धर्म और विज्ञान का पारस्परिक सहयोग नितान्त आवश्यक

January 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

धर्म के बिना विज्ञान अन्धा है बिना विज्ञान के धर्म लँगड़ा। दोनों के समन्वय से ही हम शक्तिशाली यथार्थता तक पहुँचते हैं। धर्म हमें श्रद्धा प्रदान करता है पर यदि वह श्रद्धा विवेकहीन हो तो अन्ध श्रद्धा कहलायेगी और लाभ के स्थान पर हानि उत्पन्न करेगी। इसलिए दोनों का औचित्य इसी में है कि एक दूसरे का आश्रय ग्रहण करें और उसे अपनाने का प्रयत्न करें, जो यथार्थता के अत्यधिक समीप है।

इस सम्बन्ध में विज्ञान की पहल सराहनीय है। उसने दुराग्रह नहीं अपनाया। सत्य के लिए अपने द्वार खुले रखे हैं। यदि आज कोई बात गलत निकली तो वह अपनी बात सुधारने के लिए तैयार है। उसका कथन है कि हम सब सत्य की राह के पथिक मात्र हैं। यदि रास्ता भटक गए तो इसमें बेइज्जती की कोई बात नहीं है। हठ करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि जो बात गलत साबित हुई है उसे सुधार लिया जाय। इस मान्यता से उसकी ईमानदारी साबित होती है। धर्म को भी उसका अनुकरण करना चाहिए। इससे उसकी सर्वज्ञता का त्रिकालदर्शी होने का दावा करने में कुछ हेठी तो होगी पर उसकी पूर्ति इस बात से हो जायेगी कि देर सबेर में जब भी गलती मालूम हो वह ईमानदारी से उसे स्वीकार के लिए तैयार है।

सर्वज्ञता का दावा तो ऐसे भी कट जाता है। क्योंकि धर्म एक नहीं है। उसकी शाखाएं बहुत बड़ी संख्या में हैं और प्रत्येक की मान्यता एक दूसरे से भिन्न है। यथार्थवादिता को अपनाने वाले इतनी भिन्नताओं को कैसे अंगीकार कर सकते हैं। यदि ऐसा नहीं तो किसी एक धर्म को स्वीकारना चाहिए और शेष सब को गलत कह देना चाहिए। यदि गलत कहा जाय तो किसे कहा जाय? कौन अपने को असत्य कहे जाने के लिए तैयार होगा? अथवा कौन यह कहेगा कि मैं उन आक्षेपों को स्वीकार करता हूँ जो तथ्यों और तर्कों की कसौटी पर खरे सिद्ध नहीं हो रहे।

धर्म और विज्ञान के बीच तालमेल बिठाने से पहले धर्मों को आपस में निपटना होगा और यह सोचना होगा कि किन बातों पर श्रद्धा रखी जाय, किन पर नहीं? आचरणों में से किन्हें धर्म का अंग माना जाय, किन्हें नहीं। दर्शन की दृष्टि में किन प्रतिपादनों को मान्यता दी जाय, किनको नहीं?

इन न सुलझने वाले विवादों को एक ही समुद्र की अनेक लहरें एक ही पेड़ की अनेकों पत्तियाँ कहकर मन को समझाया जाता रहा है। लहरों या पत्तियों में मौलिक अन्तर नहीं होता। इनकी प्रकृति में भिन्नता नहीं पाई जाती। पर धर्मों के बारे में ऐसा नहीं है। उनके मतभेद असीम हैं। इतने असीम कि उन्हीं को लेकर शास्त्रार्थों से लेकर रक्तपात तक होते रहे हैं और अपने अतिरिक्त अन्य सबको असत्य ठहराते रहे हैं। ऐसी दशा में न एकरूपता बनती है और न समस्वरता।

ऐसी दशा में एक मध्यवर्गी मार्ग यह हो सकता है कि कुछ नैतिक नियमों को मान्यता दी जाये और प्रथा प्रचलनों को ऐच्छिक छोड़ दिया जाय। ऐसा करने से कलह मिट जायेगा और आपस में एक दूसरे को असत्य ठहराने का विग्रह रुकेगा।

उदाहरण के लिए ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता मिले और उसे कर्मफल का फलदाता ठहराया जाय। कर्मफलों में नैतिक नियमों को पर्याप्त माना जाय। प्रथा प्रचलनों पर विवाद करने की अपेक्षा उन्हें ऐच्छिक ठहरा कर काम चल सकता है। इस प्रकार ईश्वर और धर्म दोनों की प्रारम्भिक सीमा में वैसा ही एकीकरण हो सकता है। जैसा कि विज्ञान की विभिन्न शाखा प्रशाखाओं के अंतर्गत है।

