लोकशिक्षण का एक सरल किन्तु अति प्रभावी आधार

May 1972

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भारतीय धर्म और संस्कृति की गरिमा अपनी परम्पराओं और मान्यताओं के अनुरूप होने के कारण प्रतिपादित नहीं की जा रही है, वरन् उसे इसलिये महत्व दिया जा रहा है कि उसमें समस्त मानव-जाति की भावनात्मक उत्कृष्टता बनाने और बढ़ाने की सार्वभौम क्षमता विद्यमान है। भारतीय उसे इसी दृष्टि से कहा जा सकता है कि उसका उद्भव भारत में हुआ अन्यथा उसका स्वरूप और प्रयोजन मानवीय स्वभाव संस्कार को परिष्कृत करना ही पाया जायगा। अगले दिनों थोड़े हेर-फेर के साथ विश्व धर्म और विश्व संस्कृति की आवश्यकता इसी आधार को लेकर पूर्ण की जाने वाली है।

अस्तु उसे सर्व साधारण के परिचय में लाया ही जाना चाहिए। इसका प्रारम्भ अपने ही देश में किया जाया क्योंकि अगले दिनों किसी प्रतिपादन को मात्र उसकी व्याख्या विवेचना से ही मान्यता न मिलेगी वरन् उसके व्यावहारिक परिणामों को भी देख जायगा। भारतीय संस्कृति—अगले दिनों विश्व संस्कृति का रूप ले सकती है या नहीं इसका मूल्यांकन इस दृष्टि से किया जायगा कि जिन लोगों ने उसे अपनाया उन पर उसका क्या प्रभाव पड़ा। कहना न होगा कि पिछले दिनों अज्ञानान्धकार युग ने अपने धर्म और संस्कृति का स्वरूप विकृतियों और मूढ़ मान्यताओं से भर दिया है। जिससे न केवल अपना समाज दुर्बल ही हुआ है वरन् विश्व के विचारशील वर्ग के समक्ष उपहासास्पद भी बना है। इतनी ऊँची संस्कृति रहते हुए भी भारतीय जनता की यह दुर्दशा? इस उलझी पहेली के पीछे धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में घुस पड़ी विकृतियाँ ही हैं। इनका निराकरण करना ही होगा अन्यथा उसे विश्व संस्कृति का गौरव प्राप्त होना तो दूर अपने ही देश में उसकी उपेक्षा अवज्ञा होने लगेगी।

भारतीय धर्म, दर्शन, आचार तथा लक्ष्य को अध्यात्म तत्व ज्ञान से ओत-प्रोत होने के कारण समस्त विश्व के कोने-कोने तक पहुँचाना होगा। इसके लिये दो हजार वर्ष पूर्व हुए ढाई लाख बौद्ध भिक्षुओं के प्रयास से प्रेरणा लेनी होगी जिन्होंने यातायात के साधन न होने पर भी संसार के कोने-कोने में फैलकर उन दिनों धरती की आधी जनता को उस प्रतिपादन से दीक्षित किया था। इन दिनों ईसाई धर्म भी यही कर रहा है। ईसाई दर्शन को आज की बौद्धिक स्थिति के अनुरूप प्रस्तुत करके उसे विचारशीलों के समझने योग्य बनाया गया है। साथ ही बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरी अपनी सुख-सुविधायें छोड़कर संसार के कोने-कोने में प्रचार कार्य करने के लिये निकल पड़े हैं। इसी का परिणाम है कि संसार की लगभग एक तिहाई जनता आज ईसाई धर्म में दीक्षित हो गई। विश्व की आबादी इन दिनों साढ़े तीन अरब है इसमें इसाइयों की संख्या एक अरब से अधिक है। दूसरी ओर हम हैं—जिनकी संख्या तेजी से घटती चली जा रही है लोग अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्मों में धड़ाधड़ प्रवेश कर रहे हैं। इसका कारण दार्शनिक दुर्बलता नहीं वरन् उसके व्यावहारिक स्वरूप में विकृतियों की भरमार हो जाना ही है इसका निराकरण करना ही होगा। तभी उसका परिष्कृत स्वरूप उपयोगी और आकर्षक सिद्ध होगा। उसी को बुद्धि जीवी वर्ग की—विश्व लोक मत की मान्यता मिलेगी।

