सूक्ष्म शरीर के पाँच कोश एवं उनका वैज्ञानिक विवेचन

January 1985

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ब्रह्मांडीय चेतना के एक क्षुद्र घटक मानवी काया में जो अभूतपूर्व विलक्षण सामर्थ्य छिपी पड़ी है, उसका परिचय पंचकोशों की रहस्यमयी फलश्रुतियों के रूप में देखने को मिलता है। यह उस विराट् की एक झलक झाँकी भर है। यदि इन्हीं घटकों को विकसित समुन्नत बनाया जा सके तो महाप्राण के इस विशाल महासागर से अपना संपर्क सूत्र जोड़कर ऋद्धि सिद्धियों को करतलगत किया जा सकता है। श्रुति के अनुसार पिण्ड एवं ब्रह्मांड में, अणु एवं विभु में, काया एवं प्रकृति में चेतन सत्ता के जो भिन्न-भिन्न स्तर एवं स्थितियाँ दिखाई पड़ती हैं वे सुनियोजित एवं क्रमबद्ध हैं। पाँच विशिष्ट स्तरों के रूप में पंचकोशों को मानवी चेतना का प्रतीक-प्रतिनिधि माना जा सकता है। चेतना की कोई स्थूल एनॉटामिकल या फिजीकल बनावट नहीं होती। फिर भी ऐसे शक्ति स्त्रोत मानवी काया में विद्यमान हैं जिनसे श्रुति में वर्णित पंचकोशों के प्रभाव, परिणाम एवं असीम सम्भावनाओं की संगति भली प्रकार बिठायी जा सकती है। इन्हें कोई दुराग्रह युक्त हो उसी रूप में प्रत्यक्ष अपनी आँखों से देखना चाहे, जिस प्रकार का कि अलंकारिक वर्णन शास्त्र ग्रन्थों में मिलता है तो उसे निराश ही होना पड़ेगा। विवेक दृष्टि का अवलंबन लेकर समष्टि एवं व्यष्टि के मध्य तारतम्य बिठाने वाले इन पाँच केंद्रों की महत्ता को समझा जा सकता है ताकि योग साधनाओं के माध्यम से इन्हें विकसित कर आकस्मिक प्रगति की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।

जिस शरीरगत स्थूल संरचनाओं से इन पाँच कोशों को सम्बद्ध माना जाता है वे सभी स्वयं में एक परिपूर्ण शक्ति संस्थान हैं। इन्हें उत्तेजित करने पर जो फलश्रुतियाँ सम्भावित हैं उन्हीं को ध्यान में रखते हुए योग विद्या के वेत्ताओं ने उनका सम्बन्ध पंचकोशों से जोड़ा है एवं उन्हीं को स्थूल काया में चेतन शक्तियों का प्रतिनिधि करने वाला माना है।

एक तथ्य यहाँ स्पष्ट समझ लिया जाना चाहिए कि चेतना का विशाल महासागर मानव की अन्वेषण बुद्धि की बोध की परिधि में आने वाला आभास भर है। बोध रूपी यह चतुर्थ आयाम मानव मेधा को उस परोक्ष जगत की एक झलक भर देता है, समग्र सम्पूर्ण जानकारी नहीं। चौथे आयाम सम्बन्धी विभिन्न वैज्ञानिक खोजें ऐसा आश्वासन अवश्य दिलाती हैं कि प्रगति क्रम में क्रमशः वह विधा खोज निकाल ली जाएगी जिससे और भी गहरे प्रवेश कर चेतना की सूक्ष्म परतों का रहस्योद्घाटन संभव हो सके। अभी लेसर एवं होलोग्राफी के आविष्कार ही अपनी चमत्कृतियों के रूप में वैज्ञानिकों को हतप्रभ कर रहे हैं तो चतुर्थ आयाम तो उन्हें मनुष्य की सूक्ष्म आध्यात्मिक संरचना के सम्बन्ध में बहुमुखी जानकारी दे सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पंचकोश सूक्ष्म हैं। सूक्ष्म अर्थात् अप्रत्यक्ष-अदृश्य। किन्तु इस प्रकार की व्याख्या प्रत्यक्षवादी भौतिक विज्ञान को मान्य नहीं है। वे ऐसे प्रतिपादनों को काल्पनिक और अप्रामाणिक मानते हैं। अस्तु। प्रत्यक्षवादी अध्यात्म विज्ञान ने शरीर संरचना विद्वान के अनुरूप ही पंचकोशों के प्रभाव क्षेत्र और परिणामों को देखते हुए प्रत्यक्ष शरीर में पंचकोशों की उपस्थिति बतायी है और उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव में आ सकने योग्य कहा है।

