गुरुदेव का भावी क्रिया कलाप, जो उनने बताया

May 1972

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शान्तिकुँज की स्थापना गुरुदेव ने श्री वेदमाता गायत्री ट्रस्ट के अंतर्गत इसलिए की कि वे इस केन्द्र पर स्वयं आकर और संस्कारी आत्माओं को बुलाकर प्रकाश परामर्श एवं स्नेह सहयोग प्रदान करते रह सकें। अफसर दौरे पर जाते हैं, उनके लिये उपयुक्त परिस्थिति वाले डाक बंगले बने होते हैं। जितनी आवश्यकता होती है। उतनी देर ठहर कर अफसर अन्यत्र चले जाते हैं। शान्ति कुंज गुरुदेव का डाक बँगला है।

भावी जीवन वे तप साधना तो क्या कहना चाहिए- दिव्य संपर्क में लगायेंगे। वहाँ से जो मिलेगा उसे वितरण करने के लिये इस केन्द्र पर आयेंगे। कोई श्रमिक परदेश में मजूरी करता है। महीने में जो कमाता है उसे डाकखाने में जाकर घर वालों के लिये मनीआर्डर कर देता है। शान्ति कुञ्ज गुरुदेव का डाकखाना है। वे आवश्यकतानुसार यहाँ मनीआर्डर करने ही आया करेंगे।

कब आयेंगे और कब चले जायेंगे इसकी उनने पूर्व सूचना न देने का निश्चय किया है। आवागमन तो वे बनाये रखेंगे पर उसकी तिथियों का निश्चय नहीं हो रहा करेगा। बसन्त पर्व तक का प्रतिबन्ध था सो वह अवधि पूरी होने पर यहाँ आये भी और कुछ समय ठहर कर अभीष्ट प्रयोजन पूरा होते ही वे चले भी गये। अब कब आयेंगे यह अनिश्चित है पर यह स्पष्ट है कि प्रतिबन्ध की जो थोड़ी अवधि थी वह पूरी हो गई। भविष्य में वे कभी भी आ या जा सकते हैं।

प्रत्यक्ष और तात्कालिक कारण इस समय यह था कि मेरी दशा अचानक चिन्ताजनक हो गई। हृदयरोग के भयानक तीन दौरे पड़े। डाक्टरों को आश्चर्य था कि इतने तीव्र दौरे से भी कोई कैसे बच सकता है। स्थिति की विषमता मेरे सामने भी स्पष्ट थी। संकोच तो हुआ कि अपने निजी काम के लिये उनके क्रिया कलाप में व्यवधान क्यों उत्पन्न करूं? पर दूसरे ही क्षण यह भी ध्यान आया कि मेरी सत्ता भी अब अपनी नहीं रही। विश्व मानव के चरणों पर उन्हीं के द्वारा समर्पित एक फूल भर हूँ। ऐसी दशा में अगले जन्म के लिये उपयुक्त आधार प्राप्त करने के लिये कुछ अनुरोध करूं तो अनुचित न होगा। इस विपत्ति की घड़ी में यही सूझा और यही उपयुक्त लगा। सो उन्हें पुकारा और कहा-यदि यह जा ही रहा है तो इसे अपने हाथों ठिकाने लगा जाये और अन्तिम समय आँखों के आगे रहें। इसे मेरा सौभाग्य ही कहना चाहिए कि वे दौड़े आये। कुछ समय रहे और जीवन दान देकर चले गये।

पिछले दिनों होता यह रहा है कि उनके सौंपे हुए प्रयोजनों को पूरा करते हुए- उपार्जित पूँजी की अपेक्षा खर्च बहुत अधिक होता रहा है। ऐसी दशा में जो दुर्गति होनी चाहिए वह अपनी भी हुई। राम कृष्ण परमहंस की गले के केन्सर से मृत्यु, जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य का भगन्दर व्रण के कारण देहावसान, भगवान बुद्ध का उदरशूल, जैसी घटनाएं महामानवों के साथ भी घटती रही है। उनमें उनके पाप प्रारब्ध या असंयम कारण नहीं वरन् तप की संग्रहीत पूँजी की तुलना में व्यक्तियों की सहायता और समाज की सेवा में खर्च की मात्रा अधिक बढ़ जाना ही उस भोग का कारण था। प्रकृति किसी को भी क्षमा नहीं करती। आमदनी और खर्च में जब भी व्यतिक्रम होगा वहीं गड़बड़ी उत्पन्न होगी। इसमें साधु असाधु का भी प्रकृति के निष्ठुर नियम अन्तर नहीं करते। अपने ऊपर कुछ इसी तरह की बीती। कुमारी कन्याओं द्वारा शान्ति कुञ्ज में अखण्ड दीपक पर अखण्ड जप ही इन दिनों अपना एक मात्र उपार्जन है। थोड़ा बहुत स्वयं भी कर लेती हूँ। शेष समय तो इतने बड़े परिवार को समुचित स्नेह और प्रकाश देने का उत्तरदायित्व वहन करने में ही लग जाता है। उपार्जन कम और खर्च अधिक होने के कारण कोई भी दुर्गतिग्रस्त हो सकता है अपने को भी होना पड़े तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं। सच पूछा जाय तो हम लोगों की अन्तिम इच्छा भी यही है कि कृमि कीटकों की तरह नहीं मरना पड़े तो एक आदर्श के साथ मरें। गुरुदेव ने अपने अंग प्रत्यंगों का दान कष्ट पीड़ितों के लिए पहले ही वसीयत के रूप में कर दिया है। मेरा रक्त उतना शुद्ध नहीं इसलिये वैसे अनुदान की तो अधिकारिणी न बन सकी पर इतनी तो अभिलाषा रहती ही है कि किन्हीं कष्ट पीड़ितों की सहायता करते हुए- उनका कष्ट भार अपने ऊपर उठाते हुए इस शरीर का समापन हो। गत जनवरी में ऐसा ही अवसर आ गया था। तब न मरने का डर था, न विषाद, न काया का मोह, न जीने का लोभ। इच्छा केवल इतनी ही थी कि जिस वृक्ष पर चढ़ कर अमर बेल की तरह ऊंची और सुनहरी दिखाई पड़ी। जिसका स्नेह रस पीकर विकसित हुई उसी की सत्ता में अपनी सत्ता सूक्ष्म रूप से तो मिला चुकी पर मरण काल में भी उस प्रकार की समीपता का लाभ और भी मिल जाय तो अच्छा। पुकारा इसी दृष्टि से था वे आये भी और चले भी गये। जीवन मरण अब अपने को एक ही लगता है। उनके दर्शन इतने दिनों बाद हुए इसका आनन्द इतना अधिक रहा जिसकी तुलना में तात्कालिक कष्ट की निवृत्ति की प्रसन्नता स्वल्प ही लग रही है।

