‘उपासना’ की सफलता ‘साधना’ पर निर्भर है।

May 1972

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आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए अनेक व्यक्ति एक ही मन्त्र से-एक ही पूजा विधान से-एक जितने समय तक ही उपासना करते हैं पर उनमें से कोई सफल होता है कोई असफल। किसी को तुरन्त परिणाम दिखाई पड़ता है किसी को मुद्दतें बीत जाने पर भी कोई सफलता दृष्टि-गोचर नहीं होती। इसका क्या कारण है? यह मैंने गुरुदेव से और भी स्पष्ट रूप से पूछा। कारण कि इन दिनों मुझे ही डाक का उत्तर देना पड़ता है और उनमें ऐसे पत्र भी कम नहीं होते जो बताये हुए विधान से उपासना करते हुए बहुत दिन हो जाने पर भी कुछ परिणाम न मिलने से असन्तुष्ट है। इस कठिनाई का उत्तर गुरुदेव के मुख से जो निकला उसका साराँश नीचे की पंक्तियों में प्रस्तुत किया जाता है।

‘आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ा व्यवधान उन कुसंस्कारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है जो दुर्भावों और दुष्कर्मों के रूप में मनोभूमि पर छाये रहते हैं। आकाश में बादल छाये हों तो फिर मध्याह्न काल का सूर्य यथावत् उदय रहते हुए भी अन्धकार ही छाया रहेगा। जप-तप करते हुए भी आध्यात्मिक सफलता न मिलने कारण एक ही है- मनोभूमि का कुसंस्कारी होना। साधना का थोड़ा-सा गंगाजल इस गन्दे नाले में गिरकर अपनी महत्ता खो बैठता है- नाले को शुद्ध कर सकना सम्भव नहीं होता। बेशक तीव्र गंगा प्रवाह में थोड़ी-सी गन्दगी भी शुद्धता में परिणत हो जाती है। पर साथ ही यह भी सच है कि सड़ांद भरी गन्दी गटर को थोड़ा-सा गंगा जल शुद्ध कर सकने में असमर्थ असफल रहेगा।

सफलता की अपनी महिमा और महत्ता है उसे गंगा-जल से कम नहीं अधिक ही महत्व दिया जा सकता है पर साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि वह सर्व समर्थ नहीं है। गंगा जल से बनी हुई मदिरा अथवा गंगा जल में पकाया हुआ माँस शुद्ध नहीं गिने जायेंगे। शौचालय में प्रयुक्त होने के उपरान्त का गंगा जल का भरा पात्र देव प्रतिमा पर चढ़ाने योग्य न रहेगा। गंगा जल की शास्त्र प्रतिपादित महत्ता यथावत बनी रहे इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान की पवित्रता भी अक्षुण्य बनी रहे।

रंगरेज कपड़ा रंगने की प्रक्रिया उसकी धुलाई से आरम्भ करता है। यदि मैला कपड़ा रंगने के लिए दिया जाये तो पहले उसे धोवेगा। धुले हुए कपड़े पर ही रंग चढ़ना या चढ़ाया जाना सम्भव होता है। उपासना को रंगाई कह सकते हैं और साधना को धुलाई। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इनमें प्रधान और गौण का वर्गीकरण करना हो तो साधना को प्रधान और उपासना को गौण मानना पड़ेगा। धुला वस्त्र बिना रंगे भी अपनी गरिमा बनाये रह सकता है पर मैला वस्त्र रंग को बर्बाद करेगा और रंगरेज को बदनाम। स्वयं तो उपहासास्पद बना ही रहेगा। मैले कपड़े पर रंग चढ़ाने की सूझ-बूझ भी भोंड़ी ही मानी जायेगी इस प्रकार का किया हुआ श्रम भी सार्थक न रहेगा।