अन्नमय कोश की चमत्कारी हारमोन ग्रन्थियों से, प्राणमय कोश की जैव विद्युत संस्थान से, मनोमय कोश की जैव चुंबकत्व से, विज्ञानमय कोश की न्यूरोह्यूमरल रस स्रावों (स्नायु रसायन) से तथा आनन्दमय कोश की मस्तिष्क मध्य अवस्थित रेटीकुलर ऐक्टीवेटिंग सिस्टम रूपी विद्युत्स्फुल्लिगों के फव्वारे से संगति बिठायी जाती है। वस्तुतः से सभी घटक स्थूल जान पड़तें हुए भी जादुई क्षमताओं से भरे पूरे हैं। इनकी कार्य पद्धति और परिणति वैसी सीधी सादी नहीं है जैसी कि पाचन तन्त्र, श्वसन तन्त्र आदि की होती है। इन केन्द्रों को यदि उपेक्षित पड़ा रहने दिया जाय, उनके उत्कर्ष का उपाय विदित न हो वो बात दूसरी है। अन्यथा व्यक्ति इन्हीं के सहारे उन ऋद्धि-सिद्धियों का अधिष्ठाता बन सकता है जो प्रत्यक्ष हैं जो सामान्य को असामान्य बनाती हैं।

व्यक्ति की सूक्ष्म सत्ता का वर्गीकरण, तीन शरीरों के रूप में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में किया जाता रहा है। आत्मिकी की व्याख्यानुसार अन्नमय एवं प्राणमय कोशों का समुच्चय ही स्थूल शरीर है। हारमोन ग्रन्थियों से स्रवित जादुई सूक्ष्म द्रव्यों एवं बायो इलेक्ट्रीसिटी की चमत्कारी क्षमताओं से भरी यह काया कितनी विलक्षण-सामर्थ्यवान है, इसका आभास इन्हें विकसित करने पर उपलब्ध होने वाली सिद्धियों से मिलता है। मनोमय कोश जैव चुम्बकत्व का भाण्डागार है। यह प्रभामण्डल के रूप में मनुष्य के चारों और तेजोवलय का घेरा बनाता है। सायकिक हीलिंग, सम्मोहन की प्रभाव सामर्थ्य एवं शक्ति हस्तान्तरण के रूप में इसकी परिणतियां देखी जा सकती हैं। इसे सूक्ष्म शरीर का पर्यायवाची माना जा सकता है। यही थियॉसाफिस्टों द्वारा बतायी गयी मेण्टल बॉडी है जो अपनी प्राण शक्ति की सामर्थ्य से दूसरों को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है।

कारण शरीर विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश को सम्मिलित रूप माना जा सकता है। स्नायु समुच्चय के सन्धि स्थलों (सिनेप्सों) से सुषुम्ना, मस्तिष्क एवं ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम के भिन्न-भिन्न महत्वपूर्ण केन्द्रों पर स्रवित होने वाले स्नायु रसायनों (न्यूरो ह्यूमरल सिक्रीशन्स) एवं थेलेमस मध्य स्थित रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम को क्रमशः विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों का प्रतीक रूप माना जा सकता है। यह सारी संरचना इतनी जटिल किन्तु विलक्षण सामर्थ्यों से भरी पूरी है कि उनकी स्थूल प्रतिक्रिया मात्र वैज्ञानिकों को हतप्रभ कर देती है। जब योग साधना का अवलम्बन लेकर सूक्ष्म प्रयोगों द्वारा उनमें हलचल उत्पन्न की जाती है तो इसके परिणाम तो और भी अद्भुत एवं रहस्यमय होंगे। अभी तक जितना भी कुछ वैज्ञानिक इस सम्बन्ध में जान पाए हैं, वह जानकारी अध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाने के पक्षधर विद्वज्जनों को उत्साहित करने में सफल रही है।

