शांतिकुंज में “समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन” सत्रों का अभिनव शुभारम्भ

January 1985

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विगत कई वर्षों से शान्तिकुंज में एक महीने वाले युग शिल्पी सत्र और दस दिन तथा एक माह वाले कल्प साधना सत्र चलते रहे हैं। उनमें सम्मिलित होने का परिजनों का उत्साह असाधारण रहा और उन्हें जो सफलता मिली वह भी देखने ही योग्य रही। इतने कम समय में, इतने सरल साधन से इतना अधिक प्रतिफल उत्पन्न हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की गई थी। पर गम्भीरता पूर्वक किसी काम को हाथ में लिया जाना और तत्परता पूर्वक उसे सम्पन्न किया जाना यह बताता है कि सामान्य साधनों से, सामान्य परिस्थितियों में भी उच्चस्तरीय सफलता प्राप्त की जा सकती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दोनों सत्रों की कुछेक वर्षों की सफलता को देखते हुए आँका जा सकता है।

युग शिल्पी- युग गायक, युग चेतना के आलोक वितरण कर्ता इतनी संख्या में हो गये हैं कि उनने 2400 शक्ति पीठों और उस हजार स्वाध्याय मण्डल प्रज्ञा संस्थानों की आलोक वितरण प्रक्रिया बड़े शानदार ढंग से चलने लगी है। देश की हर संस्था के पास सुयोग्य प्रचारकों की कमी है। वे इधर-उधर से माँग-जाँचकर अपना काम चलाते हैं। किन्तु प्रज्ञा परिवार के पास इस प्रयोजन की पूर्ति करने वाले युग शिल्पी इतनी संख्या में हैं कि न केवल अपनी आवश्यकता पूरी करते हैं वरन् अपने संगठन से बाहर के लोगों की माँग को भी पूरा करते रहते हैं। उनकी क्षमता और कुशलता सर्वत्र सराही गई है।

एक महीने में गायन, वादन, प्रवचन, संगठन, व्यवस्था, चिकित्सा, कुरीति उन्मूलन, सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन जैसे कार्यों को भली प्रकार समझ लेना और समझा दिया जाना एक आश्चर्य है। अब तक इस देश में ऐसा सफल प्रयास कदाचित् ही कहीं किया गया हो। शान्तिकुँज के शानदार कार्यों में युग शिल्पी सत्रों की श्रृंखला चार चाँद लगाती रही है। अस्तु वे अभी भी इतने ही उत्साह से चल रहे हैं। शिक्षार्थियों की संख्या पिछले सत्र की तुलना में अगले में बढ़ती ही जाती है।

एक माह एवं दस दिन वाले कल्प साधना सत्रों में सम्मिलित होकर जो लौटे हैं उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति में असाधारण अन्तर हुआ है। काया-कल्प शब्द में कुछ जादुई गन्ध आती थी और भ्रम होता था कि जब कुछ दिनों बाद लौटेंगे तो च्यवन ऋषि की तरह बूढ़े से जवान हो जायेंगे। अब उस भ्रामक शब्द को हटा देना उचित समझा गया है ताकि वस्तुस्थिति को समझने में सुगमता हो।

अब नए दस दिन के सत्रों को “समग्र स्वास्थ्य सम्वर्धन सत्र” नाम दिया गया है। बाकी नियमोपनियम पूर्ववत् रहेंगे उनमें यत्किंचित् ही अन्तर किया गया है। प्रज्ञा परिजनों को अगले दिनों नव-निर्माण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य करने हैं। यह तभी संभव है जब वे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिकता दृष्टि में स्वयं समर्थ हैं। आधि-व्याधियाँ उन्हें हैरान न करती हों। शरीर में रुग्णता, मन में उद्विग्नता और अन्तःकरण में निकृष्टता भरे रहने पर आदमी इतना दुर्बल हो जाता है कि और किसी की सेवा सहायता कर सकना तो दूर अपने निज की गाड़ी भी ठीक तरह खींच नहीं सकता। अस्तु प्रज्ञा परिजनों में से हर एक का व्यक्तित्व निखारने के लिए अब दस दिवसीय सूत्रों को और भी अधिक साधन सम्पन्न बना दिया गया है।

शारीरिक रोग है या होने की आशंका है। मानसिक उद्विग्नता छाई रहती है या निकट भविष्य में उसके उभरने जैसे लक्षण प्रतीत होते हैं। आध्यात्मिक जीवन में दुष्प्रवृत्तियाँ भर चली हैं या उनके पनपने के बीजांकुर फूटने लगे हैं। इसकी जाँच पड़ताल का ऐसा तन्त्र खड़ा किया गया है जिससे वस्तुस्थिति को समझने के उपरान्त निदान स्पष्ट हो जाने के पश्चात् उपचार का सही निर्धारण किया जा सके। जो अवाँछनीयता उभर रही है उसे समय रहते निरस्त किया जा सके। निदान के अभाव में वस्तुस्थिति समझी नहीं जा सकती और उस दशा में उपचार भी फलदायक नहीं होता।