धर्म और विज्ञान दोनों को ही भावी शोध प्रक्रिया और परिमार्जन शैली पर सहमत होना चाहिए। पिछले सौ वर्षों में विज्ञान के अनेक सिद्धांतों में प्रगति हुई है। इसमें पूर्व मान्यताओं को न तो तिरस्कृत कर दिया गया है और न झूठा ही ठहराया गया है। वरन् केवल इतना ही कहा गया है कि जो बच्चा कुछ समय तीन फुट का था और अब पाँच फुट का हो गया। तो दोनों ही परिस्थितियों में किसी प्रकार का टकराव नहीं है। मात्र प्रगति के एक-एक फुट लम्बे दो चरण जुड़ गए हैं। इससे खिन्न होने के स्थान पर प्रसन्न होने की बात है। ईश्वर का अस्तित्व मानने से काम चल जाएगा। फिर उस मान्यता के साथ विधान कर्म जोड़ना हो तो भले बुरे कर्मों के प्रतिफल की व्यवस्था को मान्यता दी जा सकती है। कितना दण्ड पुरस्कार मिलेगा, कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा? यह प्रश्न ऐसे हैं। जिनका निर्णय होना फिर कभी के लिए छोड़ा जा सकता है, शोध के लिए।

यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी है। धर्म को नैतिक नियमों की मर्यादा में बाँधा जा सकता है। नैतिक नियमों को चिंतन, चरित्र और व्यवहार की ऐसी व्यवस्था के अंतर्गत लाया जा सकता है जो सार्वभौम हो। ‘‘वह मत कीजिए जो आपको अपने लिए अच्छा न लगे। जो बरताव आप अपने साथ किया जाना ना पसन्द करते हैं वह दूसरों के साथ न करें।’’ धर्म के लिए इतनी सार्वभौम परिभाषा जन-जन को स्वीकृत हो सके तो समझना चाहिए कि ईश्वर और धर्म का प्रारम्भिक एवं निर्विवाद रूप बन गया। प्रथा प्रचलनों की परम्परा इसके बाद कभी पीछे के लिए सुरक्षित रखी जा सकती है। इतना धैर्य हमें रखना होगा कि क्रमिक विकास की पद्धति स्वीकार करें और उसमें से जितना सर्वमान्य निकलता चले उतना अंगीकृत करते चलें।

विज्ञान की धर्म रहित स्थिति दयनीय है। इस कारण वह निरंकुश और निष्ठुर हो गया है। उसकी दृष्टि उपयोगितावादी है। प्रस्तुत विज्ञान में दया और करुणा के लिए कोई स्थान नहीं है। यह उसे धर्म से उधार लेनी पड़ेगी। बूढ़े बैल को कसाई के सुपुर्द कर देना वैज्ञानिक अर्थशास्त्र है। औषधि अनुसन्धान के लिए कितने ही जीव जन्तुओं को निर्मम पीड़ा होने से एतराज करना वैज्ञानिक वर्जनाओं के अंतर्गत नहीं आता। विज्ञान को परमाणु बम, रासायनिक बम बनाने और उनका जापान की तरह कहीं भी प्रयोग करने से विज्ञान अपने हाथ नहीं रोक सकता। अन्याय और न्याय में अन्तर करना विज्ञान का काम नहीं है। यह उसकी हृदय हीन प्रकृति है, जो एक कड़वा सत्य है। वह मनुष्य को भी मशीन मानकर चलता है। ऐसी दशा में उसकी उपलब्धियाँ कुछ ही के लिए सुविधाजनक और असंख्यों के लिए असुविधादायक हो सकती है। विज्ञान अपने को ऐसी स्वसंचालित मशीन बनाने में गौरवान्वित होता है जिसे एक यन्त्र मानव चलाता रहे। एक पूँजीपति के लिए प्रचुर मुनाफा कमाता रहे, भले ही उसके बदले हजारों लाखों की आजीविका छिनती रहे।

विज्ञान मस्तिष्क प्रधान है और धर्म हृदय प्रधान। करुणा, सम्वेदना, स्नेह, सहयोग हमें धर्म से मिलते हैं। इनके लिए विज्ञान की प्रयोगशाला में कोई मान्यता नहीं मिलती। धर्म परोक्ष के सपने दिखाता है और यह नहीं देखता कि इससे प्रत्यक्ष प्रगति में बाधा तो नहीं पड़ती।

पूजा सेवा के दो सार्थक शब्द प्राचीन काल से भी मिलते चले आ रहे हैं। अब उन्हें नए सिरे से फिर मिलाया जा सकता है। परमार्थ को ईश्वर की पूजा में सम्मिलित करके लोकोपकारी कार्यों को गठबन्धन में बाँधा जा सकता है। इसके लिए गाँधी जी ने दारिद्र नारायण शब्द ठीक दिया है। सेवा धर्म अपनाकर श्रमदान, अंशदान करते रहना और साथ-साथ मन ही मन भगवान का स्मरण करते रहना उस देवी जागरण या अखण्ड कीर्तन से कहीं अच्छा है, जिसमें विद्यार्थियों की पढ़ाई, नागरिकों का सुख चैन व बीमारों की चिकित्सा में कठिनाई पड़ती है।

विज्ञान को धर्म की प्रकृति पहचाननी चाहिए और धर्म को सोचना चाहिए कि समय हर बात को बुद्धिवाद की कसौटी पर कसे बिना अपनाने के लिए तैयार नहीं। विज्ञान ने अपनी प्रकृति सच्चाई को स्वीकार करने की बनाई तो है पर वह भावना रहित। धर्म ने भाव लोक में विचरण किया है, पर यह नहीं सोचा कि अब इलहाम की दुहाई देने से काम नहीं चलेगा। बच्चे से लेकर बूढ़े तक को अब इस तरह समझना और समझाना पड़ेगा कि प्रतिपादन भावना संगत भी हो और बुद्धि सम्मत भी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118