शांतिकुंज आगमन के लिए निमन्त्रण

January 1985

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मानवी सौभाग्यों में कई सुयोगों की गणना होती है। स्वस्थता, सुन्दरता, सम्पन्नता, शिक्षा, कलाकारिता, उच्च पदवी, कुशलता, प्रतिष्ठा आदि की गणना ऐसे सुयोगों में होती है जिसके लिए लोग तरसते हैं, और उनमें से कुछ के मिल जाने पर भी फूले नहीं समाते। पर इन सबसे बड़ी और भिन्न सुविधा में उत्कृष्ट वातावरण में रह सकने की सुविधा।

वातावरण का अपना प्रभाव है। लव-कुश को चक्रवर्ती भरत जैसी सुविधा साधनों की दृष्टि से कुछ भी प्राप्त नहीं था। वे ऋषि परकर के साथ अभावग्रस्त जीवन जीते थे, पर उस उच्चस्तरीय संपर्क, सान्निध्य जो उन्हें अनायास ही मिलता रहा उसके कारण वे इस स्तर के बन सके जिसके लिए राजकुमार भी तरसते होंगे। हनुमान और उनके साथी सहचर वानरों का निजी अस्तित्व वैभव तथा कौशल नगण्य था। पर वनवास में राम लक्ष्मण के साथ रहकर वे वैसे हो गये जैसे इतिहास में खोजे नहीं मिलेंगे। नल नील में भूतकाल में किसी नदी का पुल तक नहीं बनाया था और न लंका काण्ड समाप्त होने के उपरान्त वैसा कोई चमत्कारी निर्माण कर सके जैसा कि उन्होंने समुद्र सेतु बनाकर प्रदर्शित किया था। उसे वातावरण का प्रभाव ही कह सकते हैं।

प्राचीन काल में सुसंपन्न लोग भी अपने सुकोमल बालकों को ऋषियों के आश्रम में गुरुकुल की शिक्षा कठिन प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए भेज देते थे। वहाँ से लम्बी अवधि के उपरान्त लौटते थे। स्पष्ट है कि घर पर उन राजकुमारों को सुविधाएँ थी वे गुरुकुलों के कष्ट साध्य जीवन में कहाँ हो सकती थीं, फिर भी जो वहाँ गये रहे, वे लौटने पर अपने को कृत-कृत्य अनुभव करते रहे। जिस वातावरण में गाय, सिंह एक घाट पानी पीते थे, उसमें रहने पर मनुष्य सर्वगुण सम्पन्न न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। पुरातन गुरुकुलों में पाठ्यक्रम उतना असाधारण नहीं था जैसा कि वहाँ का प्राण प्रेरणा से भरा-पूरा वातावरण। इसी ऊर्जा को अवशोषित करके साधारण लोग- लौह पुरुष महामानव बनते रहे हैं। इसलिए सुयोग सौभाग्यों में उत्कृष्ट वातावरण में रहने का मुक्त कण्ठ से सराहा जाता रहा।

अब वैसा वातावरण अन्यत्र कहाँ है? कुछ कहा नहीं जा सकता पर गायत्री तीर्थ- शान्तिकुँज में- पुरातन ऋषि परम्पराओं की जैसी अनुकृति बनाई गई है उसे अनुपम एवं अद्भुत ही कह सकते हैं। संक्षेप में यह समस्त ऋषियों की कार्य प्रणालियों की झाँकी दिखाने वाला एक आरण्यक माना जा सकता है।

कभी उत्तराखण्ड हिमालय के प्रमुख तीर्थों में ऋषियों के तपोवन थे। उनके उत्पादन ऐसे थे जिनके कारण इस देव भूमि को स्वर्ग कहा जाता रहा। ऋषियों का वर्चस्व ही भारत भूमि की सर्वतोमुखी गरिमा के रूप में सूर्य चन्द्र की आभा किरण बनकर चमकती रही। उन समस्त देव मानवों की योजनाओं एवं कृतियों का समीकरण एक स्थान पर देखा जा सके इसका प्रयत्न शान्तिकुँज में प्राण-प्रण से चला है। कहना न होगा कि उसमें आशाजनक सफलता भी मिली है।