शान्तिकुँज ब्रह्मवर्चस के दोनों आश्रमों में उपरोक्त प्रयोजन के लिए अभी-अभी परीक्षण प्रयोजन के जिए दुर्लभ एवं बहुमूल्य मशीनें और मँगाई गई हैं। इस दिशा में विज्ञान ने जो प्रगतिशील आविष्कार किये हैं और नवीनतम यन्त्र उपकरण बनाये हैं उन्हें मँगाने का प्रबन्ध, पूर्व में मँगाए गए उपकरणों के अतिरिक्त इसी महीने किया गया है। शरीर, मन और अन्तःकरण को अनेक दृष्टियों से परखने के लिए तीनों ही प्रयोजनों के उपयुक्त देश विदेश से उन्हें जुटाया गया है। पैथोलॉजी एवं अन्याय रोग निदान हेतु सामान्य डाक्टर हृदय, फेफड़े, मूत्राशय, गुर्दे, मस्तिष्क आदि अवयवों की अनेक प्रकार से जाँच पड़ताल करने की फीस सहज ही सौ दो सौ रुपया वसूल कर लेते हैं। प्रज्ञा परिजनों को यह खर्च न करना पड़े और उच्चस्तरीय डाक्टरों द्वारा आवश्यक समझी जाने वाली जाँच-पड़ताल निःशुल्क हो जाय ऐसी सुविधा अन्यत्र किसी संस्था में कदाचित् ही देखी जा सके। नयी वैज्ञानिक मान्यताओं ने यह बताया है कि मानसिक ही नहीं शारीरिक रोगों की जड़ें भी मस्तिष्क की अचेतन परतों में छिपी रहती हैं। इसलिए जब तक उस गहराई में प्रवेश करके उपचार न किया जाय तब तक शारीरिक रोग मात्र समझकर उसकी दवा दारु चलती रहे तो उसका कोई स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता। एक रोग हलका नहीं होने पाता कि नया रोग उठ खड़ा होता है। स्थायी आरोग्य के लिए शरीर चिकित्सा के साथ मानसोपचार भी अब एक प्रकार से अनिवार्य हो गया है। इस संदर्भ में जाँच पड़ताल के जिन यन्त्र उपकरणों की आवश्यकता है उन्हें शान्तिकुँज ब्रह्मवर्चस् की दोनों ही उपचार आश्रमों में अत्यधिक महंगे एवं अनुपलब्ध होते हुए भी मँगाया सँजोया गया है।

आत्मिक क्षेत्र की दुष्प्रवृत्तियाँ अन्तःकरण की अत्यधिक गहराई तक छिपी होती हैं। इसका भी प्रामाणिक परीक्षण करने हेतु देश में पहली बार अपनी संस्था द्वारा व्यक्ति का आभा मण्डल मापने तथा अंक विज्ञान (न्यूमरोलॉजी) की विज्ञान सम्मत विधा के माध्यम से निदान करने की व्यवस्था की गयी है। काय विद्युत की धारा इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना में बहती है। इसकी स्थिति के अनुसार बदलते तेजोवलय एवं जन्मजात एवं तदुपरान्त से मूल्यांकन कर साधना उपचार के निर्धारण की व्यवस्था की गयी है।

शारीरिक व्यथाओं का उपचार आहार, व्यायाम तथा दिव्य वनौषधियों द्वारा। मानसिक उपचार प्राणायाम और ध्यान धारणा द्वारा यथा यज्ञोपचार द्वारा किया जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र की खामियों को सुधारने के जिए गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त अनुष्ठान तो आवश्यक ही है। इसके अतिरिक्त बन्ध, मुद्राएँ, जैसी साधनाएँ इसी बीच करते रहने का निर्धारण किया जाता है। इस प्रकार शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण के तीनों ही क्षेत्रों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ने वाली समग्र चिकित्सा पद्धति का क्रम साथ-साथ चलता रहता है। अधिकाँश रोग आपस में गुँथे होते हैं और उनकी जड़ें न केवल शरीर में वरन् मन और अन्तःकरण में भी जमी होती हैं, स्थूल शरीर-सूक्ष्म शरीर-कारण शरीर में से एक भी रुग्ण होता है तो शेष दो अन्य शरीरों को भी आधि-व्याधियों से ग्रसित होने की स्थिति बना देता है। इसलिए समग्र चिकित्सा वही है जो तीनों की ही सफाई करे और गुँथे हुए जाले की जड़ें उखाड़ दे।