भारतीय अध्यात्म, धर्म, दर्शन, तत्वज्ञान, आचार एवं साँस्कृतिक आधार का शुद्ध रूप प्रस्तुत करने के लिये युग-निर्माण योजना के अंतर्गत क्रमबद्ध और अत्यन्त ठोस कार्य होता रहा है। प्राचीन आर्ष ग्रन्थों को सर्वसुलभ बनाने में उनके भाष्य और प्रकाशन में—अद्भुत प्रयत्न किया गया है। उन्हीं आधारों को सरल एवं सुबोध भाषा में साधारण पुस्तकों द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है। पाँच भाषाओं में छपने वाली पत्रिकायें भी यही छापती हैं। ट्रैक्ट और विज्ञप्तियों में भी यही आधार भरा पड़ा होता है। जहाँ तक इस महान तत्व ज्ञान का सामयिक परिस्थितियों से ताल-मेल बिठाते हुए प्रेरणाप्रद शैली में प्रतिपादित करने का प्रश्न है वहाँ तक स्वल्प साधनों को देखते हुए शब्द में ‘बहुत कुछ’ कहा जा सकता है। वह अब इतनी मात्रा में अवश्य है कि उससे काम चलाऊ आवश्यकता पूरी की जा सके।

आवश्यकता उसे जन समाज तक पहुँचाने और जन मानस में उतारने की रह जाती है। इसके लिये झोला पुस्तकालयों, चल पुस्तकालयों द्वारा थोड़ा प्रयास तो हो रहा है पर वह शिक्षित वर्ग में एक विशेष रुचि के लोगों तक ही सीमित है, जब कि आवश्यक यह है कि उस प्रकाश को जन-जन तक पहुँचाया जाय। इस देश के नागरिकों को न केवल अपने उत्कृष्ट तत्व दर्शन का वास्तविक स्वरूप समझने की ही सुविधा मिले वरन् उसे इस का व्यावहारिक मार्ग दर्शन भी उपलब्ध हो, तभी इस दर्शन से अपना देश लाभान्वित हो सकता है और उसका प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ सकता है।

कठिनाई यह है कि अपने देश में 77 प्रतिशत जनता अशिक्षित है और 5 प्रतिशत लोग ऐसे छोटे देहातों में रहते हैं जहाँ विद्वानों, प्रचारकों का पहुँच सकना और प्रशिक्षण परक आयोजनों का बन पड़ना सम्भव नहीं। फिर एक बार के भाषण से भी काम चलने वाला नहीं। शिक्षण क्रम बार-बार दुहराया जाता रहे तभी उसे व्यवहार में स्थान मिलता है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये प्राचीन मनीषियों की वह बहुमूल्य एवं दूरदर्शिता पूर्ण विधि-व्यवस्था ही उपयोगी लगी जो उन्होंने विशेष रूप से इसी कठिनाई के समाधान के लिए विनिर्मित की थी।

