देवताओं और मनुष्यों के मध्य आदान-प्रदान की कथा गाथा

January 1985

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इतिहास की दो धाराओं में क्रमबद्धता परिलक्षित होती है। एक तो पिछले छः हजार वर्ष का इतिहास जिसे पुस्तकों, शिला-लेखों, ताम्र पत्रों के सहारे ढूंढ़ निकाला गया है ओर कोई अन्य विकल्प न होने के कारण उसे ही प्रामाणिक मानना पड़ता है।

दूसरी वह श्रृंखला है, जिसे प्राणी विकास की श्रृंखला कहा जा सकता है। छोटे अमीबा से विकसित होते-होते डायनासौर तक जा पहुँचना, फिर बुद्धिवादी प्रतिद्वन्द्विता में उनमें से भीमकायों का नष्ट होना, चतुरों द्वारा बाजी मारना, इसी परिप्रेक्ष्य में बानर का मनुष्य स्तर पर विकसित होना- यह श्रृंखला भी अब मान्यता प्राप्त कर चुकी है। उस हिसाब से वर्तमान मानव पुरखों की तुलना में सर्वाधिक बुद्धिमान बैठता है। ज्ञान और विज्ञान, दोनों ही पक्षों में उसने बाजी मारी है।

इन दो धाराओं के अतिरिक्त प्रमाणों की एक संदिग्ध धारा और बच रहती है, जिसमें अब की अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान समर्थ और सम्पन्न मानवों का पता चलता है। उनके छोड़े हुए प्रमाण अवशेष उनके अस्तित्व की सचाई सिद्ध करते हैं। इनकी गणना किस श्रृंखला में की जाय?

लौह युग, ताम्र युग तो आदिम मनुष्य की कहानी कहते हैं, पर ऐसे सुविकसितों को जो आज की तुलना में अधिक बुद्धिमान रहे हैं, किस वर्ग में गिना जाय? लगता है लम्बा हिमयुग मनुष्य जाति के एक बड़े वर्ग को अपने पेट में निगल गया। पृथ्वी पर जमी हुयी बर्फ की मोटी परतें जब पिघली होंगी तो समुद्र तल ऊँचा उठा होगा और उससे भौगोलिक उथल-पुथल खड़ी हुई होगी। तब पिछली सभ्यता के ध्वंसावशेष भी उसमें समा गये होंगे। समुद्र उलट-पुलट कर थल बना होगा। इस भयानक परिवर्तन ने उन विकसित सभ्यताओं को भी निगल लिया होगा। उसके यत्र-तत्र बिखरे हुए चिन्ह जहाँ कहीं मिल जाते हैं तो आज के मनुष्य को आश्चर्य में डालते हैं।

प्रमाणों द्वारा स्पष्ट है कि आज का आर्कटिक महासागर कभी एक सुविकसित द्वीप था। उस समुद्र में जहाँ-तहाँ जन शून्य टापुओं का पर्यवेक्षण करने से ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि इस क्षेत्र में कभी सुविकसित सभ्यता रही है। कभी एशिया और अमेरिका परस्पर जुड़े हुए थे। थल मार्ग से आवागमन था, पर हिमयुग में बहुत-सी भूमि डुबा दी और दोनों को पृथक कर दिया। इतने पर भी जहाँ-तहाँ विकसित सभ्यता के चिन्ह मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि कोलम्बस ने पहली बार अमेरिका खोजा हो और वहाँ जंगली रेड-इण्डियन भर मिले हों।

इस दृष्टि से समस्त भूमण्डल का पर्यवेक्षण करते हैं तो एक क्षेत्र में नहीं लगभग समस्त भूमण्डल में विकसित सभ्यता के चिन्ह मिलते हैं। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के लोग अर्वाचीन बुद्धिमत्ता की तुलना में कहीं अधिक बढ़े-चढ़े थे। मिश्र के पिरामिडों का रहस्य अभी तक हाथ नहीं आ रहा है कि इतने बड़े पत्थरों का इतना मजबूत और इतना रहस्यमय भवन किस कला और किन साधनों के सहारे बन सके होंगे। मैक्सिको क्षेत्र में बिखरी हुई ‘मय’ सभ्यता के ध्वंसावशेष बताते हैं कि वहाँ की विकसित स्थिति असाधारण थी। इस्टर द्वीप की विशाल मानव आकृतियाँ अभी भी रहस्य हैं कि उन्हें किसने, किन साधनों से और क्यों विनिर्मित किया होगा। मैक्सिको की भू-रेखाएँ जो धरती से तो दिखायी नहीं पड़ती, पर रात्रि को चन्द्रमा की चाँदनी में आकाश भली प्रकार दिख पड़ता है, विदित होता है कि वे वायुयानों के आवागमन के प्रकाश चिन्हों के रूप में ही विनिर्मित किये गये हैं।

एरिक वान डेनिफेन लिखित ‘देवताओं के रथ’ नामक पुस्तक में अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया गया है कि वर्तमान मनुष्यों से पूर्व एक देवताओं की विकसित बिरादरी हो चुकी है।

देवताओं का एक वर्ग था। दैत्य लंका में उनने अपना वंशानुक्रम तथा शौर्य विज्ञान सुरक्षित रखा था। मनुष्यों के साथ उनका वंश संपर्क कदाचित ही कहीं हुआ था। भीम पत्नी हिडिम्बा से महापराक्रमी घटोत्कच्छ जन्मा था। हनुमान पुत्र मकरध्वज की भी कथा है। कुन्ती ने देवताओं का विशेष अनुदान प्राप्त कर असाधारण पराक्रमी पाँच पाण्डव अपनी गोद में खिलाये थे।