कई बार रोग प्रत्यक्ष प्रकट तो नहीं होते, पर उनकी कुसुमुसाहट भीतर ही भीतर उभरती रहती है और व्यक्ति स्वयं अनुभव करता है कि कोई, छिपा हुआ विकार भीतर ही भीतर काम कर रहा है। पाचन ठीक से न होना, शिर भारी रहना, नींद कम आना, उदासी छाई रहना जैसी विकृतियां यों प्रत्यक्षतः किसी विशेष रोग में नहीं गिनी जा सकती। पर उनके सहारे यह जाना जा सकता है कि निकट भविष्य में कोई संकट खड़ा होने वाला है। रोग प्रकट होने से पूर्व ही उसका उपचार हो जाना समय भी कम लेता है और देर तक कष्ट सहन करने की स्थिति भी नहीं आने देता।

दस दिवसीय समग्र उपचार सत्रों में स्थल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के त्रिविधि परीक्षण के सर्वांगीण निदान की व्यवस्था है और तद्नुरूप चिकित्सा का प्रबन्ध भी हर साधक के लिए अलग-अलग चिकित्सा क्रम बताया जाता है। हरिद्वार में दस दिन क्या करना है और यहाँ से चले जाने के उपरान्त भविष्य में अपना आहार, रहन-सहन किस प्रकार रखना है यह विधि व्यवस्था हर शिक्षार्थी को भली प्रकार समझा दी जाती है। ताकि यदि उपचार आगे भी चलना है तो उसे घर जाकर यथावत् या थोड़े हेर-फेर के साथ जारी रखा जा सके।

आमतौर से चिकित्सक निदान करने और उपचार बताने के साथ अपने कर्त्तव्य की छुट्टी पा लेते हैं। जबकि रोगी को उसकी स्थिति तथा उसमें परिवर्तन की विद्या भी समझाई जानी चाहिए। किसी चिकित्सक के पास इतना समय नहीं होता। जो समय वे खर्च करते हैं उसके बदले हाथों-हाथ पैसा भुनाना चाहते हैं। वे क्यों रोगी को सामयिक विपत्ति से छूटने और भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न होने देने के झंझट में पड़ेंगे। किन्तु शान्ति-कुँज अस्पताल नहीं है और न चिकित्सक ही पैसे के लिए काम करते हैं। अपना उद्देश्य ही प्रज्ञा परिजनों को इतना समर्थ बनाना है जो नव-निर्माण की बेला में असंख्यों में प्राण फूँक सकें। ऐसी दशा में पैसे को माध्यम बनाकर योजना बननी न तो उचित थी न बनाई गई है। जितना चिकित्सा का महत्व है उससे अधिक उस जानकारी की महिमा है जिसके आधार पर न केवल शरीर निरोग रहे वरन् मन भी शान्त, सन्तुलित और अन्तःकरण पवित्रता और प्रखरता अपनाने लगे। इसलिए हर साधक के लिए एक घण्टा परामर्श प्रवचन का रखा गया है।

शान्तिकुँज की उपरोक्त उपचार प्रक्रिया ऋषि परम्परा के अनुरूप है। ऋषि आश्रमों में शिक्षा और चिकित्सा की दोनों ही व्यवस्थाएँ रहती थीं। वस्तुतः यह कार्य व्यवसाई वेतन भोगियों के हैं नहीं। इन कार्यों में ऋषियों को ही हाथ डालना चाहिए। शांतिकुंज में शारीरिक और मानसिक चिकित्सा करने हेतु सक्षम एम॰ डी॰, एम॰ एस॰ एवं आयुर्वेद की स्नातकोत्तर उपाधि पाए उच्चस्तरीय डाक्टर हैं जो अपने ऊँचे पदों पर से विशुद्धतः सेवा भावना के लिए इस्तीफा देकर आये हैं।

आध्यात्मिक चिकित्सा में अन्तःकरण में जमी हुई दुष्प्रवृत्तियों के लिए साधना प्रायश्चित्त एवं तप साधन का विधान चलता है और इस योगाभ्यास के साथ ही स्वाध्याय सत्संग का समावेश रहता है। हिमालय का तट गंगा का किनारा, सप्त ऋषियों की भूमि, गंगाजल पान अपनी स्थिति विशेष के लिए सर्वतोमुखी प्रगति के लिए परामर्श, प्राण शक्ति से भरा-पूरा वातावरण, इतनी सारी सुविधायें अन्यत्र कदाचित् ही मिल सकें। जो काय चिकित्सा करते हैं उन्हें मानसोपचार का ज्ञान नहीं। जो मन का शोधन जानते हैं उनमें चेतना के अन्तःकरण केन्द्र को समझाने या सुधारने की क्षमता नहीं है। यह त्रिविधि संयोग गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम की तरह मात्र शान्तिकुँज में ही उपलब्ध है। यह कारण है कि जो शिविर में आकर स्वास्थ्य सुधारने के निमित्त आते हैं। वे उससे कहीं अधिक बहुमूल्य विद्या जीवन सुधार को लेकर जाते हैं।

