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May 1972

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यदि जीवन में बुद्धिमानी की कोई बात है जो वह एकाग्रता है और यदि कोई खराब बात है तो वह है अपनी शक्तियों को बिखेर देना। बहुचित्तता कैसी भी हो, इससे क्या।

-इमर्सन

डॉक्टर बनने के लिये जो जानना चाहिए किन्तु सर्जरी में कोई छात्र तब तक निष्णात नहीं हो सकता जब तक कि उसे उस तरह की व्यावहारिक शिक्षा-कुशल सर्जन के तत्वावधान में न मिले। यों ऑपरेशन की सारी प्रणाली चित्रों सहित पुस्तकों में लिखी रहती है फिर भी प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन की आवश्यकता बनी ही रहती है। इंजीनियरिंग, कला, संगीत, युद्ध विद्या, रसायन आदि के बारे में भी यही बात है। ऊँची कक्षाओं की बात छोड़िये बाल कक्षा के बालकों के हाथ सचित्र बाल पोथी थमा देने पर भी वे अक्षर और अंक तब तक नहीं याद कर पाते जब तक कि अध्यापक का प्रत्यक्ष सहयोग उन्हें प्राप्त न हो। फिर आत्मिक प्रगति जैसे अप्रत्यक्ष अप्रचलित और दुरूह विषय का प्रशिक्षण तो एकाकी बन ही कैसे पड़ेगा?

श्रद्धा तत्व का विकास करते हुए आत्मिक प्रगति को तीव्र बनाने की दृष्टि से शिष्य का गुरु के प्रति श्रद्धावान और विनम्र होना उचित है। इससे अनुशासन, निष्ठा बनाये और क्रमबद्धता बनाये रहने में सुविधा होती है पर इसमें गुरु के लिये अहंकार करने, अपने को बड़ा मानने या अहसान जताने जैसी कोई बात नहीं है। यह एक क्रियागत प्रक्रिया है। अभिभावक अपनी सन्तान को सृष्टि के अनादि काल से पालते चले आ रहे हैं। प्रकृति से हर प्रजनन कर्म के साथ शिशु पालन की प्रवृत्ति भी जोड़कर रखी है। ऐसी दशा में कोई सन्तान पालन को परमार्थ क्यों माने? वह प्रकृति का स्वाभाविक क्रम है जिसे पालन किया ही जाना चाहिए। जो उसे पतित करेगा वह दोषी बनेगा। कोई प्रजनन में तत्पर रहे और फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सन्तान के प्रति उपेक्षा क्रूरता बरते, उससे विमुख हो जाय तो सामाजिक, राजकीय और ईश्वरीय दण्ड का भागी बनेगा। यही बात गुरु शिष्य के बारे में भी है। जब किसी की सहायता से गुरु को भी कुछ मिला है तो उसे उस क्रम को आगे बढ़ाने के लिये दूसरों की- अपने छात्रों की सहायता पवित्र कर्त्तव्य मानकर करनी चाहिए। इसमें न अहसान जताने की आवश्यकता है न अहंकार करने की। सच तो यह है कि यदि कोई छिपाता है और अनुदान में आना कानी करता है तो वह अपनी महानता ही खो बैठता है। शिष्य अपनी पात्रता सिद्ध करे श्रद्धालु और अनुशासित रहे यह उसी के पक्ष में- उसी को लाभान्वित करने वाली अलग बात है।

रामकृष्ण परमहंस बनने के लिये जन्म जन्मान्तरों की कठोर साधना अभीष्ट है पर विवेकानन्द बनना सरल है। समुद्र बनना कठिन है पर उसका पानी लेकर आकाश में बादल की तरह उड़ने लगना सरल है। समर्थगुरु रामदास बनने के लिये जन्म की गति कठिन और तलवार की धार पर चलने जैसी साधना करने का साहस सामान्य व्यक्तियों के पास नहीं होता शिवाजी के रूप में एक नगण्य से व्यक्तित्व वाले बालक को विकसित हो जाना भी सरल है। पारसमणि बनना कठिन है पर लोहे पर उसे छूकर सोना बन जाना सरल है। चाणक्य जैसी अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व कर सकने वाली सत्ता बन सकना हर किसी का काम नहीं। पर एक दासी पुत्र का दिग्विजयी सम्राट बनकर सफल होना सरल है। बुद्ध जैसी प्रतिभाएं कभी-कभी ही-ईश्वरीय इच्छानुसार अवतरित होती हैं पर उनकी छाया से अशोक, आनन्द, अंगुलिमाल, आवकाली आदि असंख्य व्यक्ति लघुता की परिधि लांघते हुए महत्ता का वरण कर सकते हैं। गाँधी कभी-कभी ही उत्पन्न हो सकते हैं पर उनका अनुगमन करने वाले व्यक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक नेता और ऐतिहासिक महापुरुषों की पंक्ति में अपनी गणना सहज ही करा सकते हैं।

आत्मिक प्रगति की उपलब्धियों-भौतिक प्रगति की तुलना में असंख्य गुनी सामर्थ्य सम्पन्न और हर्षोल्लासमय है। उन्हें प्राप्त कर सकना मानव जीवन की सबसे बड़ी और सबसे महान सफलता है। जो इस दिशा में बढ़ सका समझना चाहिए हर दृष्टि से कृतकृत्य हो गया। प्रचलित और प्रत्यक्ष मान्यतायें भौतिक सफलताओं को सर्वोपरि मानती हैं पर यदि विवेक युक्त दूरदृष्टि से विचार किया जाये तो प्रतीत होगा कि यह मान्यता सही नहीं है। आत्मबल सम्पन्न महामानवों का जीवन विश्लेषण करें- उनके द्वारा उपार्जित आन्तरिक आनन्द और बाह्य अनुदानों का मूल्याँकन करें तो प्रतीत होगा कि संसार का बड़े से बड़ा सुसम्पन्न व्यक्ति भी उस तुलना में अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। सम्पन्नता के साथ जुड़े हुए मतिभ्रम और क्लेश, द्वेष दुर्भाव को भी समझा जाय तो प्रतीत होगा कि सम्पन्नता जन्य सुख मात्र दृष्टि भ्रम और कल्पना जञ्जाल भर है। सुखी बनने के लिए सम्पदाएं नहीं- विभूतियाँ आवश्यक हैं जो आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए भी प्राप्त की जा सकती हैं।

