प्रार्थना बनाम याचना

January 1985

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प्रार्थना और याचना शब्दार्थ की दृष्टि से लगभग समान मालूम पड़ते हैं, पर तत्त्वतः दोनों के बीच जमीन आसमान जैसा अन्तर है। प्रार्थना आत्म निवेदन को कहते हैं। अपने आपको नितान्त विश्वास पात्र आत्मीय जन के सम्मुख रख देना, खरे-खोटे का बिना पूछे इजहार करना प्रार्थना है। इसमें याचना का कुछ अंश रहता है तो इतना कि खोटेपन को हटा दें और खरेपन को बढ़ा दें ताकि परमेश्वर की पवित्रता में अपने आप से मिला सकने की, घुला सकने की स्थिति बन जाय। समान स्तर की वस्तुएँ परस्पर मिल जाती हैं। भिन्नता रहने पर विलगाव ही बना रहता है। दूध में पानी मिल जाता है। घटिया बढ़िया होते हुए भी दोनों के अणुओं का वजन और स्तर एक ही है। दूध में बालू नहीं मिल सकती। मिला देने पर नीचे बैठ जाती है क्योंकि दोनों के परमाणुओं के वजन में अन्तर है।

दो के एक में मिल जाने पर दोनों का स्तर एक हो जाता है। परमात्मा में आत्मा का मिलन सम्भव हो सके इसका उपाय एक ही है दोनों का स्तर एक हो जाय। जीव के साथ कषाय-कल्मष, माया, मोह मिल जाते हैं फलतः दोनों की एकता कठिन पड़ती है। एकता के बिना समानता का आनंद नहीं आता। द्वैत को मिटाकर अद्वैत की स्थिति बनाने के लिए समर्पण आवश्यक है। ईंधन घटिया होता है तो भी आग के साथ लिपट जाने पर वह भी अग्नि बन जाता है। नाला तब नदी बनता है जब अपने आपको पूरी तरह उसमें समर्पित कर देता है। पत्नी और पति की एकता के सम्बन्ध में भी यही बात है। यह समर्पण बन पड़े तो एकता में जो व्यवधान रह जाता है वह न रहे। यही प्रार्थना का प्रयोजन है। वह विशुद्ध आध्यात्मिक होती है। आत्म निवेदन उसे इसीलिए कहा गया है। प्रार्थना में याचना का अंश इतना ही है कि परमेश्वर समर्थ है। वह बाँह पकड़कर छोटे को ऊपर उठा सकता है। जिन कारणों से आत्मा का समर्पण, मिलन परमात्मा के साथ नहीं हो पाता, उन व्यवधानों को हटा देने का अनुग्रह करने की याचना की गई है। यों नाला नदी में मिलने को मिल ही पड़े तो नदी उसे दुत्कार थोड़े ही सकती है, पर रहने में शोभा इसी में बढ़ती है कि नदी अनुग्रह करके नाले को अपने में मिला ले। समर्पण तो पत्नी का ही असली होता है, पर कहने को यही कहा जाता है कि पति ने पाणिग्रहण किया, माथे में सिन्दूर भरा, अपनाया। यों अपना कुटुम्ब, घर छोड़कर पत्नी ही पति के साथ जाती है। यह समर्पण तुच्छ स्वार्थों के कारण अधूरा रह जाता है। इस अधूरेपन को परमेश्वर दूर कर दे– अग्नि ईंधन को अपने समान बना ले, प्रार्थना इन्हीं शब्दों में उपयुक्त है।

अग्नि देवता है। ईंधन सस्ते मोल का है। इसलिए बड़प्पन का ध्यान रखते हुए अग्नि की ही कृपा समझी जाती है कि उसने ईंधन को अपनी सारी विशेषताएं दे दीं। असल में जलता तो ईंधन है। आग के ऊपर गिरता वही है। समर्पण उसी का है। यह समर्पण सार्थक बने इसके लिए आत्मा परमात्मा से प्रार्थना करती है ताकि द्वैत रहने न पाये। लकड़ी इतनी गीली न रहे कि अग्नि को उसे आत्मसात करने में अड़चन पड़े। प्रार्थना इससे कम स्तर की नहीं हो सकती इससे ज्यादा कुछ सोचने या करने की भी आवश्यकता नहीं है।

याचना शब्द भिक्षा के, चिरौरी के अर्थ में प्रयोग होता है। भिक्षा भौतिक वस्तुओं की माँगी जाती है। भिखारी दरवाजे-दरवाजे पर रोटी के टुकड़े माँगते हैं अथवा अनाज आटे की एक मुट्ठी। इनकी इज्जत भी कोई नहीं करता। पत्नी को पालकी में बिठाकर लाया जाता है। सोने चाँदी के जेवरों से लादा जाता है, ग्रह प्रवेश के समय मंगलाचरण गाया जाता है। पर वेश्या को इनमें से एक भी सम्मान या उपहार नहीं मिलता। वरन् आये दिन का झंझट होता रहता है। भड़ुआ कम देकर मतलब गाँठना चाहता है और वेश्या इस फिकर में रहती है कि जो मिला है उसे कम बताया जाय और अधिक पाने के लिए रूठने-मटकने का ढोंग दिखाया जाय।

