क्षतिग्रस्तता और सहानुभूति

January 1985

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मनुष्य जीवन में ज्वार भाटे की तरह कई तरह के उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इनमें से कुछ सफलता परक होते हैं कुछ असफलता परक। सामान्य क्रम हो तो बात दूसरी है, अन्यथा बड़ी असफलता बड़ा दुःख देती है और बड़े लाभ में हर्ष भी विशेष स्तर का होता है। मानसिक संतुलन दोनों ही स्थितियों में गड़बड़ाता है। हानिजन्य कष्ट भी बहुत दुःख देता है और उसका त्रास भी लम्बे समय तक छाया, क्षुभित किए रहता है। सफलता की प्रसन्नता देर तक नहीं टिकती क्योंकि उससे अहंकार का पोषण हो जाने से सन्तुलन पुनः बन जाता है। पर क्षति होने पर इस प्रकार की पूर्ति नहीं होती।

देर तक मन पर प्रभाव डालने वाली योनियों में स्वजनों में से किसी का मर जाना विशेष रूप में अखरता है। जो जितना उपयोगी होता है, जिससे जितनी आशाऐं होती हैं, जिसके साथ जितना लगाव होता है उसके मरण की व्यथा भी अधिक होती है। वयोवृद्ध, जीर्ण शीर्ण देर तक इलाज और सेवा करने पर भी न अच्छे होने वालो के प्रति सद्अवसर होते हुए भी मरण की जिनकी आयु होती है, उपयोगिता भी उतनी नहीं रहती तब उनका देहावसान उतना अखरता नहीं। लोकाचार की दृष्टि से तो दुःख मनाना ही पड़ता है। घर-परिवार के अतिरिक्त कुछ रिश्तेदारियां भी ऐसी हैं, जो अति समीप होती हैं। साले और बहनोई ऐसे ही लोगों में गिने जाते हैं। उनमें से कोई जवान उम्र में चला जाय तो उनके बच्चों को कठिनाई सहनी पड़ती है। साथ ही प्रकारान्तर से अपने को भी उसमें भागीदारी बनना पड़ता है।

मरण के अतिरिक्त बीमारी, चोरी, मुकदमा आदि के झंझट आये दिन खड़े हो जाते हैं, तो उनसे चलती गाड़ी रुक जाती है। बीमारी में एक चारपाई पकड़ता है तो दूसरे को उसकी तीमारदारी के लिए भाग दौड़ करनी पड़ती है। पैसा खर्च होता है सो अलग। कभी-कभी ऐसे रोग हो जाते हैं जिनमें जान जाने की आशंका रहती है। अखरने वाली कठिनाइयों में बीमारी का दूसरा नम्बर है। कभी-कभी कोई बड़ी आर्थिक हानि हो जाती है। किसी बड़ी रकम का चोरी हो जाना, किसी के द्वारा ठगी या बेईमानी से कोई रकम दबा लेना यह भी कम कष्ट दायक कठिनाई नहीं है। जिनके पास काम चलाऊ पैसा है, वे तो ऐसी हानियों को आसानी से बर्दाश्त कर लेते हैं, पर जितने पर जो काम चलाऊ था वही चला जाय तो बड़ी कठिनाई पड़ती है। मुकदमेबाजी भी एक तरह की बीमारी है उसमें चिन्ता, भाग दौड़ तथा आये दिन का खर्च जैसी कठिनाईयाँ सिर पर लदी रहती हैं।

सुविधा का समय सदा रहता है तो असुविधा का भी कभी न कभी जरूर आता है। ऐसा आदमी संसार में कोई नहीं हुआ जिस पर सदा अच्छे दिन ही रहे हों।

बुरे दिनों में सबसे बड़ा सहायक अपना मानसिक सन्तुलन होता है। भीतर का साहस और धैर्य हो तो ऐसी चोटों को कम कष्ट देकर भी सहन कर लिया जाता है। भीतर हड़बड़ी मचे, धीरज छूटे तो मनुष्य कष्ट तो अधिक सहता ही है, परेशान भी ज्यादा दिन रहता है। सबसे बड़ी बात यही है कि उस हड़बड़ी की स्थिति में यह नहीं सूझता कि अगला कदम क्या उठाना चाहिए। क्षति पूर्ति आगे की बात है। सबसे पहली बात है मन की स्थिरता स्थापित करना। क्योंकि इसके बिना सही मस्तिष्क से सही उपाय सोचते ही नहीं बन पड़ता। घबराहट में दूसरे अन्य काम भी बिगड़ने लगते हैं।

कहते हैं कि मुसीबत अकेली नहीं आती, साथ में और भी संकट झंझट लेकर आती है। इसका तात्पर्य यह है कि घबराया हुआ व्यक्ति जो सोचता है, जो करता है, प्रायः वह सब अस्त-व्यस्त होता है। फलतः नये काम बिगड़ने से नये झंझट खड़े होते हैं।

इसलिए मुसीबत के समय के सबसे सच्चे मित्र धैर्य और साहस होते हैं। सन्तुलित मस्तिष्क से समय पर वह सूझ उठती है कि अब क्या करना चाहिए। क्षतिपूर्ति के लिए क्या कदम उठाना चाहिए? यह निर्णय सही हो तो एक तरह न सही दूसरी तरह से समाधान निकल आता है। जीवन का एक निर्धारित कार्यक्रम नहीं है। परिस्थिति के अनुसार उसमें आवश्यक हेर-फेर किया जाता रहता है और किया जाना चाहिए। प्रस्तुत क्षति का समाधान किसी दूसरे ढंग से निकालना स्थिर बुद्धि का ही काम है। ऐसे समय में मानसिक सन्तुलन से बढ़कर और कोई मित्र नहीं हो सकता है, जो बताता है कि मुसीबत का दबाव हलका करने के लिए क्या नीति अपनानी चाहिए, क्या कदम उठाना चाहिए? इतनी बात ठीक बन पड़े, तो समझना चाहिए कि आधा बोझ हलका हो गया।

