गुरुदेव जब कभी शान्ति कुञ्ज आया करेंगे, उस समय का उपयोग वे परिजनों में शक्ति का हस्तान्तरण करने के लिए किया करेंगे। विचार तो साहित्य के माध्यम से भी दूर-दूर तक पहुँच सकते हैं और मरने के बाद भी दूसरों को प्रभावित करते रह सकते हैं। विचार शक्ति से भी बढ़कर है- प्राण शक्ति। वह व्यक्ति के साथ ही जुड़ी रहती है और एक सीमित क्षेत्र में ही गरमी फैला सकती है और समीपवर्ती लोगों को भी लाभ पहुँचा सकती है। प्राण-शक्ति ऐसा ही तत्व है जो समीपता ही नहीं निकटता से भी संबंधित है। ऋषियों के आश्रयों में सिंह और गाय एक घाट पानी पीते हैं पर वहाँ से दूर जाकर वे फिर अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर उतर आते हैं। गुरुदेव का हरिद्वार आगमन इसी प्रयोजन के लिए होगा।
स्वभावतः इसके लिए जनसंपर्क बनेगा। पर वह सीमित और परिष्कृत होगा। वैखरी वाणी का प्रयोग आवश्यक नहीं। मौन रह कर भी मध्यम या पश्यन्ति वाणियों का प्रयोग हो सकता है और उनमें से भी इतना ज्ञान, प्रकाश एवं बल मिल सकता है जितना महीनों और सालों के प्रवचनों से भी सम्भव नहीं। नारद जी कहीं पर भी ढाई घड़ी-एक घण्टा से अधिक नहीं ठहरते थे पर इतने में ही उतना अनुदान दे जाते थे कि ध्रुव, प्रह्लाद जैसे बालकों को बाल्मीक जैसे डाकुओं को काया-कल्प जैसी प्रेरणा मिल सके। बौद्धिक-विचार विनिमय के लिए घण्टों चाहिएं पर आत्मिक समाधान के लिए कुछ क्षण ही पर्याप्त हैं। इसी आधार पर जब कभी वे शान्ति कुञ्ज आवेंगे अपना अनुदान वितरण करेंगे। लम्बे सत्संग या परामर्श की उसमें कोई गुंजाइश नहीं है। थोड़े में ही बहुत प्रयोजन पूरा हो जाय तो बहुमूल्य समय की बर्बादी क्यों हो?
स्वाभाविक है कि गुरुदेव के प्राण प्रिय लाखों परिजन उनके आगमन के अवसर पर मिलने के लिए आतुर हों और अनियन्त्रित रूप से बहुत बड़ी संख्या में चल पड़ें। ऐसी दशा में वह अव्यवस्था कुछ दिन पूर्व इलाहाबाद कुम्भ में सैंकड़ों व्यक्ति भीड़ के पैरों तले कुचल जाने जैसी गड़बड़ी उत्पन्न करेगी। गत 21 से 30 जून तक के दिन ऐसे ही बीते। किसी से भी ढंग की बात न हो सकी और गुरुदेव का प्रयोजन भी नष्ट हो गया। भविष्य में यह भूल कभी भी नहीं दुहराई जायेगी। मिलन दर्शन के लिए बहुत पहले से ही तिथि तथा समय की स्वीकृति प्राप्त करनी होगी। यहाँ आने पर भी वे प्रायः 20 घंटे अपनी एकान्त साधना में निरत रहेंगे। हर दिन एक सीमित समय ही संपर्क के लिए निर्धारित रहेगा। उतने में भी कई व्यक्ति मिलने होंगे। सम्भवतः हर व्यक्ति के हिस्से में अधिक से अधिक आधा घण्टा ही आवेगा। इतने से ही हर किसी को सन्तोष करना होगा। यों उनके प्रेम और अमृत तुल्य सान्निध्य से विरत रहने को किसी की इच्छा न होगी। प्रत्येक परिजन अधिक से अधिक समय किसी भी बहाने उनके साथ रहने में सुख अनुभव करेगा। पर अब उनके कंधों पर जो महान उत्तरदायित्व है उसे देखते हुए वैसी सम्भावना है नहीं।
