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January 1985

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अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्। शेषाः स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्॥ -महाभारत वनपर्व

नित्य अगणित मनुष्य मृत्यु के मुख में प्रवेश कर रहे हैं–यह देखते हुए भी बचे प्राणी न जाने क्यों यह सोचते हैं कि हम तो सदा बने ही रहेंगे। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है?


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