काम तत्व की विकृति एवं परिष्कृति

January 1985

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सृष्टा एक कुशल कलाकार और असाधारण शिल्पी है। उसने अपनी कलाकृतियों में युग्म पद्धति का बड़ा ही सुन्दर समन्वय किया है। शरीर संरचना में दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान दो नितम्ब आदि अवयवों को सुन्दर और पूरक बनाने की दृष्टि से सृजा है। यों काम तो एक से भी चल जाता पर काया इतनी सर्वांग सुन्दर न बन पाती। इसी दृष्टि से नर और नारी को सृजा गया है। वे अपनी-अपनी विशेषताओं से भरे-पूरे हैं। इतना ही नहीं, वे परस्पर एक दूसरे के लिए अनेक दृष्टियों से पूरक हैं। इसमें एक तो सर्व विदित प्रजनन परम्परा और वंश-वृद्धि की नैसर्गिक आवश्यकता है ही, पर बात उतने से ही समाप्त नहीं होती। आध्यात्मिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, शारीरिक क्षेत्रों की अनेकानेक ज्ञात और अविज्ञात आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जिन्हें मिलजुलकर वे पूरा करते हैं। न केवल एक-दूसरे को समग्र बनाते हैं वरन् सृष्टि क्रम के सुसंचालन और सौंदर्य परिकर में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

अकेला नर अपूर्ण है। अकेली नारी भी। फूल पत्तियों का युग्म फबता है। नर नारी का समुदाय भी मिलजुल कर समग्रता उत्पन्न करता है। यही कारण है कि प्रायः सभी देवता और सभी ऋषि युग्म बन कर रहे हैं। आवश्यक नहीं कि इसके साथ वासना जुड़ी ही रहे और संतानोत्पादन अनिवार्य रूप से चले। एक दूसरे को जो भावनात्मक उल्लास एवं उत्साह प्रदान करते हैं, वे अपने आप में इतने समग्र हैं कि सृष्टा की इच्छा और मनुष्य की आवश्यकता दोनों की ही पूर्ति हो जाती है।

परिवार को धरती का स्वर्ग कहा जाता रहा है। दैवी पुष्पोद्यान। उसमें पूर्णता लड़की और लड़के दोनों ही मिलकर उत्पन्न करते हैं। व्यवस्था और बहुलता के साथ-साथ भावना क्षेत्र की उत्कृष्टताएं इस समन्वय से ही उत्पन्न होती हैं।

अनगढ़ मनुष्य भौंड़ा पशु है। वह लिंग प्रति पक्ष को पत्नी रूप में ही देखता है और जब अवसर मिलता है, बिना किसी मान-मर्यादा का विचार किये यौनाचार के लिए सचेष्ट होता है। इसमें उसे भय, लज्जा, अनौचित्य जैसा कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। माता, भगिनी, पुत्री के साथ पत्नीवत् व्यवहार करने में उसे किसी नीति या मर्यादा का व्यतिरेक हुआ प्रतीत नहीं होता। किन्तु मनुष्य की मर्यादा इससे सर्वथा भिन्न है। उसके साथ धर्म, कर्तव्य, आदर्श के जो अनेकों अनुबन्ध लगे हुए हैं, वे नर और नारी के बीच उत्कृष्टता के अनेकानेक अनुबन्ध स्थापित करते हैं और उन स्थापनाओं का निर्वाह तथा पोषण ऐसे परिवार के बीच रहकर ही सम्भव होता है जिसमें नर और नारी मिलजुलकर कर रहते हैं। घर में जितने सदस्य रहते हैं, उनमें से नर वर्ग को बाबा, ताऊ, चाचा, भाई भतीजा आदि के शिष्टाचारों से व्यवहृत किया जाता है। इसी प्रकार महिलाएँ दादी, ताई, चाची, भुआ, बहिन, भाभी, भतीजी, बेटी आदि के रिश्तों में सँजोया जाता है। हर रिश्ते की अपनी सुषमा, शोभा, भाव सम्वेदना, मिठास अलग-अलग ही हैं। सब मिलकर एक गुलदस्ता बनता है। भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन जिस प्रकार बनते हैं उसी प्रकार परिवार के नर-नारी सदस्यों के माध्यम से आध्यात्मिकता, आदर्शवादिता और मर्यादा के अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्र विकसित होते हैं इसलिए गृहस्थ बनाकर रहने की परम्परा है। जिसे सामान्य जन ही नहीं, उच्चस्तरीय विभूतियाँ भी निर्वाह करती हैं।