साधारण तथा उनके निर्देशों पर चलना, उनके मस्तिष्क और हृदय के साथ जुड़े रहना ही सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त है पर यदि किन्हीं को कुछ विशेष प्रयोजन हो तो उसके लिए मुझे नाम और प्रयोजन नोट करा देना चाहिए। सुविधानुसार उन्हें बुला लिया जायेगा। जिन्हें वे स्वयं बुलाना चाहेंगे उन्हें स्वयं सूचना भेज दिया करूंगी शान्ति कुञ्ज में ठहरने की स्वल्प व्यवस्था और गुरुदेव का मिलन समय स्वल्प रहने के कारण इस प्रकार का प्रतिबन्ध अप्रिय लगते हुए भी अनिवार्य रूप से आवश्यक हो गया है। यह विवशता भरी लाचारी है। किसी की उपेक्षा अवज्ञा नहीं। तथ्य को न समझा गया और स्वयं ही अधिक समय मिलने का आग्रह किया गया तो इसका स्पष्ट अर्थ दूसरों को इस लाभ से वंचित करना ही होगा। मोह वश ऐसी आकुलता अवाँछनीय ही मानी जायेगी।
गुरुदेव को जो मिला है वह उनके मार्ग-दर्शक का अनुदान है। वह परम्परा आगे भी बढ़ाने का अवसर आ गया। गुरुदेव को अपनी उपार्जित विभूतियाँ दूसरों को देनी हैं। अन्यथा गुरु ऋण से मुक्ति कैसे मिलेगी? समर्थ आत्मवेत्ता का कर्तव्य कैसे पूरा होगा? अनुदान देने से पूर्व पात्रता की परख नितान्त आवश्यक है। याचना बात अलग है पात्रता अलग। याचक के बहुत विनय करने पर भी स्वल्प सा मिलता है किन्तु पात्रता के ऊपर बहुत कुछ निछावर करने के लिए देवताओं को भी उलटी मनुहार करनी पड़ती है। अपने लिए नहीं- दूसरों के लिए। जो सोचते और चाहते हैं वे अध्यात्म क्षेत्र में सत्पात्र गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की दीपक लेकर खोज की जाती रहती है। वे सिद्ध पुरुषों के पास नहीं जाते। दिव्य-शक्तियाँ उन्हीं का द्वार खटखटाती हैं। गुरुदेव का द्वार ऐसी ही एक दिव्य शक्ति ने खटखटाया था। अब उनकी बारी है वे ऐसे ही सत्पात्रों के द्वार-द्वार पर उनकी मनुहार करते हुए फिरते हुए- दृष्टि गोचर होंगे।
शान्ति कुञ्ज में बुलाकर जिन्हें वे परामर्श अनुदान दिया करेंगे उनमें ऐसे ही लोगों की संख्या प्रधान रूप से होगी। यों उनका यह क्रम सूक्ष्म शरीर से ही चलता रहता पर कभी कुछ अतिरिक्त प्रकाश देना अभीष्ट होगा तो उसके लिए उन्हें बुलाना भी पड़ेगा। अब वे लम्बी बातें किसी से नहीं करेंगे, न विचार-विनिमय न शंका समाधान। केवल उस प्रकाश की चिनगारियाँ देंगे जिसके प्रकाश में समस्याओं को सुलझाया जाना, शंकाओं का समाधान और दुर्बलताओं का निराकरण स्वयंमेव हो सके। ऐसे प्रशिक्षण की प्रक्रिया उनने समाप्त कर ली। वाणी से जितना कहना आवश्यक था कह चुके हैं। भाषण बहुत हो गये। विचार गोष्ठियाँ और शंका समाधान में उनने कुछ कमी नहीं रखी है। लिखना भी कम नहीं हुआ, उनके विनिर्मित ग्रन्थ उनके शरीर से अधिक भारी हैं। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद पर अखण्ड-ज्योति के माध्यम से निकट भविष्य में निकलते रहने वाले लेख अभी वर्षों के लिए पहले से ही लिखे रखे हैं। अब वे अपना अनुभव लिखने के लिए ही आवश्यकतानुसार लेखनी उठाया करेंगे और प्रेरणायें अन्तःकरणों में उतारने के लिए ही वाणी का उपयोग किया करेंगे। पिछले दिनों जो किया जाता रहा है उसे ही आगे भी दुहराते रहना- पिसे को पीसने के बराबर है। उस प्रचार कार्य को करते रहने के लिए उन्होंने हजारों वक्ता, हजारों लेखक, हजारों प्रचारक और हजारों संगठन कर्त्ता खड़े कर दिये हैं, वे स्वयं भी अब क्यों उसी पृष्ठ पोषण में लगे रहें?