पर्व और त्यौहारों की प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाये जाने का प्रचलन यदि गतिशील हो उठे तो निस्सन्देह उससे लोक शिक्षण की एक महती आवश्यकता पूर्ण ही जा सकती है। महामना मदन मोहन मालवीय सदा इस बात पर बहुत जोर देते रहे पर उन दिनों राजनैतिक आन्दोलनों के प्रवाह में यह संभव न हो सका, आज इसके लिए उपयुक्त अवसर है। होना यह चाहिये कि कुछ महत्वपूर्ण पर्व दो-दो महीने के अन्तर का ध्यान रखकर चुन लिये जायें और उन्हें सामूहिक रूप से—धार्मिक वातावरण में—लोक शिक्षण का प्रयोजन पूरा कर सकने वाले सम्मेलनों के रूप में मनाया जाय। यह कार्य कठिन नहीं सरल है। लोग पर्व त्यौहार मनाते तो हैं ही, पर उन दिनों पूड़ी पकवान बनाने, पूजा-पत्री करने या कुछ और सम्बंधित कर्म काण्ड निभाने में ही वह लकीर पिट जाती है। इसमें सुधार होना चाहिए और प्रयास यह होना चाहिए और प्रयास यह होना चाहिए कि उस गाँव, नगर, मुहल्ला या क्षेत्र के व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित होकर प्रेरणाप्रद पद्धति से उसे मनायें।

इससे जहाँ सामूहिकता—एक रूपता, संगठनात्मक प्रयोजन की पूर्ति होगी वहाँ उस महान धर्म एवं दर्शन का स्वरूप भी समझने को मिलेगा। कर्मकाण्ड के नाम पर छोटा हवन, उस पर्व के प्रतीक का सामूहिक पूजन, सामूहिक भजन कीर्तन, दीप दान जैसे आकर्षक किन्तु कम खर्चीले ऐसे कार्यक्रम रखे जा सकते हैं जिनमें उपस्थित सभी लोग भाग ले सकें। इसकी विस्तृत रूप रेखा पाक्षिक युग निर्माण में पिछले दिनों छपती रही है। अधिक जोर सम्मेलन पर दिया जाना चाहिए उपस्थिति अधिक संख्या में हो उसके लिए टोलियाँ बनाकर घर-घर घूमा जाना और उपस्थित होने के लिए आग्रह पूर्वक आमन्त्रण देना ही सबसे सरल और सबसे प्रभावशाली तरीका है। जहाँ भी यह प्रयत्न किया जायगा वहाँ सहज ही अच्छी संख्या में जनता इकट्ठी हो जायगी। विशेषतया पर्व त्यौहारों की परम्परा एवं प्रेरणा समझाने से ही भारतीय जनता को सहज ही आकर्षक उत्सुकता हो सकती है। युग-निर्माण शाखाओं के अनुभव यह बताते हैं कि यहाँ भी इस स्तर के प्रयास किये गये बहुत ही सफल रहे। गत वसन्त पर्व पर यही आधार अपनाया गया था और उससे लगभग 50 लाख जनता को नव निर्माण मिशन का—भारतीय तत्व दर्शन का स्वरूप समझने और प्रभावित करने में आश्चर्यजनक सफलता मिली। वह प्रयोग अब आगे और भी अधिक उत्साह के साथ दुहराया जाना चाहिए।

दो महीने के अन्तर से छह पर्व आते हैं (1) वसन्त पञ्चमी—माघ सुदी पञ्चमी (2) राम नवमी—चैत्र सुदी नवमी (3) गायत्री जयन्ती गंगा दशहरा—जेष्ठ सुदी दशमी (4) श्रावणी—श्रावण सुदी पूर्णिमा (5) विजया दशमी—आश्विन सुदी दशमी (6) गीता जयन्ती—मार्ग—शीर्ष सुदी एकादशी इनमें से वर्षा होने पर श्रावणी पर तो कभी-कभी सम्मेलन की व्यवस्था अस्त-व्यस्त भी हो सकती है पर शेष पाँच पर्व, बड़ी शान और सफलता के साथ—भावना पूर्ण वातावरण में प्रेरणाप्रद प्रयोजनों के साथ मनाये जा सकते हैं। गायक और प्रवचन कर्त्ता कहीं बाहर से बुलाने की जरूरत नहीं पड़ा करेगी। युग-निर्माण प्रकाशन के अंतर्गत कविताओं, गीतों की पाँच छह पुस्तकें छप चुकी हैं उन्हीं में से स्थानीय गायक कुछ दिन पूर्व तैयारी करके गाने सुनाने की व्यवस्था बना सकते हैं। पाक्षिक युगनिर्माण में वे लेख छपते रहते हैं जिनमें किस पर्व पर किस संदर्भ तथा परम्परा के साथ तालमेल बिठाते हुए क्या-क्या कहा जा सकता है। इन संकेतों पर कोई भी सामान्य सूझ बूझ का, प्रवचन कला से परिचित व्यक्ति ऐसे भाषण दे सकने में समर्थ हो सकता है जो सुनने वालों को मौलिक ही नहीं अतीव आकर्षक भी लगें और उनमें न केवल भारतीय तत्व ज्ञान का स्वरूप ही सन्निहित हो वरन् आज की अगणित वैयक्तिक एवं सामाजिक उलझी हुई समस्याओं का समाधान भी समाविष्ट हो। वस्तुतः हर पर्व पर—उसके ऐतिहासिक आधार के साथ ताल मेल बिठाते हुए वह सब कुछ कहा जा सकता है जो नव निर्माण की बहुमुखी दिशाओं को ध्यान में रख कर कहा जाना चाहिए।