आत्म मार्ग के पथिकों के लिए तो विवाह करने पर एक प्रकार के तप का अवसर अनायास ही मिलता है। युवावस्था में प्रकृति यौनाचार की उत्तेजना देती है। इसे हठपूर्वक रोकने से हठयोग सधता है। और दोनों परिवार देव बुद्धि विकसित करके श्रद्धा सम्वर्धन के निमित्त उसे मोड़ दें तो भावयोग की साधना ठीक वैसी ही सध जाती है जैसी कि प्रतिमा पूजन के माध्यम से देवाराधना की, योग की अनेकानेक शाखा प्रशाखाओं में एक अति महत्वपूर्ण गृहस्थ योग भी है। परिवार तो समूह साधना- सृष्टि में सुसंस्कारी श्रेष्ठतम नागरिकों के निर्माण का कारखाना- विद्यालय जैसा चलाना है ही। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन में प्रणय परिचर्या को श्रद्धा, भक्ति, आत्मीयता, समर्पण, स्नेह, जैसे उत्कृष्ट आधारों की ओर मोड़ देना, एक ऐसा प्रयास है जिसमें ईश्वर भक्ति की प्रक्रिया की पूर्ति होती है। पत्नी के लिए पति को परमेश्वर माना गया है और पति के लिए पत्नी को जगदम्बा सदृश मानने के लिए शास्त्र वचन है। नारी तत्व को नमस्तस्यै-नमस्तस्यै-नमस्तस्यै-नमो नमः॥ की मान्यता दी गई है। सीता, पार्वती, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि के रूप, सौंदर्य आदि को देवी चित्रों में देखकर श्रद्धा, सम्वेदना ही बढ़ाई जाती है। किसी कुटिल कलुषता को मन में नहीं आने दिया जाता। ठीक उसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के रूप में भी उसी तत्व की अभ्यर्थना की जानी चाहिए। यही बात पत्नी के सम्बन्ध में पति के निमित्त भी है। वे उनमें राम, कृष्ण, शिव, गणेश, आदि की झलक झाँकी करती हुई प्रभुभूत होती रह सकती हैं। भावनाओं का परिष्कार ही अध्यात्म है। अध्यात्म साधना के अनेकानेक उपाय उपचार हैं। उनमें एक धर्म पत्नी को मान्यता है। धर्म शब्द इसीलिए जोड़ा गया है कि यदि वह मात्र पत्नी होती तो नर मादा के मध्यवर्ती चलने वाले लोकाचार में कोई सोचने विचारने की आवश्यकता न पड़ती।

विवाहित जीवन में लोकाचार की दृष्टि से काम कौतुक का कोई प्रतिबन्ध नहीं है पर अध्यात्म जीवन में तो श्रद्धा का परिष्कार ही करना है। गोबर को गणेश बनाना है। खम्भे में से नृसिंह प्रकट करना है। पत्थर को मीरा की तरह गिरधर गोपाल स्तर तक ले जाना है और राम कृष्ण परमहंस की तरह दक्षिणेश्वर प्रतिमा में से साक्षात काली का रूप प्रकट करना है। दोनों पक्षों को ही एकलव्य द्रोणाचार्य की कथा को चरितार्थ कर दिखाना है। तुलसी का पौधा और शालिग्राम का पत्थर जब भगवान बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि पति-पत्नी एक दूसरे को जीवन्त देवसत्ता मानकर उसके सहारे प्राकृतिक कुत्साओं का संशोधन न कर सकें। आयुर्वेद में विषों का शोधन, जारण, मारण करके अमृत बनाया जाता है तो बदले में सेवा, सद्भावना, स्नेह, सौजन्य का परिचय देने वाले साथी में दिव्यता का आरोपण करते हुए अपना आत्मिक स्तर जमीन से आसमान तक ऊँचा उठाना पति व पत्नी दोनों का कर्तव्य है। इसमें दृष्टिकोण को परिवर्तन करने का आत्म शोधन, तप, दोनों को करना पड़ता है।