आत्मिक प्रगति के पथिक आमतौर से यही भूल करते रहते हैं और असफलता का दोष उस पुण्य प्रक्रिया को देते हैं जिसे सही ढंग से अपनाने वाले सदा कृतकृत्य होते हैं। वस्तुतः यह भूल पथिकों की नहीं उनके मार्ग-दर्शकों की है जिन्होंने बहुमूल्य महंगी वस्तु को सस्ती बताकर लोगों को आकर्षित करने भर का ध्यान रखा और यह भूल गये कि अभीष्ट प्रतिफल न मिलने पर जो निराशा और अविश्वास भरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होगी उसका क्या परिणाम होगा। सस्ते प्रलोभनों से भ्रमाया व्यक्ति आरम्भ में अति उत्साही हो सकता है पर उसकी निराशाजनक प्रतिक्रिया नास्तिकता के रूप में ही परिणत होकर रहेगी।

अध्यात्म तत्वज्ञान के मूल आधार से अपरिचित किन्तु उसकी ध्वजा उड़ाने वाले तथाकथित गुरु लोग औंधी सीधी पुस्तकें रचकर यह मिथ्या मान्यता फैलाते रहे हैं कि अमुक पूजा अर्चा करने से उन्हें पाप फल के दण्ड भुगतने की छूट मिल जायेगी। यह प्रतिपादन लोगों को बहुत ही आकर्षक लगता है। क्योंकि अनाचार अपनाने वाले प्रत्यक्षतः सदाचार परायण लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त कर लेते हैं। छल-छद्म का परिणाम अन्ततः बुरा ही क्यों न हो पर तत्काल तो उन हथकण्डों से लाभ मिल ही जाता है। पाप-पथ अपनाने वाले असुर-देवताओं से अधिक बलिष्ठ रहे हैं यह स्पष्ट है। पीछे भले ही उनकी दुर्गति हुई हो पर आरम्भिक लाभ तो उन्हें ही मिलता है। देवत्व प्राप्ति का आरम्भिक कार्य तप साधना की कष्टकर प्रक्रिया से आरम्भ होता है। लम्बी दूर तक उस मार्ग पर चलने के बाद ही देव पुरुष आनन्द उल्लास प्राप्त करते हैं। ऐसी दशा में तात्कालिक लाभ को प्रधानता देने वाले-अदूरदर्शी लोग कुमार्गगामिता के सहारे तुरन्त लाभान्वित होने की रीति-नीति अपनाते हैं, पर उन्हें यह खुटका बना रहता है कि कभी न कभी इन कुकर्मों का कष्टकारक प्रतिफल भोगना पड़ेगा।

इस चिन्ता से तथाकथित धर्म गुरुओं के रचे भोंडे फूहड़ ग्रन्थ मुक्ति दिला देते हैं। उनका कहना है अमुक माला जपने वाले या अमुक पूजा अर्चा करने वाले को पाप कर्मों के दण्ड भुगतने से छुटकारा मिल जाता है। यह बहुत बड़ी बात है। यदि दण्ड का भय न रहे तो फिर पाप कर्मों द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों को छोड़ने को कोई कारण ही नहीं रह जाता। इस प्रकार उपरोक्त आश्वासनों पर विश्वास करने वाले यह मान बैठते हैं कि उनके पाप कट गये। अब वे कुकर्मों के दण्ड से पूर्णतया छुटकारा पा चुके। भूतकाल में किये हुये या भविष्य में किये जाने वाले पापों के दण्ड से वह देवता या मन्त्र बचा लेगा कि जिसे थोड़ा-सा जप, स्तवन, पूजन आदि करके या किसी दूसरे से कराके सहज ही बहकाया, फुसलाया और अनुकूल बनाया जा सकता है।

इस मिथ्या मान्यता का आज बहुत प्रचलन है। हर कोई इसी सस्ते नुस्खे को दुहराता है। मतवादी यही ढोल पीटते हैं कि हमारे सम्प्रदाय में भर्ती हो जाने पर हमारा खुदा सारे गुनाह माफ कर देगा। इस बहकावे में आये बाहर से बताते हुए ‘कर्मकाण्ड’ करते रहते हैं और भीतर से पाप कर्मों में निर्भय होकर प्रवृत्त रहते हैं। धर्म के नाम पर प्रस्तुत की गई मिथ्या मान्यताओं ने आज सर्वत्र यही स्थिति उत्पन्न कर दी है और सच्चा विश्लेषण करने पर पूजा-पाठ न करने वालों की अपेक्षा उस प्रक्रिया में निरत लोग अधिक अनैतिक और अवाँछनीय गतिविधियों में प्रवृत्त पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में आत्मिक प्रगति सर्वथा असम्भव है। जब साधना का प्रथम चरण ही पूरा नहीं किया गया तो उपासना का दूसरा चरण कैसे उठेगा। जब पहली मंजिल ही बन कर तैयार नहीं हुई तो भवन की दूसरी मंजिल बनाने की योजना कैसे पूर्ण होगी।