हर मनुष्य का जीवन दो बातों पर निर्भर है। एक यह है कि भूतकाल की भूलों के कारण वर्तमान का स्वरूप जो अस्त-व्यस्त हो रहा है उसे सँभालना। इसके अतिरिक्त वर्तमान के साथ ऐसे सुधारे कार्यक्रम का समावेश करना, जिसमें भविष्य उज्ज्वल बन सके। अतएव यहाँ की कार्य पद्धति में रुग्णता की आधि-व्याधियों से मुक्त करना उद्देश्य है उसमें भी अधिक ध्यान इस बात पर दिया जाता है कि आगन्तुक ऐसा प्रकाश और मार्गदर्शन लेकर जाय जिससे वे न केवल स्वयं कृत-कृत्य हो सकें- वरन् अपने परिवार को- संपर्क क्षेत्र को भी ऊँचे उठाने- आगे बढ़ने में कुछ कहने लायक भूमिका निभा सकें।

दस दिन के अब तक चले रहे शिविरों में सम्मिलित होने वालों को भी इसका सन्तोष रहा है पर अब उसमें अनेक अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाले अनेकानेक विशेषताओं का समावेश किया गया है। उनके माध्यम से नये आगन्तुकों को कहीं अधिक लाभ मिल सकेगा ऐसी आशा विश्वासपूर्वक की जा सकती है।

कैंसर, क्षय, सुजाक, अतिसार, गठिया, खांसी, दमा तथा दाद कोढ़ जैसे साथियों को असुविधा पहुँचाने वाले छूत के रोगों की चिकित्सा व्यवस्था यहाँ नहीं रखी गई है। इन रोगों के रोगियों को नहीं आना चाहिए। वस्तुतः यह एक सेनेटोरियम स्तर की व्यवस्था है जिसे समग्र स्वास्थ्य सुधार का उपक्रम कह सकते हैं। गम्भीर, भयंकर असाध्य या छूत के रोगों लिए के लिए जैसी सुविधा होनी चाहिए वैसी यहाँ की नहीं गयी है, न की जाएगी इसलिए उन्हें आने से रोका गया है।

हर सत्र हर महीने ता॰ 1 से 10 तक, 11 से 20 तक, 21 से 30 तक चलेगा। आगन्तुकों को एक दिन पूर्व आ जाना चाहिये। जिन्हें आना हो स्वीकृति प्राप्त करने के उपरान्त ही आना चाहिए। इसके लिए जो आवेदन पत्र भेजा उसमें निम्न जानकारियाँ विस्तार पूर्वक लिखी जांय- (1) पूरा नाम (2) पूरा पता (3) आयु (4) शिक्षा (5) व्यवसाय (6) जन्म-जाति (7) मिशन की पत्रिकाओं के नियमित सदस्य कब से हैं। (8) यहाँ आकर कठोर अनुशासन पालन करने का आश्वासन। ये आवेदन पत्र शान्तिकुँज से मंगाये जा सकते हैं।

बिना स्वीकृति के अन्य साथियों को तीर्थयात्रा के उद्देश्य से भी किसी को भी नहीं लाना चाहिए। यहाँ के सत्रों में इतनी व्यस्तता रहती है कि पर्यटन के उद्देश्य से आने वाले खीजते हैं और व्यर्थ का झंझट बढ़ता है। बिना पढ़ी स्त्रियाँ, जराजीर्ण वृद्धों तथा छोटे बच्चे न तो स्वीकृति माँगें और न साथ चल पड़े।

अपने आवश्यक कपड़े बिस्तर साथ लेकर चलना चाहिए। जेवर आदि ऐसी वस्तुएँ लेकर न चलें जिनकी सुरक्षा का अतिरिक्त प्रबन्ध करना पड़े। सत्र के बीच में ही एक या दो दिन की पर्यटन की छूट दी जाती है। इसके अतिरिक्त सत्र काल में पूरा समय व्यस्त कार्यक्रम में लगाना होता है।

भोजन के लिए आश्रम की केन्टीन में व्यवस्था है। रोटी, दाल, चावल, शाक दोनों समय का भोजन 4) रु. प्रतिदिन है। प्रज्ञापेय का भी 50 पैसा प्रति कप के हिसाब से व्यवस्था है। जिन्हें इन शिविरों से लाभ उठाना है, अगले दिनों महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है, वे समय रहते अपने आवेदन पत्र मंगा कर भरकर भेज दें ताकि उन्हें स्वीकृति समय रहते भेजी जा सके।


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