प्रशिक्षण की प्रक्रिया जितनी उनके कंधों पर रखी गई थी वह पूरी कर ली। अब ‘प्रत्यावर्तन’ का क्रम शेष है। अगले दिनों उसी को पूरा करेंगे। प्रशिक्षण उसे कहते हैं जो कान या आँख के माध्यम से ग्रहण किया जाता है और मस्तिष्क जिससे प्रभाव ग्रहण करता है। उसे विचार विनिमय भी कह सकते हैं। प्रत्यावर्तन इससे कहीं ऊँची चीज है। वह अन्तःकरण से दी जाती है और सीधी अन्तःकरण में प्रवेश करती है। इसके लिए लेखनी या वाणी का प्रयोग नहीं करना पड़ता और कानों को, नेत्रों को उसे ग्रहण करने का कष्ट उठाना पड़ता है। पत्र-व्यवहार की भी इस स्तर पर पहुँचने के बाद आवश्यकता नहीं रह जाती। प्रत्यावर्तन वस्तुतः अपनी शक्ति को दूसरे में सीधे प्रविष्ट करा देने की प्रक्रिया है।
डॉक्टर इन्जेक्शन लगाते हैं। और मुख से औषधि खाने, पेट में पचाने के उपरान्त रक्त में मिलने की लम्बी प्रक्रिया को सरल कर देते हैं। इंजेक्शन द्वारा प्रवेश की गई दवा क्षण भर में समस्त शरीर की नस नाड़ियों में फैलती और रक्त में मिलती है। इसे चिकित्सा क्षेत्र का प्रत्यावर्तन कह सकते हैं। किसी दुर्बल रोगी को बाहर का रक्त देना पड़ता है इसे भी उसे संज्ञा में गिन सकते हैं। गर्भाधान क्रिया भी इसी श्रेणी में आती है। कोई धनी अपना धन किसी को देकर उसे भी अपने समान ही धनवान बना सकता है यह सम्पत्ति परक प्रत्यावर्तन है। अपनी उपलब्धियाँ दूसरों को हस्तान्तरित की जा सकती हैं। विवेकानन्द, शिवाजी, चन्द्रगुप्त आदि कितने ही महापुरुष इसी प्रकार का लाभ प्राप्त करके आगे बढ़े हैं, स्वयं गुरुदेव की कथा भी ठीक ऐसी ही है, उनकी जीवन साधना और नैष्ठिक उपासना सराहनीय है पर उसका जितना प्रतिफल हो सकता था उससे सहस्रों गुना अनुदान प्रत्यावर्तन के रूप में मिला है यह भी सर्वथा सत्य है।
अधिकतर लोगों के लिए स्वल्प कालीन मौन सत्संग ही निकटवर्ती सान्निध्य ही इतना पर्याप्त होगा कि उसे पचाने में बहुत समय लगेगा। गुरुदेव के मार्ग-दर्शक ने उन्हें पिछले अज्ञातवास के समय केवल चार दिन अपने पास रखा। इसके बाद अभ्यास के लिए अन्यत्र भेज दिया, इस बार भी वह सामीप्य चार दिन का ही था। इसके बाद उन्हें अन्यत्र रहना पड़ा। दो बार में चार-चार दिन का अवसर मिला कुल आठ दिन का। अभी एक दिन और बाकी है। माता नौ मास पेट में रखती है गुरु यदि सच्चा गुरु हो तो उसके उदर में नौ दिन रहने से ही जीवन का काया-कल्प हो सकता है। एक दिन ही और गुरुदेव को अपने मार्ग दर्शक का सान्निध्य मिलना शेष है। इतनी अवधि में ही वे अपना प्रत्यावर्तन प्रयोजन पूरा कर लेंगे। इसी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि समर्थ समीपता अधिक लम्बी हो यह आवश्यक नहीं थोड़े समय में भी बहुत प्रयोजन पूरा हो सकता है।