उपासना से पाप नष्ट होने का वास्तविक अर्थ यह है कि ऐसा व्यक्ति जीवन साधना के प्रथम चरण का परिपालन करते हुए दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम समझेगा और उनसे सतर्कता पूर्वक विरत हो जायेगा, पाप नष्ट होने का अर्थ है पाप-कर्म करने की प्रवृत्ति का नाश, पर उल्टा अर्थ कर दिया गया पाप-कर्मों के प्रतिफल का नाश। कदाचित ऐसी उलटबांसी सही होती तो फिर इस संसार में पाप को ही पुण्य और कर्तव्य माना जाने लगता। फिर कोई भी पाप से न डरता। राजदण्ड से बचने की हजार तरकीबें हैं। उन्हें अपना कर अनाचारी लोग सहज ही निर्द्वन्द्व निश्चिन्त रह सकते हैं दैव दण्ड ही एक मात्र बंधन था सो इन धर्मध्वजियों ने उड़ा दिया। अब असुरता को स्वच्छंद रूप से फलने-फूलने और फैलने का पूरा-पूरा अवसर मिल गया। पाप कर्मों के दण्ड से मुक्ति दिलाने का आश्वासन पूजा-पाठ की कीमत पर जिनने भी दिया है उनने मानवीय आदर्शों और अध्यात्म के मूलभूत आधारों के साथ व्यभिचार किया है।

पाप और पुण्य का उचित और अनुचित का अन्तर उनका दंड पुरस्कार ही मानव-समाज के भौतिक मेरुदंड को सीधा रखे हुए है। यदि उसे ही तोड़ दिया जाय तो फिर व्यक्ति और समाज की आचार संहिता का ईश्वर ही रक्षक है। पूजा उपासना का प्रयोजन मनुष्य को ईश्वर- विश्वासी अर्थात् धर्म मर्यादाओं का पालन करने के लिए व्रत-बन्ध धारण किये रहने वाला है। यदि पूजा पाप-दंड से मुक्ति दिलाती है तो फिर यही कहना पड़ेगा कि वह नैतिक, मानवीय धार्मिक और आत्मिक मूलभूत आधारों को ही नष्ट करेगी। ऐसी दशा में यह पूजा वस्तुतः नास्तिकता से भी महंगी पड़ेगी, पिछले दिनों यही हुआ है यही बताया सिखाया गया है। कथा-वार्ताओं में हम यही सुनने पढ़ते हैं, गुरु लोगों के पास यही सबसे बड़ा आकर्षण अपने मंत्र के पक्ष में है। भोले लोग सस्ते मोल में परमदंड की बहुत बड़ी विपत्ति से बचने के लिए फंसते हैं और दुहरी हानि भुगतते हैं। ईश्वरीय अकाट्य नियम इतने सरल नहीं है कि तनिक सी पूजा से छुई-मुई होकर सूख जायें। वे अत्यन्त कठोर हैं। विश्व का कण-कण उनकी पकड़ में जकड़ा हुआ है। ईश्वर को कोई पूजे या गाली दे, विश्व-व्यवस्था कर्मफल की अपरिहार्य प्रक्रिया में तनिक भी ढील करने वाली नहीं है। ऐसी दशा में पूजा जिस प्रलोभन से की गई थी, ईश्वर की प्रसन्नता की जिस आधार पर आशा बाँधी गई थी, वह बालू के महल की तरह ढह जाता है।

