अदृश्य सिद्ध पुरुष

January 1985

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एक महात्मा थे। योगाभ्यास और तपश्चर्या के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। संयम पालते और मन को एकाग्र बनाकर अंतर्मुखी रखते। जैसे गुण, कर्म और स्वभाव की दृष्टि ने एक सन्त को जैसा होना था, वैसे ही थे।

चौबीस वर्ष की अवधि पूरी हुई। महामन्त्र के अनुष्ठान पूरे हुए। साधना सिद्धि के निकट पहुँच गई। रात्रि को गणेश जी ने दर्शन दिये। कहा तुम्हारी साधना सफल हो गई। देवाधि देव शिवजी बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने मुझे भेजा है और पूछा है जो अभीष्ट हो वरदान माँगें।

तपस्वी ने कहा- मैंने वरदान के लिए साधना थोड़े ही की है। मैं तो अंतःकरण पर चढ़े कषाय-कल्मष धो रहा था और इस योग्य बनने जा रहा था कि स्वच्छ आत्मा में परमात्मा के दर्शन कर सकूँ? सो वह स्थिति जब आ जायेगी समझूँगा वरदान मिल गया।

गणेश जी समझाने लगे, साधक के पास सिद्धियां होनी चाहिए ताकि उसे आत्म-विश्वास हो और लोग उसकी विभूतियों का दर्शन करें। इससे लोगों का श्रद्धा विश्वास बढ़ता है। साथ ही कई उपकार भी बन पड़ते हैं। सो आप सिद्धियों के वरदान माँग लें। देवाधि देव इससे अप्रसन्न नहीं होंगे।

तपस्वी ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक कहा- इससे मेरा अहंकार बढ़ेगा। अनेकों प्रशंसा करेंगे। कोई प्रत्युपकार भी देना चाहेंगे। देवाधि देव के स्थान पर मेरी पूजा प्रशंसा होने लगेगी। इससे लक्ष्य तक पहुँचने में भटकाव पैदा होगा।

गणेश जी निरुत्तर हो गये। संत का कथन आदर्शों से भरा-पूरा था। इतने ऊँचे साधक से पहले उनकी भेंट नहीं हुई थी। सो वे सीधे कैलाश आसुतोष भगवान के पास पहुँचे और वार्तालाप का सारांश कह सुनाया। जो आप्त काम है उसे क्या दिया जाय?

अबकी बार शंकर भगवान स्वयं चल पड़े और बोले इसमें दाता की अवज्ञा होती है। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त कटता है। तुम अपने लिए न सही, लोकहित के लिए ही सही। कुछ तो माँग ही लो। हमें देते हुए प्रसन्नता होगी।

साधक बहुत देर विचार करता रहा। इष्ट देव की अवज्ञा न हो और मेरा अहंकार न बढ़े। कोई मध्यवर्ती मार्ग ढूंढ़ने में वह माथा पच्ची करने लगा।

समय तो लगा पर मार्ग मिल गया। साधक ने माँगा- मेरी छाया जहाँ भी पड़े कल्याण ही कल्याण होता चले।

देवाधि देव मुसकराये और तथास्तु कहकर चले गये।

सन्त की छाया जहाँ भी पड़ती सूखे पेड़ हरे हो जाते। तालाब पानी से भर जाते। रोगियों की काया चंगी हो जाती। कष्ट ग्रस्तों के संकट छूट जाते। उदासों के चेहरे पर मुस्कान फूटने लगती।

यह सब होता रहता, पर सन्त की दृष्टि आगे ही रहती। वे मुड़कर पीछे की ओर न देखते और उनकी वजह से किसी का कुछ भला हुआ है या नहीं, यह भी न देखते।

जिनका कल्याण होता वे जिस-तिस से पूछताछ करते कि वह देवता कौन है? वह सिद्ध पुरुष कहाँ है, जिसके अनुग्रह से हमारा इतना कल्याण हुआ। उसके लिए कृतज्ञता तो व्यक्त कर दें। कोई दूसरा पूछे तो उसे उस देवात्मा का नाम-पता तो बता दें।

पता किसका बताया जाता। संत आगे बढ़ते चले जाते। छाया भी रुकती नहीं थी। लोग पूछते तो बताते- संध्या तक छाया के सहारे चलेंगे और रुकने पर जहाँ रुकेंगे उसी के यहाँ ठहरेंगे।

सिद्धि व छाया हमेशा उनके साथ बनी रही। लोकेषणा से विरक्ति होना ही महामानव की विशेषता है। वे अपने साथ अनेकों को पार लगा देते हैं पर उद्घोष नहीं करते फिरते, न बाजीगरी ही दिखाते हैं।


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