काया के इस सूक्ष्म ढाँचे का विवेचन अन्नमय कोश से हो आरम्भ होता रहा है। स्थूल शरीर की सूक्ष्म विशेषताओं एवं दृश्यमान विलक्षणताओं के लिए उत्तरदायी वस्तुतः इसी संस्थान में छिपे घटक हैं। नगण्य सी रसायन की बूंदें कैसे परिवर्तनकारी हलचलें उत्पन्न कर समग्र काया को क्या बना सकती हैं, इसे इस संस्थान में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। शरीर की आकृति ही नहीं, प्रकृति का निर्धारण भी माइक्रोलीटर की सूक्ष्मतम मात्रा में स्रवित इन रस बूँदों द्वारा किया जाता है।

जो कुछ भी प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है, उसका कारण तो शरीर संरचना व क्रिया पद्धति से तालमेल बिठाते हुए कहीं न कहीं जोड़ लेते हैं। ऐसे कई अद्भुत रहस्यमय परिवर्तन होते हैं जिनकी संगति रासायनिक हलचलों से बैठती प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः इन रहस्यों की कुँजी सूक्ष्म शरीर से अवस्थित होने के कारण ही प्रत्यक्षवादी विज्ञान कुछ कह पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। हारमोन्स को ही लें तो लिंग निर्धारण के साथ ही स्वाभाविक पुरुषोचित दृढ़ता, पुंसकत्व, स्त्रियोचित कोमलता एवं कामोल्लास की व्यक्ति-व्यक्ति में पायी जाने वाणी न्यूनाधिकता इत्यादि का मूलभूत कारण क्या है, यह शीघ्र समझ में आता नहीं। व्यक्तित्व का आमूल-चूल कलेवर इन सूक्ष्म रस स्रावों पर निर्भर है। शरीर विज्ञानी तो इनकी असामान्यता को पैथालाजी के स्तर पर ही समझ पाए हैं पर फिजियालाजी की परिधि में बने रहकर स्वेच्छा से किन्हीं योग साधनाओं के अवलम्बन से वाँछित परिवर्तन सम्भव कैसे हो जाता है, इसका समाधान चिकित्सा विज्ञानियों के पास नहीं है। वस्तुतः दशाब्दियों पूर्व डा क्रु कशैन्क ने इन हारमोन ग्रन्थियों को “जादुई ग्रन्थियां” कहा था, वह मिथ्या नहीं था।

पीनियल, पीटुटरी, थायराइड, पैराथाइराइड, थाइमस, एडरीनल्स एवं गोनेड्स के नाम से जाने वाले ये सात ग्रन्थि समूह जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी भिन्न-भिन्न परस्परावलम्बित भूमिका निभाते रहते हैं। व्यक्तित्व के उतार-चढ़ाव, स्वभाव, चिन्तन, दृष्टिकोण इत्यादि का निर्धारण इन्हीं के द्वारा होता है। मनःशास्त्रियों एवं जैव वैज्ञानिकों ने समय-समय पर अपनी शोध निष्कर्षों के हवाले से कहा है कि शरीर संरचना सम्बन्धी बहुत कुछ जानकारी होते हुए भी यह कहना कठिन है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में वैचारिक एवं भावनात्मक विकास अलग-अलग प्रकार से क्यों होता है? ‘‘आकल्ट केमिस्ट्री’’ एवं ‘‘एस्ट्रालाजीकल कोरिलेशन ऑफ डक्टलेस ग्लैड्स’’ जैसे ग्रन्थों में विद्वान लेखकों का कहना है कि ब्रह्मांडीय चेतना सूक्ष्म रूप में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करती है एवं व्यक्तित्व की विविध क्षमताओं को उभारने में सहायक भूमिका निभाती है। आवश्यक हारमोन्स को बढ़ाना एवं अनावश्यक को कम करना अन्नमय कोश की साधना द्वारा सम्भव है। ऐसा योगवेत्ताओं का मत है।