भिखारी का, वेश्या का उदाहरण याचना का स्वरूप प्रकट करता है। याचक पूजा−पाठ करते तो हैं, पर उनका असली प्रयोजन मनचाही वस्तुएँ प्राप्त करना होता है। यह अनुचित भी है और अनैतिक भी। सो इसलिए कि मनुष्य को समर्थ शरीर और विशिष्ट बुद्धिबल दिया गया है। यह दोनों मिलाकर इतने भारी हो जाते हैं कि उनके माध्यम से मनुष्य जीवन की सभी उचित आवश्यकताएँ भली−भांति पूरी की जा सकती हैं। कोई इन दोनों का समुचित प्रयोग न करने पर भी नाना प्रकार के मनोरथ करे और इन्हें पूरा करने के लिए याचना की तरकीब भिड़ाये तो उसे अनैतिक ही कहा जायेगा। जितना पराक्रम है, उसके बदले जितना मिलता है उसमें संतोष करने का औचित्य है। अधिक चाहना है तो अधिक मेहनत की जाय और अधिक जुटाये जाँय, तो जो चाहा गया है मिलेगा। जो पूजा−पाठ नहीं करते, नास्तिक हैं, वे भी अपनी अभीष्ट वस्तुएँ उपयुक्त मेहनत के बलबूते प्राप्त करते हैं। फिर भजन करने वालों को ही क्या ऐसी पोल हाथ लगी है कि उलटी-पुलटी माला घुमाकर ऐसे मनोरथ पूरे करायें जिनका मूल्य चुकाने के लिए योग्यता, मेहनत, अक्ल और साधनों का उपयुक्त मात्रा में नियोजन करना पड़ता है।

देवता को प्रसन्न करने के लिए बार-बार नाम रटना और साथ ही पुष्प, अक्षत जैसे सस्ते उपहार भेंट करना किसी भक्ति भावना का चिन्ह नहीं है। यह तो जेबकटी का, चापलूसी का धंधा हुआ। भीख माँगने वाले छोटी वस्तु माँगते हैं और इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि मुफ्तखोरी के लिए दुत्कारे भी जा सकते हैं। उतना मिलेगा ही या मिलना ही चाहिए, इसे अपना अधिकार नहीं मानते।

किंतु जेबकटों की तरकीब दूसरी है, वे जिसके पास जो कुछ देखते हैं, उसी पर ब्लेड चला देते हैं। जब ले आते हैं तो कहते हैं मुफ्त में थोड़े ही लाये हैं। जेब काटने की चतुराई का प्रयोग करना पड़ा है। मनोकामना की पूर्ति में जो पूजा−पाठ करना पड़ा, उसे याचना नहीं जेबकटी की संज्ञा दी जायेगी।

‘‘भगवान बड़े दयालु हैं, जो माँगो वही देते हैं।’’ यदि यही बात सही रही होती तो संसार में से पुरुषार्थ समाप्त हो गया होता और हर कोई पूजा प्रार्थना करके, जो चाहे वही प्राप्त कर लिया करता। फिर पुरुषार्थ के झंझट में कोई क्यों पड़ता? इस दृष्टि से वे लोग मूर्ख रहे जो कर्मफल की बात सोचते हैं और इतनी सस्ती लूटमार का फायदा नहीं उठाते।

सस्ते मूल्य में सारी कठिनाइयों का दूर हो जाना और अभीष्ट मनोकामनाओं का पूरा होना आदि से अंत तक गलत है। यदि ऐसा ही क्रम चला होता तो संसार में न कोई दुःखी रहता और न अभावग्रस्त पाया जाता। तब हर आदमी ने यह सस्ती तरकीब सीखकर सम्पत्ति के भण्डार भर लिये होते और कठिनाइयों को चुटकी बजाते हल कर लिया होता।

धूर्तों और मूर्खों की यह मनगढ़ंत मान्यता है कि इस देवी देवता का इस विधि से हलका-फुलका पूजा−पाठ करके मनोरथ पूरे हो सकते हैं। यदि हो गये हों तो इस संसार में अकर्मण्यता और अनैतिकता का ही बोलबाला रहा होता। सज्जन कहीं दिखाई नहीं पड़ते। ईश्वर के नाम पर भ्रान्तियों का फैलना निश्चय ही दुःख दायक है।

ईश्वर से केवल प्रार्थना की जाती है। प्रार्थना माने आत्म निवेदन। अपने को श्रेष्ठ, पवित्र, कर्मठ, नैतिक बनाने के लिए ईश्वर की सहायता माँगना सच्ची प्रार्थना है। सच्चे मन से की गई ऐसी सच्ची प्रार्थना सार्थक फलदायी भी होती है।


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