यहाँ के कार्यक्रमों को देखकर कोई भी पुलकित हुए बिना रह नहीं सकता। ऋषि युग की झाँकी इस भूमि में सहज ही मिलती है। कुछ समय ठहरने का जिन्हें अवसर मिले वे यह भी देखते हैं उस पुरातन ऊर्जा से अनुप्राणित होने का सुअवसर उन्हें किस प्रकार मिलता है। इस आश्रम को बने मात्र 13 वर्ष हुए हैं। इस अवधि में थोड़े-थोड़े समय के लिए आने और साधना युक्त प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों की संख्या 12 हजार के ऊपर है। और जिनने अपने को इस संस्था का अंग मानकर जीवनदानी की तरह स्थायी निवास का स्थिर संकल्प किया है उनकी संख्या समय लगभग 200 है। इसी मण्डली का चमत्कार है कि भारत भूमि का कोना-कोना आलोकमय बनाया गया है। 74 देशों में जागृति केन्द्र विनिर्मित हुए हैं। प्रचारकों की 25 जीप मण्डलियाँ निरन्तर परिभ्रमण पर रहती हैं और नव-सृजन की ऐसी योजनाएँ हाथ में ली गई हैं जिनका परिचय मात्र पाने से आशा भरे नेत्र चमकते हैं और उज्ज्वल भविष्य की झाँकी मिलती है। जो दृष्टिगोचर होता है वह यह विश्वास दिलाने के लिए समर्थ है कि मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण स्वप्न नहीं, कार्यक्रम नहीं- वरन् एक सुनिश्चित सम्भावना का परिचायक है।

गुरुदेव के सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया में लग जाने के उपरान्त उनके स्थल शरीर का विराट् रूप शान्तिकुँज गायत्री नगर के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इसमें बिखरी हुई दिव्य क्षमता का अवलोकन करना हो तो यहाँ के वातावरण को उलट-पुलट कर देखा जा सकता है। उसकी प्रभाव को परखा जा सकता है।

गुरुदेव ने अपने प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप को विराम देते हुए एक इच्छा प्रकट की है कि भावनाशील 108 नये कार्यकर्ता इस वर्ष स्थायी निवास के लिए आमन्त्रित किये जांय। पुराने जो यहाँ रह रहे हैं, वे इस संख्या से कहीं अधिक हैं। प्रसंग नयों का चल रहा है। जिन्हें सूक्ष्मीकरण के कारण होने वाली प्रत्यक्ष क्षति की पूर्ति करने वाले घटक कहा जा सके। यह एक उक्ति बन गई है कि गुरुदेव अकेले ही सौ के बराबर काम करते थे। यदि यह बात सही है तो उनके हाथ समेट लेने पर 100 ऐसे कार्यकर्ता शान्तिकुँज में निवास करने के लिए बुलाये जाने चाहिए जिससे उनकी वृत्तियां किसी को गुरुदेव की कमी खटकने न दें। प्रतीत होता रहे कि मात्र एक शरीर ही आँखों से प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। वे जो चाहते थे, जो करते थे, करना चाहते थे, वह सब इस नई भर्ती ने आकर पूरा करना आरम्भ कर दिया।

जिनके पास अपनी संचित सम्पदा से गुजारे की व्यवस्था है वे उससे चलायें और शान्तिकुँज आकर रहें। जिनके पास कम पड़ता है वह उतने की पूर्ति ब्राह्मणोचित व्यवस्था में यहाँ से कर सकते हैं। पर यह राशि तीन सौ रुपये से अधिक भारी न होनी चाहिए अन्यथा दूसरे साथियों के हिस्से में कमी कटौती करनी पड़ेगी।

निवास के लिए छोटे-बड़े मकान सभी के लिए हैं। रोशनी पानी का प्रबन्ध है। बच्चों को दसवीं कक्षा तक सरकारी पढ़ाई पढ़ाने वाला अपना मान्यता प्राप्त स्कूल है, जिसकी पुस्तकें आदि आश्रम की ओर से दी जाती हैं। जिनके साथ स्त्रियाँ हैं उनको मिशन सम्बन्धी जानकारी नियमित रूप से बढ़ाने की व्यवस्था है। बाजार से थोक भाव खरीद कर खाद्य सामग्री ला दी जाती है जिससे बिना मार्ग व्यय दिये उसी भाव निर्वाह सामग्री मिल जाती है जिस भाव की थोक से मिलती है। खेलने की चिकित्सा की सभी के लिए सुविधा है। इन बातों को देखते हुए 300) मासिक मिलना उन लोगों के लिए कम नहीं पड़ना चाहिये जो औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अंगीकार करते हैं। हम में से प्रत्येक को घर छोड़ते समय ऐसा मन बना लेना चाहिए कि अपरिग्रही ब्राह्मण स्तर का स्तर स्वीकारेंगे। स्पष्ट है कि जिनका मन विलासी जीवन की सुविधाओं के लिए ललकता है वे उस कार्य को न कर सकेंगे जो गुरुदेव कराना चाहते हैं यहाँ स्पष्ट कर देना ठीक होगा कि महत्वाकाँक्षी स्तर के अहंकारी व्यक्तियों को यहाँ से पिछले दिनों निराश होकर लौटना पड़ा है। महाकाल ने इसी कारण मात्र तेजस्वी आत्माओं को आमन्त्रित किया है।