गुरुदेव कुछ ऐसा भी संकेत कर रहे थे कि कुछ लोगों को तीन या पाँच दिन के लिए अपने समीप रखना होगा। समीप से मतलब शान्ति कुञ्ज की इमारत में एकान्त साधना के लिए निवास। साधना का स्वरूप होगा- एकान्त सेवन-एकाकी निवास-मौन-मस्तिष्क विचार रहित-शरीर क्रिया रहित। शल्य क्रिया के समय रोगी को निःचेष्ट रहना पड़ता है। उसे हिलने डुलने नहीं दिया जाता। यह प्रत्यावर्तन साधना क्रम भी लगभग उसी स्तर का होगा। दुर्बल रोगी के शरीर में जिस प्रकार नस में ग्लूकोस या नया रक्त प्रवेश करके उसे सामर्थ्य प्रदान की जाती है उसी प्रकार का यह साधना उपचार भी होगा।
सामान्य संपर्क सान्निध्य में आधा घन्टा से अधिक अवसर किसी को नहीं मिलेगा। समय पर जोर देना व्यर्थ है। महत्ता समय की नहीं वस्तु की उत्कृष्टता की है। एक एक पैसा करके एक महीने भर तक निरन्तर देते रहा जाय तो मुश्किल से हजार रुपये दिये जा सकेंगे। इसके विपरीत पाँच मिनट में भी दस लाख का चैक दिया जा सकता है। समय का आग्रह नहीं किया जाना चाहिए। अनुदान की उत्कृष्टता परखी जानी चाहिए।
जिन्हें अधिक समय साधना करनी है उन्हें तीन दिन उस मिट्टी की तरह बने रहना होगा जिस पर पानी बरसता रहता है और वह उसे पीकर गीली होती रहती है। एक दो दिन हरिद्वार ऋषिकेश आदि घूमने फिरने को मिलें और तीन दिन साधना रत रहना पड़े तो वे पाँच दिन पर्याप्त होंगे। बालक नचिकेता आचार्य यम के दरवाजे पर तीन दिन भूखा पड़ा रहा था और पंचाग्नि विद्यायें सीखकर आया था। इस साधना में किसी के शरीर को भूखा नहीं रखा जायेगा। जो मुझसे बन पड़ेगा अपने हाथों बनाकर खिलाया करूंगी। पर आत्मिक क्षुधा जागृत ही रखनी चाहिए। आत्म-कल्याण की उत्कृष्ट अभिलाषा न हो तो कुछ काम बनने वाला नहीं है। नचिकेता जैसी पेट की नहीं आत्मिक क्षुधा लेकर जो आयेंगे वे उपरोक्त साधना से तृप्त होकर जायेंगे।
यह साधना क्रम कब चलेगा कितने लोग एक साथ उसमें भाग ले सकेंगे अभी इसकी स्पष्ट रूप रेखा उनने नहीं बताई। इस विषय का स्पष्टीकरण अभी अनुपलब्ध है। संभवतः वह छपेगा भी नहीं। व्यक्तिगत सूचनाओं का आदान-प्रदान ही उस साधना संदर्भ का माध्यम रहेगा।
स्वल्प सान्निध्य की अथवा तीन पाँच दिन वाली साधना प्रक्रिया के साथ एक और भी अति महत्वपूर्ण प्रकरण जुड़ा हुआ है। वह है- इस जीवन में जानबूझ कर हुए पापों का प्रायश्चित पूर्व जन्मों के संग्रहीत पाप जो प्रारब्ध बन चुके उन्हें सरलता पूर्वक भोगा जा सके ऐसा मार्ग निकाला जायेगा और इस जन्म में बन पड़े दुष्कृत्यों का प्रायश्चित द्वारा निराकरण किया जायेगा।