साइबेरिया, सिन्धु घाटी, जावा, कम्बोदिया, रोम, यूनान, काला सागर, सहारा, जिब्राल्टर, एटलाण्टिक आदि क्षेत्रों का पुरातन शिल्प तथा उसके साथ बोलती हुई उस समय की सम्पन्नता तथा सभ्यता का जो पता चलता है, वह आश्चर्यचकित कर देने वाला है। कई बार तो उसे आज की विकसित सभ्यता से भी बढ़ी-चढ़ी मानना पड़ता है। सम्भवतः वह वैदिक युग रहा हो और ऋषि स्तर के लोगों को देव कहा है। अर्थात् सूक्ष्म देवताओं और स्थूल ऋषियों के बीच कोई घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हो।

यह वास्तु शिल्प की चर्चा हुयी। इसके अतिरिक्त असंख्यों अन्य धाराएँ हैं। तब 24 दिन का कलैंडर था और दो महीनों को बढ़ाकर वर्ष को सही किया गया था। धातु शोधन में कुटुम्ब मीनार की लाट के बारे में अभी तक पता नहीं लगाया जा सका कि इतनी शुद्ध धातु शोधन की प्रणाली क्या थी?

इतिहास की इस टूटी हुई कड़ी के बारे में यह अनुमान लगाया जाता है कि कोई देव युग रहा है, जिसके बचे लोगों ने पिछड़े लोगों को खोयी हुयी सभ्यता की श्रृंखला जोड़ने में मदद की होगी। कल्पना कीजिए कि परमाणु युद्ध हो और उसमें सभ्य इत्यादि सभी मटियामेट हो जाय। कोई सघन वनों में रहने वाला आदिवासी मड़ुवे आदि बचे रहें। वे उनकी पीढ़ियाँ ध्वंसावशेष को देखकर आश्चर्यचकित रह जाय, कि इतने विचित्र महान और विज्ञान के ऐसे परिवार कितने, किस प्रकार, क्यों? बनाये होंगे? आज की पीढ़ी का कोई जानकार बचा रहे और उन आदिम लोगों को ज्ञान-विज्ञान के कुछ पाठ पढ़ाये, तो यही समझा जायेगा कि कोई देवता रहस्यमय अनुदान बाँट रहे हैं।

पुरातन काल में हिमयुग, खाद्य अभाव, महामारी, भौगोलिक उलट-पुलट आदि कारणों से बचे हुए लोग नितान्त जंगली रह गये होंगे। उन्हें बचे-खुचे सभ्य जन ने जो पाठ पढ़ाये होंगे, जो चमत्कार दिखाये होंगे, उस आधार पर सहज ही किसी अन्य लोक के निवासी या दिव्य शक्तियों-विभूतियों से सम्पन्न मान लिया गया होगा और उनका समुचित मान-सम्मान किया गया होगा।

किसी अन्य लोक से देवताओं के आने के सम्बन्ध में किसी निर्णय पर पहुँचना कठिन है, क्योंकि वर्तमान खोजों ने सौर मण्डल की स्थिति को जान लिया है और पता लगा लिया है कि इनकी स्थिति इस योग्य नहीं है कि मनुष्य शरीर जैसे प्राणियों का उन पर निर्वाह हो सके। सौर मण्डल से बाहर कोई बुद्धिमान प्राणी हो सकता है अथवा सौर मण्डल के भीतर सूक्ष्म शरीर धारण करके किसी भी परिस्थिति में उनमें रहा जा सकता है, पर वे होंगे अदृश्य ही। अदृश्य देवता दृश्य शरीर वाले मनुष्य को प्रशिक्षण एवं अनुदान प्रस्तुत करें यह भी रहस्यमय प्रसंग है।

देवताओं की एक पीढ़ी को स्थान दिये बिना इतिहास की दोनों ही धाराएँ अपूर्ण रह जाती हैं। संसार में जो विलक्षण ध्वंसावशेष अथवा ज्ञान प्रवाह परिलक्षित होते हैं, वे छः हजार वर्ष के लिखित इतिहास के साथ तालमेल नहीं बैठने देते और आदिम कालीन बन्दर से विकसित होकर बना हुआ मनुष्य भी प्रगति की उतनी लम्बी छलाँग नहीं भर सकता, जो आज की प्रगतिशीलता से भी बढ़कर अपने कृतित्व को सिद्ध कर सके।

ऐसी दशा में देवताओं के एक वर्ग की मान्यता आवश्यक हो जाती है। वे लुप्त महासभ्यता का प्रतिनिधित्व करते होंगे और सामान्य मनुष्य के साथ स्वेच्छापूर्वक सम्बन्ध जोड़कर उन्हें भी सुविकसित बनाने का प्रयत्न करते होंगे। हो सकता है कि पिछड़े लोगों के साथ देवताओं ने आनुवाँशिक सम्बन्ध बनाये हों और उनसे ऋषि, दिव्य मानव, विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, उत्पन्न किये हों।

इस प्रकार देवताओं का पूरा न सही अधूरा ज्ञान आधुनिक लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध हुआ है और उसने इतिहास के एक शून्य को भरने में सहायता की है।


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