लोक शिक्षण की यह अनुपम प्रक्रिया है। युग निर्माण शाखाओं ने इसका परीक्षण किया है और अनुमान से कहीं अधिक व्यावहारिक एवं सफल पाया है। अब आवश्यकता इस बात की है कि इसे बड़े पैमाने पर सर्वत्र कार्यान्वित किया जाय। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य इस दिशा में थोड़ा सा प्रयास करें तो वे स्वयं आश्चर्यचकित रह जायेंगे कि कितना सरल किन्तु कितना प्रभावी लोक शिक्षण का आधार उनके हाथ लग गया और अपने अशिक्षित, छोटे देहातों में फैले हुए देश में नव जीवन संचार करने के लिए किस प्रकार द्वार खुल गया और किस प्रकार एक कठिन समस्या का सरल समाधान निकल गया। इस पद्धति का अधिक व्यावहारिक स्वरूप समझने के लिए पिछले तीन-चार महीने के युग-निर्माण पाक्षिक पढ़ लेना पर्याप्त होगा। उस आधार पर यह सरल शैली हर किसी की समझ में आ जायगी।

इस प्रयास के पीछे एक और महती संभावना सन्निहित है। अगले दिनों सर्वतोमुखी नव निर्माण के लिए अनेकों जन आन्दोलन खड़े करने पड़ेंगे। अन्य देशों में तो समस्त जनता शिक्षित और साधन सम्पन्न होने से वह कार्य अखबार भी कर देते हैं पर भारत में—पिछड़े देशों में तो यह कार्य गोष्ठियों और सम्मेलनों द्वारा ही पूरा किया जा सकेगा। इसके लिए यदा-कदा यत्र-तत्र-किन्हीं संगठनों या विशिष्ट वक्ताओं द्वारा छुट-पुट प्रयास करने से काम चलेगा। स्थिति को देखते हुए जिन तीव्र आन्दोलनों की आवश्यकता पड़ेगी; उनके लिये नियमित और निरन्तर गतिशील प्रचार तन्त्र की आवश्यकता पड़ेगी। यह कार्य वर्ष में पाँच छः सम्मेलन हर जगह होने की प्रथा चल पड़े और उसका मार्ग दर्शन एवं सूत्र संचालन क्रमबद्ध ढंग से होने लगे तो समझना चाहिए कि लोक शिक्षण की महती आवश्यकता पूरी करने में आश्चर्यजनक सफलता का द्वार खुल गया।