बायो इलेक्ट्रीसिटी एवं प्राणमय कोश या ‘‘इथरीक डबल’’ की परस्पर संगति समझने के पूर्व जैव विद्युत के सम्बन्ध में कुछ प्राथमिक तथ्य समझ लेना जरूरी है। इसे जैव चुम्बकत्व से भी कुछ हटकर समझना चाहिए जो प्रभा मण्डल बनाता एवं कोश से सम्बन्धित माना जाता है। यों शरीर में विज्ञान सम्मत नाप, प्रकाश, चुम्बक, विद्युत ध्वनि एवं यांत्रिक छहों ऊर्जाओं के प्रमाण भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न रूपों में पाये जाते हैं। किन्तु प्राणमय कोश को समझने के लिए उसे जैव विद्युत से भली-भाँति जोड़ते हुए विवेचन किया जाना अनिवार्य है।

शरीर के लगभग सभी ऊतक, जीवकोश प्रबल स्थायी विद्युत ऊर्जा सम्पन्न पाये जाते हैं। यहाँ तक कि यही सब मिलकर मस्तिष्क रूपी प्रधान कम्प्यूटर का नियन्त्रण सुसंचालन भी करते हैं। लगभग बीस मिली बोल्ट का स्थायी विद्युत क्षेत्र तो मस्तिष्क की बाह्य परत के आर-पार स्थायी रूप से पाया जाता है। शरीर में स्थायी रूप से चल रहे अनेकों चक्रों, जो रासायनिक, चयापचाय (केमिकल मेटाबॉलिज्म) की प्रक्रिया निर्धारित करते हैं, की तरह एक विद्युत चक्र भी चलता है जो रसायनों से बनी काया के सजीव या निर्जीव होने का कारण बनता है। ऑक्सीजन हम श्वास से भीतर सोखते या कार्ब डाई ऑक्साइड प्रश्वास द्वारा प्रदूषित वायु के रूप में बाहर निकालते हैं। यह ऑक्सीजन जितनी देर शरीर में परिभ्रमण करती है, ऋण आयनों द्वारा जीवकोशों को ऊर्जा प्रदान करती है। लगभग इसी प्रकार वायुमण्डल में संव्याप्त विद्युत आवेश को हर व्यक्ति फेफड़ों एवं त्वचा के मार्ग से अवशोषित करता है। वातावरण में विद्युत विभव सौर ऊर्जा, कास्मिक किरणों और भूमण्डल की स्वाभाविक रेडियो धर्मिता से विनिर्मित होता है। ये सूक्ष्माणु ऋण विभव धारण किए होते हैं एवं वायुमण्डल में 5 बोल्ट प्रति मीटर के औसत से आयनोस्फियर की निचली परत में विद्यमान होते हैं। मानव शरीर में प्रभावित विद्युतधारा लगभग दस पीको एम्पीयर की ताकत की होती है। इस अल्प मात्रा में प्रवाहित विद्युत की सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड होती है। यह सहज ही जाना नहीं जा सकता।