गुरुदेव ने अपना प्रत्यक्ष कार्यकाल समाप्त किया है और उससे भी महत्वपूर्ण उससे भी सशक्त-सूक्ष्मीकरण प्रयोग अपनाया है। इस परिवर्तन की बेला में प्रत्यक्ष स्थान पूर्ति के निमित्त उनने 108 कमरे शान्तिकुँज में उनके लिए बनवाये हैं जो यहाँ अकेले-सपरिवार हों तो सपरिवार इनमें आकर रहेंगे और मिल-जुलकर वह कार्य करेंगे जो नव निर्माण के हेतु गुरुदेव अपने स्थूल शरीर से किया करते थे। जन संपर्क लोक-शिक्षण, जनमानस का परिष्कार, सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन जैसे काम ही वे प्रत्यक्षतः करते थे और परोक्षतः ऐसा वातावरण बनाते थे जिसके संपर्क में आकर कोई भी प्रभावित हुए बिना न रहे। इसके लिए उन्हें अभीष्ट ऊर्जा हिमालय के ध्रुव केन्द्र से मिलती थी। वही सिलसिला आगे भी जारी रखा जायेगा।

अखण्ड-ज्योति के पाठकों- प्रज्ञा परिजनों में से उन्हें इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रित किया जा रहा है जो लोभ-मोह के भव-बन्धनों को काट न पाये हों तो भी उन्हें ढीला कर चुके हों। जिन्हें सामयिक दृष्टि से निर्वाह भर की आवश्यकता हो और मन से वह कर सके जिसकी जन-साधारण को- महाकाल को- गुरुदेव को नितान्त आवश्यकता है। यह कार्य घर बैठे न हो सकेगा। जब तब महीने दो महीने का समय देने से भी काम न चलेगा। आधा मन यहाँ-आधा वहाँ, एक पैर यहाँ-एक पैर वहाँ- इस प्रकार कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं बन सकता। ऐसे तो खेल खिलवाड़ होती रहती है। इस प्रकार मन बहलाने से काम न चलेगा। जो आस्थावान हों- जो समय की महत्ता और अपने विशिष्टजनों की गरिमा समझते हों, उन सभी को इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रण है कि शान्तिकुँज गायत्री नगर में स्थायी रूप से आने की तैयारी करें। इसके लिए अनेकों से परामर्श करने की- जिस-तिस से साथ चलने-सहयोग देने की- पूछताछ करने की आवश्यकता न पड़ेगी। रवीन्द्र का ‘एकला चलोरे’ मन्त्र ही उनका साथ देगा।

जिनका मन हुलसे वे हरिद्वार आने की तैयारी करें। पहले अवकाश लेकर एक महीने या कुछ अधिक समय तक प्रायोगिक रूप में आएं ताकि उस अवधि में यह देख सकें कि उनका मन यहाँ लगा कि नहीं और यहाँ वालों को उनका स्वभाव गले उतरा या नहीं? अपने आपको वे यहाँ के माहौल में फिटकर सकेंगे या नहीं?

इन दिनों युग शिल्पी सत्र शान्तिकुँज में चल रहे हैं, वे एक महीने के होते हैं। हर महीने पहली तारीख से 30 तक चलते हैं। उनमें आने के लिए निर्धारित आवेदन पत्र भेजें, जिसमें अपना पूर्ण परिचय लिखा हो। साथ में उल्लेख कर दें, पूर्ण समयदानी के रूप में आना चाहते हैं। स्वीकृतियाँ उसी को देखकर भेजी जायेंगी। अन्य रुटीन के शिविरार्थियों से उन्हें अलग किया जायेगा।

चाहे जो चल पड़े, जिस स्थिति का हो, ऐसा न बनेगा, गुरुजी का स्थाना पत्र बनने के लिए आगन्तुकों को ऐसा होना चाहिए जिसे हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सके। गुरुजी जब गाँधी जी के आश्रम में गये थे तब उन्हें कई महीने टट्टी साफ करने का काम सौंपा गया था। यहाँ आने वालों को इसी स्तर की स्वयं सेवक भूमिका लेकर आना चाहिए। जिनका यह आग्रह हो कि हम यह करेंगे, यह न करेंगे। उनका निर्वाह कदाचित यहाँ न हो सकेगा। नम्र, शालीन और परिश्रम साधक स्तर की मनोभूमि वाले व्यक्ति ही यहाँ चाहिए।


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