मानवी वरिष्ठता अक्षुण्ण बनी रहे

January 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सृष्टा ने प्राणियों और पदार्थों को जो दिया है उतनी ही उनसे अपेक्षा रखी है। कोयल कूकती और चिड़िया फुदकती है। भेड़ से ऊन और गाय से दूध के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहा गया। वृक्ष छाया और फल देते हैं। सूरज को गर्मी और बादल को वर्षा की क्षमता दी गई है। वे वही प्रस्तुत भी करते हैं जिसके लिए उन्हें योग्य बनाया गया है।

मनुष्य के सम्बन्ध में भी यह बात आँशिक रूप से ही लागू होती है। उसे प्रतिकूलताओं से घिरा रखा गया है और साथ ही यह कहा गया है कि उसे बदलें और अनुकूलता उत्पन्न करें। अन्धेरे में प्रकाश-अभाव में वैभव, सुनसान में सौंदर्य और जड़ता के स्थान पर प्रगति उत्पन्न करने के लिए कहा गया है। यही है उसकी विशेषता की परीक्षा। जो सुधारने और उभारने में समर्थ है उसी पर सृष्टा का श्रम सार्थक हुआ समझ जाता है।

निर्वाह हर प्राणी के लिए सरल है। नियति ने इसके लिए व्यवस्था बना रखी है। कृमि कीटकों से लेकर जलचरों तक सहज बुद्धि से जहाँ रहते हैं वहीं निर्वाह प्राप्त कर लेते हैं। केंचुए के हाथ, पैर आँख कान कुछ भी नहीं होते, इतने पर भी वह अन्य प्राणियों की तरह जीवनयापन की यथोचित सामग्री प्राप्त कर लेता है। गूलर के भीतर उत्पन्न होने वाले भुनगों को उसी छोटी परिधि में शरीर यात्रा की सुविधा सामग्री उपलब्ध होती रहती है। गहरे समुद्र और बर्फीले पर्वत शिखरों पर जन्मने वाले प्राणी भी अपना गुजारा करते हैं। ध्रुवप्रदेशों की कठिन परिस्थितियों में भी जीवधारी जन्मते और दिन गुजारते हैं।

मनुष्य विशिष्ट है। उसकी गरिमा अन्याय प्राणियों से अतिरिक्त और अधिक है। इसे किसने कितना समझा और उसका किस प्रकार क्या उपयोग किया? इसी से सही परीक्षा होती है कि उपलब्धियों को सार्थक बनाना बन पड़ा या नहीं।

वरिष्ठता की चुनौती यह है कि मनुष्य अन्धकार में प्रकाश उत्पन्न करें और खाद से खाद्य उगाये। सभी प्राणी जन्मते और मरते हैं, पर मनुष्य से आशा की गई कि वह जन्म-मरण के चक्र से छूटे और अमरत्व प्राप्त करे। मौत सबको जीतती है पर मनुष्य से कहा गया है कि वह मौत को जीतकर दिखाये। पदार्थ सत्ता आसक्त है। यहाँ सब कुछ टूटता और बदलता है। मनुष्य को इसी में से सत्, चित और आनन्द को न केवल खोज निकालने के लिए वरन् उसका रसास्वादन अन्यान्यों को भी कराने का उत्तरदायित्व सौंपा गया है।

गरिमा किसी के हाथ अकारण नहीं सौंपी जाती। उच्चपदों के पीछे जिम्मेदारियाँ भी जुड़ी हैं। सृष्टि का मुकुट मणि प्राणियों में मूर्धन्य और सृष्टा का युवराज होने जैसे सम्मान प्राप्त करने के साथ-साथ मनुष्य उस पुरुषार्थ का परिचय देने के लिए भी बाधित किया गया है जिसमें उसकी वरिष्ठता सार्थक सिद्ध हो सके।

प्राणी वर्ग में मलमूत्र विसर्जन के उपरान्त स्वच्छता का एवं यौनाचार की मर्यादाओं का प्रतिबन्ध नहीं है। वे जहाँ भी जिसका भी उपार्जित आहार पाते हैं बिना संकोच के उदरस्थ करते हैं, पर मनुष्य की अपनी नीति मर्यादा है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से मनुष्य को ऐसा होना चाहिए जिससे उसकी गरिमा एवं वरिष्ठता का प्रमाण परिचय मिल सके।

निर्वाह भर की आकाँक्षा और श्रमशीलता में घिरे रहकर नर पशु ही रहा जा सकता है। पेट और प्रजनन के निमित्त जीवनचर्या नियोजित रखकर सामान्य प्राणियों की प्रकृति चक्र के निमित्त उपकरण बने रहना पड़ता है। वे अपनी हलचलों से सृष्टि सन्तुलन बनाये रहने भर की आवश्यकता पूरी करते हैं। पर मनुष्य का सृजन इतने भर के लिए नहीं हुआ है। उसे इस विश्व उद्यान को अधिक सुन्दर-समुन्नत बनाने का विशेष उत्तरदायित्व सौंपा गया है। सृष्टा को उससे एक ही अपेक्षा है कि इस अनुपम कलाकृति की गरिमा बनाये रहे और ऐसी गतिविधियाँ अपनाये जिससे नियन्ता के युवराज के अनुरूप विशिष्टता एवं वरिष्ठता का स्वरूप दृश्यमान होता रहे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118