इस मार्ग पर चलने के इच्छुक साधक को अनुभवी और सही मार्ग दर्शक की आवश्यकता अनिवार्य रूप से जुटानी पड़ती है। साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कोई विदूषक गुरु पद का प्रहसन रचे न बैठा हो और अपने साथ-साथ अनुगमन कर्त्ता को भी न डुबा रहा हो। सही मार्ग दर्शन की तलाश में निकले हुए आत्म पथ के पथिक को जहाँ श्रद्धालु होना चाहिए वहाँ सतर्क भी अन्यथा इस धूर्तता के युग में किसी अहेरी के जाल में फँसकर प्रगति तो दूर जो पास में था उसे भी गँवा बैठेगा।

गुरुदेव जीवन लक्ष्य की ओर जिस सुव्यवस्थित नीति से आगे बढ़ते चले गये उस पर दृष्टिपात करने से हमें इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचना पड़ता है कि आत्मिक प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिए एक ऐसे जीवन साथी की आवश्यकता है जो सामयिक आवश्यकता ही पूरी न करे वरन् अन्त तक साथ निभाने के लिए निष्ठावान और पथ प्रदर्शन के लिए सामर्थ्यवान हो। उन्हें ऐसे ही मार्ग दर्शक प्राप्त हुए फलतः कठिन यात्रा इतनी सार्थक और सफल हुई कि उनके साथी चकित रह जाते हैं।

यह सर्वविदित है कि 15 वर्ष की आयु में उन्हें एक समर्थ सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ था और वह अब तक यथावत् अनवरत एवं अविच्छिन्न रूप से यथावत् बना और बँधा चला आता है। ओछे व्यक्ति पग-पग पर मन डुलाते हैं, इसे छोड़ उधर पकड़ की उछल-कूद मचाते हैं पर स्थिर चित्त व्यक्ति किसी मार्ग को पकड़ते हैं तो बहुत सोच विचार कर, पर जब पकड़ लेते हैं तो उसे अन्त तक निभाते हैं। गुरुदेव के मार्ग दर्शक ने इस नव विकसित पुरुष की गहन श्रद्धा और अटल कर्मठता की गन्ध पाई और वे उसे सुविकसित करने के लिए टूट पड़े। श्रेय समर्थ अनुग्रह कर्त्ता मार्ग दर्शक को ही मिलना चाहिए पर प्रशंसनीय वह व्यक्तित्व भी है जिसने जन्म जन्मान्तरों से अपनी पात्रता विकसित करने की साधना की और अपने को इस योग्य बनाया कि कोई समर्थ देवदूत उसे प्रसन्नता पूर्वक अपना सके।

खोटे, ओछे, उथले और छिछोरे व्यक्ति भी महापुरुषों के आशीर्वाद का लाभ कभी-कभी प्राप्त कर लेते हैं पर वह तो ऐसा ही है जैसे किसी विवाह शादी के अवसर बच्चे कागज के खिलौने-फूल पट्टी लूटते जाते हैं। दुलहन के ऊपर निछावर में पैसे बिखेरे जाते हैं- फूल फेंके जाते हैं छोटे बालक उन्हें ले भागते हैं। यह कोई ठोस उपलब्धि नहीं हुई। कटी पतंग को लूट लेने में क्या पुरुषार्थ है माँग कर तो भिखारी भी पेट भर लेते हैं पर वह प्रशंसनीय थोड़े ही है। दर्शन करके अपनी दीनता प्रकट करके-और सेवा पूजा का प्रलोभन देकर कुछ प्राप्त करने की तरकीबें ओछे लोग निकालते रहते हैं। जो ईश्वर और आत्मा तक को देख सकता है ऐसा तत्व ज्ञानी इस बाल क्रीड़ा जैसे प्रहसन को न समझता हो ऐसी बात नहीं- फिर भी वे अपनी सहज उदारता से द्वार पर आये अतिथि देव का सत्कार करने की दृष्टि से उसे कुछ न कुछ देकर ही विदा करते हैं। इसमें महिमा दाता की है। गृहीता की नहीं। ग्रहण करने वाला वह प्रशंसनीय है जो अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता का परिचय देकर समर्थ आत्माओं को विशिष्ट अनुकम्पा करने के लिये विवश करता है।

मात्र भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए नहीं- आत्म-कल्याण के लिए जो लालायित है उसे पात्र कहा जायेगा। जिसे अपना अन्तःकरण निर्मल निस्पृह और उत्कृष्ट बनाने में रुचि है वह सत्पात्र है और जिसने लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा से विमुख होकर विश्व मानव के लिये अपने आपको समर्पित करने का संकल्प किया वह महापात्र है। पात्र को देवी सहायता मिलती है। सत्पात्र श्रेय और स्नेह प्राप्त करने का अधिकारी है पर महापात्र पर तो देव सत्ताएं अपने आपको निछावर ही कर देती हैं।

सुना है विक्रमादित्य के पास वेताल नाम की एक सहायिका दिव्य आत्मा थी और समय-समय पर उसके


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