वसन्त पर्व पर युग-निर्माण परिवार की चार हजार शाखाओं ने यही प्रयास करके 50 लाख व्यक्तियों तक नव निर्माण मिशन का प्रकाश फैलाया और सहस्रों को दिशा देकर कार्य क्षेत्र में उतारा इसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। यह तो पिछले दिनों से चले आ रहे शाखा संगठनों के प्रयास की बात हुई। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य तो इस संगठन की अपेक्षा अत्यधिक संख्या में हैं वे सब भी यदि इस प्रयास में लग जायें तो अगला गायत्री जयन्ती पर्व—गंगा दशहरा दस हजार स्थानों पर आसानी से मनाया जा सकता है और आश्चर्य नहीं कि उससे एक करोड़ जनता को भी प्रशिक्षित प्रभावित किया जा सके।

पर्वों की प्रेरणाप्रद पद्धति भावी जन आन्दोलनों की पाठशाला कही जा सकती है। इससे सभा सम्मेलनों का सहज क्रम विकसित होता है और जनता उसमें उत्साह पूर्वक भाग लेना सीखती है। कठिन लगने वाली सभा सम्मेलनों की पद्धति अनुभव में आ जाने के कारण सरल बनती है। सबसे बड़ी बात यह है कि वक्ताओं और गायकों की एक विशाल काय सेना बिना प्रयास, प्रशिक्षण एवं खर्च की विशेष व्यवस्था किये सहज ही विनिर्मित होती है।

पिछले दिनों गायत्री तपोभूमि से यज्ञ सम्मेलनों में वक्ता, गायक, प्रचारक भेजे जाया करते थे। वसन्त पर्व इतना व्यापक मनाया गया कि उसके लिए मथुरा से उतने प्रचारक भेज सकना किसी भी प्रकार संभव न था। लोगों ने रास्ता ढूँढ़ा। स्थानीय क्षेत्र में भाषण कर सकने और गा सकने वाले लोग ढूँढ़े गये। उन्हें मिशन का साहित्य तथा पर्व का छपा प्रयोजन देकर आयोजन के दिन तैयार होकर आने का अनुरोध किया। यह प्रयोग पूर्ण सफल रहा। प्रत्येक सम्मेलन में प्रायः चार-पाँच वक्ता गायकों ने भाग लिया। इस प्रकार लगभग 20 हजार ऐसे लोग ढूँढ़ निकाले गये तो समय-समय पर अपने क्षेत्र में ऐसे आयोजनों में लोक शिक्षण की आवश्यकता पूरी कर सकते हों। बेशक उन्हें पूर्व तैयारी के लिये आवश्यक साहित्य, सुझाव और मार्ग दर्शन देना पड़ेगा। अन्यथा मिशन के अनुरूप बोल या गा कैसे सकेंगे। केन्द्र इसकी व्यवस्था पाक्षिक पत्रिका द्वारा जुटा रहा है और युग-निर्माण शाखायें इसी वर्ष लगभग 20 हजार प्रचारक विनिर्मित करने में सफल हो रही हैं। स्थानीय लोगों का प्रभाव कम पड़े तो एक शाखा के सदस्य दूसरी में जाकर अजनबी के प्रति अधिक आकर्षण वाली लोक रुचि को भी पूरा कर सकते हैं। दूर के ढोल सुहावने वाला प्रयोजन भी पूरा हो सकता है।

यह बहुत बड़ा आधार है। युग-निर्माण शाखाओं ने प्रेरणाप्रद पद्धति से पर्व मनाने की सम्भावनाओं का उद्घाटन एवं प्रयोग प्रस्तुत किया है। अब उसे अधिक गति मिलनी चाहिए और अखण्ड-ज्योति परिजनों द्वारा इस दिशा में कुछ अधिक प्रयत्न करना चाहिए। इससे न केवल लोकशिक्षण के लिये मंच ही मिलेगा वरन् प्रशिक्षण कर्त्ताओं की, अनुभवी कार्यकर्त्ताओं की—एक बड़ी सेना भी खड़ी होगी और वह युग परिवर्तन के—नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान के पुण्य प्रयोजन को द्रुतगति से अग्रगामी बनाने की महत्व पूर्ण भूमिका सम्पादित कर सकने में समर्थ एवं सफल भी होगी। ऐसा गुरु देव का कथन था।


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