उपासना की सफलता का एक मात्र कारण है आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल ‘साधना’ की उपेक्षा। गुण-कर्म स्वभाव का परिष्कार साधना का मूलभूत उद्देश्य है। उसका स्वरूप है आत्म-बोध, आत्म-चिन्तन, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण, आत्म-विकास। यही आत्म देव का सच्चा पंचोपचार पूजन है। जो उसे कर सकता है उसी की पूजा उपासना सफल होती है। निराकार निर्विकार परमेश्वर की साकार प्रतिमा उपासना को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाई जाती है। इसी प्रकार जल, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दन के पंच विधि पूजा उपकरण प्रयुक्त किये जाते हैं। इस देवार्पण के पीछे जीवन साधना की ओर इंगित करने वाला गहन तत्वज्ञान सन्निहित है। उसे यदि न समझा जाए और मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों को ही सब कुछ मान लिया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि यथार्थता को भुला कर विडम्बना की उलझन में पैर फंसा दिया गया।

उपासना की पूर्व भूमिका जीवन साधना से आरम्भ होती है। तपश्चर्या का प्रयोजन मनोभूमि पर छाये हुए कुसंस्कारों का निराकरण है। एक बार समझ लेना चाहिए कि साधना ‘सर्फ’ पाउडर है और उपासना ‘टिनोपाल’ कपड़े को जर्क-वर्क धुला हुआ बनाना हो तो दोनों का उपयोग करना चाहिए। कपड़े को ‘सर्फ’ में धोकर मल रहित करना चाहिए और तदनन्तर ‘टिनापोल’ की नीली झलक देनी चाहिए। यह भूल नहीं करनी चाहिए कि धोने में बहुत झंझट समझ कर उसे उपेक्षित विस्मृत कर दिया जाय और मात्र टिनोपाल के छींटे लगाकर चमचमाते वस्त्र पहनने की आशा रखी जाय।

आत्मिक प्रगति के लिए उपासना का अपना महत्व है। जप आवश्यक है। आसन, प्राणायाम क्रिया प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि की छह मंजिली इमारत बनानी ही चाहिए पर उससे पहले यम नियम का ईंट, चूना नींव में गहराई तक भर के नींव पक्की कर लेनी चाहिए। मंत्र-विद्या का महात्म्य बहुत है। योग साधना की गरिमा गगनचुम्बी है। विविध-विधि उपासनायें चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करती हैं। ऋद्धि-सिद्धियों की चर्चा काल्पनिक नहीं है, पर वह सारा आकर्षक विवरण, कथा सार आकाश कुसुम ही बना रहेगा जब तक साधना की पृष्ठ-भूमि को अनिवार्य मान कर न चला जाएगा।

ओछी मनोभूमि के व्यक्ति यदि किसी प्रकार किसी तन्त्र-विधि से कुछ लाभ वरदान प्राप्त भी करलें तो भी वह अन्ततः उनके लिए विपत्ति ही सिद्ध होगी। आमाशय में अर्बुद और आंतों में व्रण से संत्रस्त रोगी यदि मिष्ठान पकवान खा भी लें उसके लिए वे बहुमूल्य और पौष्टिक होते हुए भी कुछ लाभ न पहुँचा सकेंगे। जबकि पेट से स्वस्थ सबल होने पर ज्वार, बाजरा भी पुष्टिकर सिद्ध होते हैं। रहस्यमय अनुष्ठान साधनों की मन्त्र प्रक्रिया एवं साधना विधि की गरिमा इन पंक्तियों में कम नहीं की जा रही है और न उनका महात्म्य मिथ्या बताया जा रहा है। कहा केवल यह जा रहा है कि आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में जीवन साधना को आधार भूत मानना चाहिए और उपासना को उसकी सुसज्जा। बाल्यकाल पूरा करने के बाद ही यौवन आता है और साधना की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण होने से ही उपासना की द्वितीय कक्षा में प्रवेश मिलता है।

