचर तो झूठी खुशियाँ मनाते रहते हैं।
जागृति और सुषुप्ति- सन्तो जागत नीद न कीजै। काल नहीं खाई कल्प नहीं व्यापै, देह जरा नहि छीजै। उलटि गंगा समुद्रहि सोखै, शशि और सूर गरासै। नवग्रह मारि रोगिया बैठे जल में बिब प्रकाशै। बिनु चरणन कै दुहु दिस धावै, बिनु लोचन जग सूझै। ससा उलटि सिंह को ग्रासै, अचरज कोऊ बूझै।
शब्दार्थ- ‘‘संतो गहरी नींद में निरत मत हो जाओ। यदि जागते रहोगे तो काल नहीं खा सकेगा। कल्प नहीं व्यापेगा और देह बुढ़ापे के कारण छीजेगी नहीं।
गंगा उलटकर समुद्र को सोखेगी। सूर्य और चन्द्रमा को ग्रस लेगी। रोगिया (मन) नवग्रहों को मारकर बैठेगा। पानी में बिम्ब भर दिखेगा।
बिना पैरों के दोनों दिशाओं में दौड़ना होगा। बिना आंखों के सब कुछ दिख पड़ेगा। खरगोश उलटकर सिंह को निगलेगा। इस अचम्भे का कोई रहस्य बताये तो बात बने।’’
तत्वार्थ- कबीर सोने को हानि और जागने को लाभ बताते हैं। यह सोना जागना शरीर का नहीं, अन्तःकरण का है। शरीर तो दिन का काम करने के बाद जब थकेगा तो उसे सोना ही पड़ेगा। न सोए तो बीमार पड़ेगा। यहाँ जागने से तात्पर्य आत्मा की जागरुकता से है। प्रमाद रहित स्थिति एवं लक्ष्य के प्रति तत्परता से है। जो चौकन्ना रहेगा, चारों ओर से होने वाले आक्रमणों से अपने को बचाता रहेगा और यात्रा पथ में रुकेगा नहीं। वह ऐसे आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त करेगा जिसे कौतूहल से कम महत्व का नहीं समझा जा सकेगा। उसे काल नहीं खायेगा और बुढ़ापे के कारण खीजना नहीं पड़ेगा। यह जागृत आत्मा के लक्षण हैं। शरीर तो समयानुसार बदलता ही रहेगा।
आत्मज्ञान की गंगा इस संसार की वासना, तृष्णा के समुद्र को सोख लेगी और ऐसा धुँधला कर देगी जैसा कि ग्रहण पड़ने पर सूर्य व चंद्र धूमिल हो जाते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, वासना, तृष्णा, अहंता यह नौ ग्रह हैं। यह रोगी मन को त्रास देते हैं और मन चाहा नाच नचाते रहते हैं। पर जागृत आत्मा का मन जिसे रोगी समझा जाता है इन दुर्गुण रूपी नवग्रहों को पछाड़ देता है। इतना ही नहीं आत्मा इतना निर्मल हो जाती है कि उसमें भगवान के दर्शन वैसे ही होने लगते हैं जैसे निर्मल जल में चन्द्रमा की झाँकी होती है।
चेतना के चरण नहीं हैं तो भी वह ऊपर उठते और आगे बढ़ने की दोनों दिशाओं में सरलतापूर्वक बढ़ता चलता है। चेतना की आंखें नहीं हैं तो भी उसे वस्तुस्थिति के प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों क्षेत्रों में दर्शन होते हैं। ईश्वर का अंश और “अणोरणीयान् महतोमहीयान्’’ होने के कारण चेतना को खरगोश की उपमा दी गई है, पर जब आत्मा की स्थिति सशक्त और पवित्र हो जाती है तो इस विस्तृत, भयंकर संसार की माया को सहज ही निगल जाता है।
कबीर संतों से पूछते हैं कि इस रहस्य भरे आत्म ज्ञान को तुमसे कोई जानता हो तो बताओ।
‘सहस्र दल’ कमल-
ब्रह्म अगिनि में काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै। कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुन्न ल्यौ लागै।।
सहज सुन एक बिरवा उपजा, धरती जलहर सोख्या। कहि कबीर हो ताका सेवक, जिन यहु बिरवा देख्या॥
जन्म मरन का भय गया, गोविन्द लौ लागी। जीवन सुन्न समानिया गुरु साखी जागी।
शब्दार्थ- ब्रह्म अग्नि में काया जलायें। त्रिकुटी का संगम जग पड़े। कबीर कहते हैं कि जोगेश्वर वही है जिसकी लौ सहज शून्य में लग जाये।
सहज शून्य में एक पेड़ उपजा। धरती ने समुद्र सोख लिया। कबीर कहते हैं- जिसने यह पेड़ देखा होगा मैं उसका सेवक हूँ।
गोविन्द से लौ लगी तो जन्म मरण का भय चला गया। जीवित रहते हुए ही शून्य में समा गया। ऐसे जागरण का गुरु साक्षी है।
तात्पर्य- ब्रह्माग्नि में काया को जलाया। अर्थात् ब्रह्मज्ञान से शरीर भाव को नष्ट किया। शरीर को वासनाओं का केन्द्र न मानकर ईश्वर का घर मानें, ऐसी अन्तःचेतना जगायें जिससे आत्मभाव ही परिलक्षित हो। शरीर रहे तो उसमें शरीर के साथ रहने वाले कषाय-कल्मषों का अस्तित्व ही न रहे।
त्रिकुटी में संगम करने से आज्ञाचक्र जगता है और दिव्य दृष्टि प्रखर होती है। त्रिकुटी में संगम करने से ब्रह्म कमल जागृत होता है और उससे खेचरी वाला अमृत टपकता है।
कबीर कहते हैं कि जो कोई इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है वही सच्चा योगेश्वर है। उसमें सहज ही तुरीयावस्था, शून्यावस्था, समाधि प्राप्त हो जाती है।
सहज शून्य में एक वृक्ष उपजता है। साथ ही धरती समुद्र को सोख लेती है। यह वृक्ष सहस्र दल कमल है। इसी को सहस्र फन वाला शेष नाग कहा गया है। यही शिवजी का कैलाश पर्वत है। यही गीता का वह अश्वत्थ है जिसकी जड़े ऊपर और शाखाएँ नीचे बताई गई हैं। यह स्थिति आने पर धरती-आत्मा, इस विश्व विस्तार के माया जंजाल को सोख लेती है।
कबीर कहते हैं कि जिस किसी आत्मज्ञानी योगी ने यह वृक्ष देखा हो, मैं उसका सेवक हूँ। यह स्थिति आने पर जन्म मरण का भय चला जाता है और आत्मा भगवान में लवलीन हो जाती है। जीवन रहते शून्य समाधि का अनुभव होता है। इस तथ्य को मात्र गुरु साक्षी से ही जाना जा सकता है।