फ्राँस की स्ट्रासबर्ग यूनिवर्सिटी के चिकित्सा विज्ञानी श्री फ्रेड वैलेस ने अपनी पुस्तक ‘‘द बायोलॉजीकल कन्डीशन्स क्रिएटेड बॉय द इलेक्ट्रीकल प्रार्टीज ऑफ एटमॉस्फीयर’’ में विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से काया में प्रविष्ट व उससे उत्सर्जित होने वाले प्रवाह को मापा व इस विद्युत चक्र के कारण मनुष्य को एक चलता फिरता बिजली घर माना है। शरीर में लगभग पिचहत्तर हजार अरब कोश हैं एवं सभी में विद्युत ऊर्जा विद्यमान है। प्रत्येक कोशिका के आस पास 60 से 90 मिली बोल्ट का विद्युत विभव पाया जाता है। हर सेल बैटरी है व सम्पूर्ण शरीर इनका समुच्चय। हर सेल एक विद्युत सन्धारक (कैपेसीटर) है एवं सम्पूर्ण शरीर एक समग्र कंप्यूटराइज्ड उपकरण। लगभग एक सेमी कन्डक्टर या इन्टीग्रेटेड सर्किट (आय॰ सी॰) के समक्ष हर कोश झिल्ली मानवी काया को विद्युत भण्डार का स्वरूप दे देती है। भौतिकी का यह विवेचन क्लिष्ट होते हुए भी शरीर की सूक्ष्म संरचना के लिए अनिवार्य भी है।

त्वचा, जननेंद्रिय, आँखों व चेहरे से यह विद्युत ऊर्जा निरन्तर उत्सर्जित होती रहती है। त्वचा पर प्रतिरोध मानव (जी॰ एस॰ आर॰) के माध्यम से उत्सर्जन को मापा जा सकता है। हृदय की विद्युत को ई. सी. जी., मस्तिष्कीय विद्युत को ई॰ ई॰ जी॰ व डीप डी॰ सी॰ ब्रेन पोटेन्शियल्स के द्वारा तथा आँखों की विद्युत को इलेक्ट्रोनिस्टेग्मो व रेटीनोग्राम से नापा जाता है। माँस पेशियों की विद्युत इलेक्ट्रोमायोग्राम द्वारा मापी जा सकती है एवं नाक व ओठों की विद्युत को इलेक्ट्रोनिसो लेवियोग्राम द्वारा मापा जा सकना सम्भव है। प्राण शक्ति का यह समुच्चय ही प्राणमय कोश की संरचना करता है। इसमें आने वाली कमीवेशी ही व्याधि का कारण बनती है। समय-समय पर आग के शोले फूटने की तरह शरीर से ज्वाला-चिनगारियाँ निकलने, स्वतः जलन (आटोकम्बशन) के रूप में इनके प्रमाण भी देखे जाते हैं जिनका वर्णन अखण्ड ज्योति में पहले भी किया जाता रहा है। अध्यात्म प्रयोजनों में यह ऊर्जा जीवनी शक्ति का संचय करने एवं अधोगामी प्रवाह को रोककर ऊर्ध्वगामी बनाने की भूमिका निभाती है। क्षरित विद्युत जब सत्प्रयोजनों में नियोजित होती है। तो प्रसुप्त सामर्थ्य, संकल्प बल, इच्छा शक्ति को जगाकर असम्भव कार्य कर दिखाती है। इसका छोटा सा रूप सिद्धियों के रूप में देखा जाता है। जबकि यह जल के ऊपर दिखाई देने वाला हिमखण्ड का एक टुकड़ा मात्र है। जो मूलभूत सम्पदा है, वह विराट है, अक्षय है। प्रश्न केवल सुनियोजन का है।