कहा जा चुका है कि कर्मफल अनिवार्य है। वे न क्षमा माँगने से छूटते हैं और न किसी मन्त्र-तन्त्र से इनकी निवृत्ति सम्भव है। बालि को छिपकर मारने का कर्मफल भगवान् राम को कृष्ण जन्म में भुगतना पड़ा। बालि ने बहेलिया बनकर उनके पैर में तीर मारा और प्राण हरण किया, श्रवण कुमार को तीर मारने के फलस्वरूप दशरथ जी को उसी तरह पुत्र शोक में बिलख-बिलख कर मरना पड़ा। पुत्र होते हुए भी भगवान राम अपने पिता का वह कर्मफल भोग मिटा न सके। भारतीय धर्म शास्त्रों में सर्वत्र पाप के फल से बचने के लिए ‘प्रायश्चित्य’ विधान का वर्णन किया है। ईश्वरीय विधान द्वारा दण्ड मिले इससे अच्छा यही है कि साहस पूर्वक अपनी भूल को प्रकट करके उसके लिए निर्धारित दण्ड भुगत लें। दूसरों को क्षति पहुँचाई है उसकी पूर्ति समाज में सत्प्रवृत्तियों को बढ़ा कर की जा सकती है। पापों की तुलना में पुण्य का पलड़ा बराबर करके भी उद्धार पाया जा सकता है। भगवान् परशुराम ने अत्याचारी राजाओं के शिर काट दिये तो उन्हें प्रायश्चित करना पड़ा कि जितनी हत्यायें की हों उतने ही उद्यान लगायें। वे वध प्रक्रिया की अपेक्षा हजार गुने समय तक- उस सृजन काल में संलग्न रह कर पाप का प्रायश्चित करते रहें।
आत्म शोधन के लिए जहाँ भावी जीवन की गतिविधियाँ शुद्ध करने की आवश्यकता है वहाँ भूतकाल में हुई भूलों के लिए प्रायश्चित करना भी आवश्यक है। इस अन्तःशुद्धि की प्रक्रिया को अपनाये बिना साधना का समुचित लाभ न मिल सकेगा। अस्तु इसी अवधि में आत्म लाभ के लिये आने वाले आगंतुकों से उनके इस जन्म की भूलें सुनकर तदनुरूप प्रायश्चित भी बता दिया जायेगा। जीवन-मुक्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है। क्योंकि पिछले जन्मों के कर्म इस जन्म में प्रारब्ध बन कर भुगतने पड़े और जन्म लेना पड़ा। यदि इस जन्म के पाप यथावत बने रहे उनका प्रायश्चित निराकरण न हुआ तो अगले जन्म के लिए वे प्रारब्ध बन जायेंगे। और उन्हें भुगतने के लिए न जाने किस स्थिति का जन्म लेना पड़ेगा, यदि इस स्थिति में अनुपयुक्त वातावरण मिला तो फिर अधःपतन का पथ और भी प्रशस्त होता जायेगा और क्रमशः अधिक पतित स्थिति के गर्त में गिरना पड़ेगा। इस विपत्ति से बचने के लिए यही उपयुक्त है कि इन्हीं दिनों इस जन्म के पापों का प्रायश्चित करके भविष्य के लिए निश्चिन्त हो जाया जाय। जन्म मरण के बन्धनों से मुक्ति पाने के लिए ही नहीं- साधना का रंग पवित्र अन्तःकरण ही बढ़ सकने वाली बात को ध्यान में रखते हुए भी यह किया जाना नितान्त आवश्यक है। यह भली-भाँति स्मरण रखना चाहिए कि तप साधना का प्रयोजन जहाँ आत्म-शक्ति का विकास करना है वहाँ पापों का प्रायश्चित भी है। इसे अलग रख कर केवल पूजा उपासना भर से किसी बड़ी आत्मिक सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
गुरुदेव द्वारा मिले संकेतों से प्रतीत होता है कि वे आत्मबल संग्रह करने और आत्म-कल्याण के लिए ऊँचे हृदय से इच्छुक परिजनों को शान्ति कुञ्ज आने का अवसर देंगे और उन्हें स्वल्प कालीन सान्निध्य अथवा पाँच दिवसीय प्रत्यावर्तन साधना का लाभ देंगे, उसी के साथ प्रायश्चित द्वारा आत्म शोधन की तप साधना का निर्धारण भी जुड़ा हुआ होगा।