अच्छी उपज लेने के लिए केवल अच्छा बीज ही पर्याप्त नहीं, अच्छी भूमि भी होनी चाहिए। पूजा विधान बीज है और साधक की मनोभूमि खेत। किसान भूमि जोतने, सींचने, संभालने में छह महीने लगाता है और बीज बोने में एक दिन। यदि अन्तःकरण निर्मल बना लिया जाय तो थोड़ा सा मंत्र साधन की शबरी जैसे अनजान साधकों को भी सफलता के चरम लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। इसके विपरीत कर्म-काण्ड में पारंगत कठोर प्रयत्न रत होने पर भी मिली हुई सफलता उल्टी विनाशकारी होती है। दूषित मनोवृत्ति बनाये रहने के कारण रावण, कुम्भ-करण, मेघनाद, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर आदि को दुर्गति के गर्त में गिरना पड़ा। वह तप तथा वरदान उनके अहंकार और अनाचार को बढ़ाने में- सर्प को दूध पिलाने की तरह अनर्थ मूलक ही सिद्ध हुए।

उपासना कारतूस है और जीवन साधना बन्दूक। अच्छी बन्दूक होने पर ही कारतूस का चमत्कार देखा जा सकता है। बन्दूक रहित अकेला कारतूस तो थोड़ी आवाज करके फट ही सकता है उससे सिंह व्याघ्र का शिकार नहीं किया जा सकता। अनैतिक गतिविधियाँ और अवाँछनीय विचारणायें यदि भरी रहें तो कोई साधक आत्मिक प्रगति का वास्तविक और चिरस्थायी लाभ न ले सकेगा। किसी प्रकार कुछ मिल भी जाय तो उससे जादूगरी जैसा चमत्कार दिखा कर थोड़े दिन यश लिप्सा पूरी की जा सकती है। वास्तविक लाभ न अपना हो सकता है और न दूसरों का।

अस्तु आत्मबल से संबंधित सिद्धियाँ और आत्म-कल्याण के साथ जुड़ी हुई विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए जो वस्तुतः निष्ठावान हों उन्हें अपने गुण-कर्म स्वभाव पर गहरी दृष्टि डालनी चाहिए और जहाँ कहीं छिद्र हों उन्हें बन्द करना चाहिए। फूटे हुए बर्तन में जल भरा नहीं रह सकता- छेद वाली नाव तैर नहीं सकती, दुर्बुद्धि और दुश्चरित्र व्यक्ति इन छिद्रों में अपना सारा उपासनात्मक उपार्जन गँवा बैठता है और उसे छूँछ बनकर खाली हाथ रहना पड़ता है।

हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत वाली साधना इस दृष्टि से अति उपयोगी सिद्ध होती है। प्रातःकाल उठते ही यह अनुभव करना कि अब से लेकर सोते समय तक के लिए ही आज का नया जन्म मिला है। इसके एक-एक क्षण का सदुपयोग करना है। इस आधार पर दिन भर की पूरी दिनचर्या निर्धारित कर ली जाय। समय जैसी बहुमूल्य सम्पदा का एक कण भी बर्बाद होने की उसमें गुंजाइश न रहे। एक भी अनाचार बन पड़ने की ढील न रखी जाय। निकृष्ट स्तर पर सोचने और हेय कर्म करने पर पूरा प्रतिबन्ध लगाया जाय। इस प्रकार नित्य कर्म से लेकर आजीविका उपार्जन तक संभाषण से लेकर कर्तृत्व तक जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समावेश किया जाय। रात को सोते समय लेखा-जोखा लिया जाय कि आज उत्कृष्टता और निकृष्टता में से किस का उपार्जन ज्यादा हुआ। पाप अधिक बना या पुण्य। भूलें प्रबल रहीं या सतर्कता जीती। इस प्रकार आत्म निरीक्षण करने के उपरान्त दूसरे दिन और भी अधिक सतर्क रहने- और भी उत्तम दिनचर्या बनाने की तैयारी करते हुए निद्रा माता को मृत्यु समझ कर उसकी गोद में शान्ति-पूर्वक जाना चाहिए। यह क्रम निरन्तर जारी रखा जाय तो जीवन में क्रमशः अधिकाधिक पवित्रता का समावेश होता चला जाता है और तदनुरूप आत्मिक प्रगति तीव्र होती चली जाती है।


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