अब तीसरे मनोमय कोश की चर्चा करें जो मानवी चुम्बकत्व की शरीर में सूक्ष्म रूप में प्रतिकृति रूप में विद्यमान है। भूमण्डल व वातावरण में गामा, बीटा, लेसर, अल्ट्रावायलेट, इन्फारेड आदि शक्ति किरणें भिन्न-भिन्न रूपों में क्रियाशील रहती हैं। मानवी काया में इन सबका समुच्चय जैव चुम्बकत्व (बायोमैग्नेटिज्म) के रूप में विद्यमान होता है। जो प्रभा मण्डल सम्मोहन, सायकीक हीलिंग (आध्या॰ मनश्चिकित्सा), शक्ति संचार इत्यादि आध्यात्मिक विभूतियों के रूप में अपने अस्तित्व का परिचय देता रहता है। क्वाण्टा के ब्रह्माण्डव्यापी महासागर में चुम्बकीय बल का ही आधिपत्य है जिसके बलबूते ये ग्रह नक्षत्र परस्पर सन्तुलित क्रियाशील दिखाई देते हैं। चुम्बकीय ऊर्जा मानवी काया में उसी तरह ध्रुवीकरण रूप में विद्यमान है जैसे कि पृथ्वी के दो ध्रुवों में एक चुम्बक डायपल (द्विध्रुवीय मैग्नेट) होता है। जिसमें उत्तरी और दक्षिणी दो सिरे होते हैं। एक उत्तरी सिरा ग्रहण करता है व दूसरा दक्षिणी सिरा चुम्बकीय बल निस्सृत करता है। यह एक प्रकार का ‘‘इलेक्ट्रो मैग्नेटिक डायपोल’’ है। मानवी काया में शुक्राणु की सत्ता का आधिपत्य जमते ही डिम्ब में ध्रुवीकरण प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है एवं यही सारे शरीर के 75 हजार अरब कोशों में इस चुंबकत्व को फैलाती है। मूलतः वह चुंबकत्व की शक्ति के दो ध्रुवों- स्थायी इलेक्ट्रो मैग्नेटिक डायपोल की तरह सुषुम्ना के मूलाधार रूपी दक्षिणी एवं सहस्रार रूपी उत्तरी ध्रुव के रूप में विद्यमान होती है।

पृथ्वी के ध्रुवों पर उसका चुम्बकीय क्षेत्र (मैग्नेटोस्फीयर) सौर हवाओं से टकराकर ‘‘ध्रुव प्रभा’’ (अरोरा बोरिएलिस ) बनाता है। ठीक इसी प्रकार मानवी चुम्बकत्व अपने उत्तरी ध्रुव पर आभा मण्डल के रूप में विराजमान होता है। आज सम्पन्न मनीषी इसी के सहारे अन्यान्य मनुष्यों के अन्तश्चेतना को परखते व प्राण सम्बल प्रदान करते रहते हैं। डा. किलनर ने इसे ‘‘आरा’’ के रूप में मापा व किर्लियन फोटोग्राफी के सहारे उंगलियों की पारों से उत्सर्जित होता पाया। शक्तिपात, प्राण संचार, अध्यात्म चिकित्सा,आशीर्वाद इन्हीं प्रक्रिया के सहारे चुम्बकत्व की मात्रा अधिक रखने वाले को, अन्यान्यों को लाभान्वित करते देखे जाते हैं। मनोमय कोश को साधने में ध्यान योग एकाग्रता की प्रधान भूमिका है। इच्छा शक्ति के चमत्कार इसी अर्जित जैव चुम्बकीय की सामान्य से अधिक की मात्रा के बल पड़ते हैं।

विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश अन्तश्चेतना के गहन अन्तराल में निहित वे दिव्य संरचनाएँ हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध ब्राह्मी चेतना से होता है। स्थूल पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से तत्त्ववेत्ताओं ने विज्ञानमय कोश की स्नायु रसायनों (न्यूरोह्यूमरल सिक्रीशन्स) से तथा आनन्दमय कोश की थैलेमस स्थित मस्तिष्कीय फव्वारे ‘‘एसेण्डिन्ग रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम’’ से संगति बिठाने का प्रयास किया है। दोनों ही संरचनाएं स्वयं में जटिल व बड़ी रहस्यमय हैं।