इसके बाद सहानुभूति प्रकट करने वाले आगंतुकों का नम्बर आता है। प्रचलित रिवाज के अनुसार किसी हितू पर मुसीबत आने पर निकटवर्ती स्वजन सहानुभूति प्रकट करने पहुँचते हैं। सहानुभूति का स्वरूप यह होना चाहिए कि संकटभ्रांत का मनोबल बढ़े और ऐसी सलाह मिले जिससे वह प्रस्तुत समस्या का समाधान सही रीति से खोज सके। यह कार्य व्यवहार कुशल अनुभवी आदमियों का है। इसलिए यदि कारगर सहानुभूति प्रकट करना अभीष्ट हो तो उन्हें दो उद्देश्य लेकर जाना चाहिए कि वे मनोबल, धैर्य, साहस और सन्तुलन बढ़ाकर लौटेंगे। साथ ही क्षति के कारण जो खाई पड़ी है उसे किसी प्रकार पाटेंगे। उपयुक्त सलाह भी कई बार बहुत काम दे जाती है। जो बात स्वयं नहीं सोची जाती, उन्हें बुद्धिमान लोग सोचकर बता देते हैं। सहानुभूति प्रकट करने वालों को एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि हर आदमी के पास रहने के सीमित मकान होते हैं। उनसे बाहर के मेहमानों को खपाने में भारी कठिनाई होती है। परेशानी में फंसे हुए आदमी के ऊपर आदर सत्कार का, ठहराने का तथा विशेष भोजन का भार नहीं लादना चाहिए। अच्छा हो रात वहाँ न बसे। बसना ही पड़े तो किसी बहाने अन्यत्र ठहरने की व्यवस्था कर लें।

कई बार सहानुभूति प्रकट करने के नाम पर ऐसे मूर्ख जा पहुंचते हैं जिन्हें इस सम्बन्ध में कोई ज्ञान या अनुभव नहीं है। जब तक रहते क्षति वाली घटना को ही दुहराते रहते हैं। या मालूम होते हुए भी घर वालों से पूछते रहते हैं। इस कथानोपकथन में शोक और दुःख की ही चर्चा होती रहती है। इनमें दूर या पड़ौस के दस सहानुभूति प्रकट करने वाले आये तो वही चर्चा निरन्तर चलती रहेगी। इसमें दुःखी व्यक्ति का दुःख और भी अधिक बढ़ता है। समय तो खराब होता ही है। यदि दुःख हलका करने वाली बातें कही गई होतीं, मनोबल बढ़ाया होता, कोई उपयोगी परामर्श दिया होता तो भी कोई बात थी। पर सहानुभूति के नाम पर घटित हुई घटना की चर्चा ही दिन भर चलती रही तो इससे दुःख घटा कहाँ बढ़ा? इस पुनरावृत्ति में कई बार तो पीड़ित व्यक्ति खीजने लगता है और उपेक्षा दिखाने लगता है।

इसलिए सहानुभूति प्रकट करने के लिए बड़े बूढ़ों के, समझदारों के जाने भेजने का रिवाज है। नई उम्र के, नये रिश्तेदार, अपना ठाट-बाट दिखाने जा पहुँचते हैं तो चाहते हैं कि घर के सब लोगों का ध्यान हमारी ओर ही रहे। हमारी खातिरदारी होती रहे। चर्चा के नाम पर न साहस बढ़ाना आता है न नया कार्य सुझाना। बेहूदे ढंग से यह दोनों काम किये जाँय तो उलटे बुरे लगते हैं। ऐसे समय में जो कहा जाये उससे न तो दुर्घटना की दुःख भरी चर्चा को सर्वथा छोड़ा जा सकता है और न पूरे समय वही राम कहानी कहते रहने की कोई तुक है। नया परामर्श दें तो वह भी दबी जवान से देना चाहिए अन्यथा माना जा सकता है कि हमारा मखौल उड़ाया जा रहा है। हमें बेवकूफ समझा जा रहा है। सहानुभूति की रस्म निभाना भी बड़ी समझदारी का शिष्टाचार का काम है। बेअकल आदमी का उस रस्म को पूरा करने के लिए जा पहुँचना प्रसन्नता का नहीं नाराजी का कारण बनता है। सहानुभूति वाले भी खीज पैदा करते हैं इसलिए या तो दुर्घटना होते ही जा पहुँचे या फिर बात ठण्डी पड़ जाय तब बाद में जाना उचित है।

सहानुभूति रस्म की चर्चा इसलिए की गई कि वह एक लोकाचार बन गई है। अच्छा हो वह पत्र से ही प्रकट कर दी जाय। अथवा शान्ति हो जाने पर कोई काम की बात कहने जाया जाय। अथवा शांति हो जाने पर कोई काम की बात कहने जाया जाय। असली सहानुभूति तो व्यक्ति अपने धैर्य और साहस के सहारे स्वयं ही बनाता है। क्योंकि शान्त चित्त से सोचना उसी को है और बिगड़ी बनाने के लिए उपयुक्त कदम उसी को ही उठाना है।


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