सभी देवताओं के विवाह हुए हैं पर सन्तान किसी को भी नहीं हुई। अपवाद मात्र शिव का है जिन्हें देवताओं की विपत्ति निवारण करने के लिए दो पुत्र पैदा किये और जिनका भरण पोषण कृतिकाओं ने किया। ऋषियों में भी ऐसे अपवाद हो सकते हैं। पर वे आपत्तिकालीन आवश्यकता की पूर्ति के लिए देव प्रयोजनों के लिए ही हुए होंगे। अन्यथा गृहस्थ होते हुए भी उनने निजी सन्तानोत्पादन का झंझट नहीं उठाया। याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थी, पर सन्तान एक को भी नहीं। इसी प्रकार अरुन्धती, अनसूया आदि ऋषिकाओं के इतिहास हैं। जब सारा संसार सारा गुरुकुल ही अपनी सन्तान है तो निजी प्रजनन का झंझट उठाकर निर्धारित सेवा कार्य में विघ्न विक्षेप क्यों उत्पन्न किया जाय।

बिना पत्नी का- बिना परिवार का ब्रह्मचर्य सरल है क्योंकि उसमें अभावजन्य विवशता है। पर जहाँ प्रतिबन्ध न होते हुए स्वेच्छा प्रतिबन्ध लगता है वहाँ वह प्रक्रिया तप बन जाती है। घर में भोजन न हो और भूखा रहना पड़े तो वह विवशता का उपवास है, पर जहाँ घर में व्यंजनों की कमी न होते हुए भी आहार का परित्याग किया जाता है, उपवास उसी को माना जायेगा।

कुण्डलिनी योग साधना को आध्यात्मिक काय विज्ञान कहा गया है। उसमें नर के लिए नारी और नारी के लिए नर शक्ति केन्द्र एवं शक्ति स्त्रोत बनते हैं। पत्नी भाव का मातृभाव में बदलते ही यौनाचार अवयव प्राण संचार उद्गम बन जाते हैं। माता की जननेन्द्रिय से अपनी काया उपजती है और धरती के समान पवित्र है। स्तन दूध पिलाते हैं। ये कामधेनुवत् है। माता का चुम्बन आलिंगन कितना पुनीत कितना उल्लास भरा होता है। उसमें अश्लीलता जैसी अनुभूति कहीं कोई नहीं होती। देवियों के चित्रों प्रतिमाओं में भी सभी नारी अंग होते हैं, पर कोई उपासक उन्हें देखकर अश्लील कल्पना नहीं करता। यही बात नारी आराधिका के सम्बन्ध में नर आकृति के इष्टदेव के सम्बन्ध में है। वास्तविक ब्रह्मचर्य यही है। अविवाहित तो रहा जाय पर कुकल्पनाएं मस्तिष्क पर छाई रहें तो वह प्रकारान्तर से व्यभिचार ही हुआ और पत्नी साथ रखकर राम सीता की तरह- वनवास बिताया जाय तो उसमें प्रणय चर्या की गंध भी नहीं सूँघी जाती है।

कुण्डलिनी साधना का प्रथम चरण यही है। उसमें दृष्टिकोण को ब्रह्मचारी समान बनाना पड़ता है। राम-कृष्ण परमहंस जब आध्यात्मिक साधना की परिपक्वावस्था में थे, तब उन्होंने माता शारदामणि से विवाह किया है। पाण्डुचेरी के अरविन्द घोष जब मौन एकान्त साधना में संलग्न हुए तब उन्हें अकेली माताजी को उनकी आध्यात्मिक सहचर को उनसे भेंट करते रहने की सहमति मिली। गाँधी जी ने 32 वर्ष की आयु में कस्तूरबा को माँ कहना आरम्भ किया और आजीवन दोनों के बीच वही माँ पुत्र का रिश्ता स्थिर रहा।

कुण्डलिनी साधक विवाहित हैं या अविवाहित इसका झंझट नहीं। अनुबन्ध इस बात का है कि समीपवर्ती अथवा स्मृति में आने वाले प्रतिपक्ष के प्रति देव भाव उत्पन्न हुआ या नहीं। दोनों के सम्बन्ध में वासना का विष घुल रहा है या नहीं। यह विष सामान्य गृहस्थों के जीवन में भी जितना अधिक होगा उनका लौकिक जीवन भी उसी अनुपात से विषाक्त होता चला जायेगा। विवाह का तात्पर्य यौनाचार की अमर्यादा नहीं। इस खाई खड्ड में धंस पड़ने पर दोनों पक्ष अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य गँवा बैठते हैं। पारिवारिक झंझटों से इतना अधिक लद जाते हैं कि उस बोझ को उठाते-उठाते कमर टूटती है।