विज्ञान का अर्थ है कामकाजी नहीं विशिष्ट ज्ञान। असामान्य प्रज्ञा, प्रतिभा को उभारने वाली परत निस्सन्देह विलक्षण होती है। यह कार्य उन ‘‘न्यूरो ट्रांसमीटर्स’’ के जिम्मे आता है जो सामान्य अवस्था में तो सिनेप्सों पर स्नायु संचार भर की भूमिका निभाते हैं किन्तु उत्तेजित किए जाने पर प्रसुप्त केंद्रों, विलक्षण प्रतिभा केंद्रों को भी जगाने की सामर्थ्य रखते हैं। एसीटाइल कोलीन, मार्फीन सलेक्टीव ओपिएट्स (एन्डार्फिन्स), एन्केफेलीन, एडीनोसिन समूह, गाबा समूह, सिरोटोनिन (5-एच टी), अल्फा एड्रीनर्जिक, बीटा एड्रीनर्जिक एवं मस्केरीनिक कोलीनर्जिक समूह के नाम से ये सारे मस्तिष्क एवं स्नायु तन्त्र में संव्याप्त हैं। मस्तिष्कीय सत्व के दस लाख में से एक भाग का प्रतिनिधित्व करने वाले ये सूक्ष्म रसायन मन की अचेतन, चेतन व सुपर चेतन परतों के उत्तेजन द्वारा विलक्षण प्रतिभाओं, आविष्कार बुद्धि, स्वप्नों के माध्यम से सन्देश आदि के रूप में अपनी सक्रियता का परिचय देते रहते हैं। विशिष्ट योग साधनाओं द्वारा इस सारे समुदाय को सक्रिय बना कर अतीन्द्रिय क्षमताओं का धनी एवं विलक्षण आनन्द की अनुभूति कर सकने में समर्थ योगी बना जा सकता है।

आनन्दमय कोश एवं सहस्रार चक्र परस्पर अन्योऽन्याश्रित सूक्ष्म संरचना संस्थान के दो नाम हैं जो रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम के रूप में मस्तिष्क मध्य में अवस्थित होता है। लक्षाधिक न्यूरॉन्स यहाँ शरीर से प्रवेश करते व यहाँ से मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न केंद्रों को जाते हैं। चेतना को उच्चतर स्थितियाँ इसी विद्युत स्फुल्लिंग छोड़ते रहने वाले फव्वारे की सक्रियता पर निर्भर हैं। जो महत्व स्नायु रसायनों का है, उससे अधिक इस संस्थान का है जो मनश्चेतना की भिन्न-भिन्न स्थितियों के लिये उत्तरदायी है। वाणी से संबंधित भिन्न-भिन्न केन्द्र (विजुअल, आडीटरी, स्पोकन वर्बल, रिटन एवं ग्रफिक स्पीच), श्रवण दृश्य वीक्षण दिक्-काल में सामंजस्य, भूतकाल की स्मृतियाँ आदि सभी मस्तिष्क में कैद हैं। दाहिना मस्तिष्क व उसका पैराइटल कार्टेक्स, दोनों को जोड़ने वाला कार्पस कैलोसम तथा लिम्बिक सिस्टम विभिन्न विलक्षणताएँ अपने अन्दर समाए हुए हैं। अभी तो मात्र 7 से 13 प्रतिशत इस पूरे समुच्चय का भाग वैज्ञानिकों को ज्ञात है। जब शेष प्रसुप्त की जागृति-आनन्दमय कोश के जागरण की फलश्रुतियों से वे परिचित होंगे तो मानवी असीम सामर्थ्य एवं ऋद्धि-सिद्धियों के प्रत्यक्ष रूप को देख हतप्रभ हो रह जाएंगे। बहुत कुछ विलक्षण इस उत्तरी ध्रुव केन्द्र में छिपा पड़ा है। गायत्री की उच्चस्तरीय प्राण साधना कुण्डलिनी जागरण की विधि, व्यवस्था, शिव शक्ति का संगम यहीं बन पड़ता है। मानव के भाव पक्ष को उभारने एवं उसे महामानव-अतिमानव बनाने का पुरुषार्थ यहीं सम्पन्न होता है। भक्ति और शक्ति के समन्वय का प्रतीक आनन्दमय कोश बहुत कुछ रहस्यों को अपने अन्दर समाए हुए है। पंचकोशी साधना के अंतर्गत आने वाले ये पांचों ही कोश पूर्णतः विज्ञान सम्मत हैं एवं इन्हें प्रयोगों की कसौटी पर कसा भी जा सकता है। (क्रमशः)


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