तथाकथित समय और सम्पन्न देशों में इन दिनों विलासिता का उन्माद भूत पिशाच की तरह चढ़ा है। विलासिता में सजधज के समान ही यौनाचार की दुष्प्रवृत्ति बढ़ी है। इसका विषाक्त प्रतिफल सर्वप्रथम नारी को और उससे कुछ ही कम नर को भुगतान पड़ रहा है। नर अपनी जीवनी शक्ति का भण्डार चुकाता जा रहा है। बौद्धिक कुशाग्रता बेतरह घट रही है। उठती आयु में उत्तेजक आहार के कारण शरीर का ढकोसला तो बिगड़ने नहीं पाता। पर भीतर ही भीतर स्थिति घुने हुए गेहूं जैसी हो जाती है।

मनुष्य की औसत आयु विगत पचास वर्षों में बढ़ी है। पर बुढ़ापा दस वर्ष पहले आने लगा है। क्रिया शक्ति बेहतर क्षीण हो रही है। माँस के चलते-फिरते लोथड़े की तरह जीना पड़ रहा है। मस्तिष्कीय क्षमता में बेहतर गिरावट आई है। फलस्वरूप सनकी और अर्ध विक्षिप्त की तरह इस स्थिति में रहना पड़ता है। जिसमें न किसी के साथ रहा जा सके न कोई अपने साथ रह सकें। सनकों की दुनिया में तैरने वाला आदमी हमेशा असन्तुष्ट और चिन्तित रहता है। भयभीत या उत्तेजित भी। स्त्रियों की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। कामुक पुरुष समुदाय उन्हें छात्रावस्था से ही निचोड़ना शुरू करता है। इसके लिए प्रलोभनों की हाट लगी रहती है। कुशिक्षण के लिए अश्लील साहित्य, ब्लू फिल्में तथा इसी प्रशिक्षण में पारंगत बनाने वाले लाल, गली मुहल्लों में खुले रहते हैं। भेड़ियों की कहीं कमी नहीं। अन्तर सभ्यों और असभ्यों का है, कहीं रुलाकर, कहीं हंसाकर तरीके अपने-अपने हैं, पर नारी आखिर नारी है। वह वासना की कामधेनु नहीं है कि उसे निरन्तर दुहते रहने पर भी अक्षय बनी रहे। परिणाम सामने है। तथाकथित सभ्य देशों की नारियों में से अस्सी प्रतिशत यौन रोगों से ग्रसित पाई गई हैं। वासना की पूर्ति और जन्म निरोध की दुहरी मार उन्हीं पर पड़ती है। फलतः वे रंग बिरंगी गुड़िया दिखने के अतिरिक्त और कुछ रह नहीं जाती। इस खोखली स्थिति को वे किसी प्रकार टॉनिकों, नशों और नींद की गोलियों के सहारे घसीटती हैं। आयु बढ़ने के साथ वे हर दृष्टि से खोखली होती जाती हैं। मर्दों से भी अधिक दयनीय स्थिति उनकी होती है।

यह सभ्य और सम्पन्न देशों के नर नारियों की दुर्दशा है जिससे पीड़ित होकर वे भीतर रोते और बाहर हँसते रहते हैं। भारत जैसे पिछड़े और अशिक्षित देशों की स्थिति और भी गई बीती है। बूढ़े, अन्धेपन, खाँसी, विक्षिप्त, अशक्त स्थिति में दिन काटते हैं। बाल विवाह की लानत लड़कियों को सीधे बुढ़ापे में धकेल देती है। उन्हें पता भी नहीं चलता कि यौवन कब आया और कब चला गया। जो दिन इसके होते हैं उनमें से प्रजनन के भार से इस बुरी तरह लदी रहती हैं कि चैन की साँस लेने के दिन ही खाली नहीं मिलते। पच्चीस की आयु होते-होते चार पाँच बच्चों की माँ बन जाती है। मातृत्व पारिवारिक श्रम, आये दिन के अपमान, बन्दी जीवन साथ में कुछ न कुछ रोग भी समेट लाता है। श्वेत प्रदर, कमर का दर्द, शिर का दर्द, पैरों की फड़कन, अपच, अनिद्रा, थकान आदि अनेकों जंजाल शिर पर लादे हुए वे जिन्दगी की लाश ढोती रहती हैं। वे अपने लिए, परिवार के लिए, बच्चों के लिए, पति के लिए भार बनकर ही जीती हैं। इसका कारण एक ही है वासना का अत्यधिक और अनगढ़ दबाव।

इसका प्रमाण प्रत्यक्ष खोजा जा सकता है। विधवाएँ परित्यक्ताएँ, कुमारियाँ जिनकी गोदी में बच्चे नहीं हैं। अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ और सुखी रहती हैं। यों ऐसे जीवन में उन्हें अनिश्चित और अर्थाभाव की स्थिति में रहना पड़ता है तो भी वे सुहागिनों की तुलना में शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कहीं अधिक निश्चिंत और सन्तुष्ट रहती हैं। जिन तक इस दुर्व्यसन की हवा जितनी कम पहुँची है वे नर-नारी उतने ही अधिक सुखी हैं। आदिवासी, वनवासी, किसान, श्रमजीवी जिनके मस्तिष्क पर निर्वाह की समस्याओं को सुलझाना भर रहता है जिन पर वासना का प्रकोप जितना कम हुआ है, वे निर्धन और अशिक्षित होते हुए भी कम से कम स्वास्थ्य को गँवा बैठने के अभिशाप से तो बचे ही रहते हैं।

इन पंक्तियों में एक झाँकी उस स्थिति की कराई गई है जो आज की उद्धत पीढ़ी को वासना विलासिता की बलि वेदी पर चढ़कर सहन करनी पड़ती है। उनके लिए आध्यात्मिक प्रगति का, समाज सेवा का, उत्कृष्ट चिन्तन का, व्यक्तित्व के परिष्कार का तो सुयोग मिलता ही कहाँ है?

आध्यात्मिक काम विज्ञान की दिशाधारा और विलासी कुकर्मियों की कुचेष्टा में जहाँ जमीन आसमान जैसा अन्तर है वहाँ उसका कर्मफल भी निश्चित है। ब्रह्मचर्य को तप और योगाभ्यास कहा गया है इसका कारण प्रत्यक्ष है। उसे अपनाने पर नर और नारी के बीच जो सहज उमंग होती है और निकट आने पर उल्लास का निर्झर बनकर फूटती है, उसे कभी भी, कहीं भी, कोई भी प्रत्यक्ष देख सकता है।

नारी शक्ति है। नर तेजस्। दोनों एक दूसरे को उत्साह और बल प्रदान करते हैं, पर यह होता तभी है जब दोनों के बीच, कुत्सा का प्रवेश न होने पावे। काम का अर्थ क्रीड़ा है। क्रीड़ा अर्थात् विनोद, हास्य, पर वह होना चाहिए सात्विक। बालकों जैसा निश्छल। ऐसी मनःस्थिति बनाये रहकर, छोटी, बड़ी, समान आयु के नर नारी निकटता रखें। आत्मीयता भरें, सान्निध्य को बनायें, बढ़ायें तो उससे साँसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से दोनों ही पक्षों का लाभ होता है।

वे गलती पर हैं जो नर नारी की समीपता में पाप का दृष्टि का अनुमान लगाते हैं, और एक दूसरे को सर्वथा दूर रखने की बात सोचते हैं। पर्दे का प्रतिबन्ध लगाते हैं और जब भी किसी प्रकार के वार्तालाप या सहयोग का अवसर हो तभी जासूसी चौकीदारी करने के लिए मध्यवर्ती की नियुक्ति पुलिस मैन की तरह करना आवश्यक समझते हैं। ऐसे लोगों का मन ही कलुषित समझना चाहिए, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच रहने वाली श्रद्धा, सद्भावना पर विश्वास नहीं करते। सर्वत्र पाप ही पाप खोजते हैं। नर और नारी भी तो दो मनुष्य ही हैं। उनकी बारूद माचिस जैसी बनावट नहीं है जो निकट आते ही विस्फोट या अनर्थ उपस्थित करें।


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