जब तक वे शान्ति कुञ्ज रहे, कुछ न कुछ वार्तालाप भी चलता रहा। कुछ तो अनुभूतियाँ और उपलब्धियाँ ऐसी हैं जो समय से पूर्व प्रकाशित नहीं की जा सकतीं। पर उनमें लोकोपयोगी अंश भी कम नहीं हैं। ऐसे प्रश्न मैं पूछती ही रही जो परिजनों की दिलचस्पी के थे। वे उत्तर भी देते रहे। उनमें से बहुत-सा भाग ऐसा है जो सर्व साधारण के हित में ही होगा, मैंने पूछे भी इसी दृष्टि से थे। यों वे इन्हीं बातों को समय-समय पर दूसरे ढंग से कहते लिखते भी रहे हैं। पर चूँकि बात ताजी है। इन्हीं दिनों- इन्हीं परिस्थितियों में उनने कही बताई हैं इसलिये उसका महत्व घटता नहीं बढ़ ही जाता है, गुरुदेव सबकी दिलचस्पी के केन्द्र हैं। उन्हें देखने को करोड़ों आँखें लालायित रहती हैं और करोड़ों कान व्याकुल रहते हैं। ऐसी दशा में मेरे साथ जो बाते होती रहीं उन्हें समस्त विश्व के लिए- प्रबुद्ध परिजनों के लिए ही कहा, सुना समझा जाना चाहिए। अस्तु उनका प्रकाश में लाना और सर्व साधारण तक पहुँचाना ही उपयुक्त समझा गया। इसलिये वार्तालाप के महत्व पूर्ण अंश नोट कर लिये गये थे। अब इस अंक में उन्हें ठीक ढंग से लिखा और छापा जा रहा है। यह पूरा अंक उसी का-वार्ता विवरण का प्रकटीकरण समझा जाना चाहिए। मथुरा से 20 जून को हम लोग शान्तिकुञ्ज आ गये थे। 10 दिन गुरुदेव यहाँ रहे और 1 जुलाई को अपने निर्धारित स्थान को चले गये। पूरे सात मास वे अपने साधनात्मक प्रयोजन में लगे रहे। यह अवधि उन्हें विश्व के भविष्य की विशेषतया भारतीय राष्ट्र की स्थिति को अन्धकार में धकेल सकने वाली काली घटाओं को हटाने में जूझते रहना पड़ा। बँगला देश की स्थिति उन महीनों में अत्यन्त नाजुक दौर से गुजरती रही है। चीन और अमेरिका ने प्रत्यक्ष से भी अधिक परोक्ष रूप में ऐसी दुरभि सन्धि युक्त योजना बनाई हुई थी जो यदि सफल हो जाती तो भारत की स्थिति दयनीय हुए बिना न रहती और पाकिस्तान की दुष्टता अबकी अपेक्षा हजार गुनी बढ़ जाती। भारत हारता तो उसकी प्रतिक्रिया समस्त संसार में प्रगतिशील शक्तियों के विरुद्ध ही पड़ती। बँगला देश उन दिनों 30 लाख प्रबुद्ध और समर्थ लोगों की बलि चढ़ाकर- 1 करोड़ विस्थापित बाहर भेजकर दयनीय स्थिति में पड़ गया था मुक्ति वाहिनी अधूरे साधनों से नाम मात्र की लड़ाई लड़ रही थी। सैन्य स्थिति से भी और कूटनीति की स्थिति से भी उनका पक्ष दुर्बल पड़ता जा रहा था। संसार के इस अभूतपूर्व नर संहार पर संसार का कोई देश मुँह तक नहीं खोल रहा था। राष्ट्र संघ में प्रश्न आया तो वहाँ भी पाकिस्तान का ही समर्थन किया गया। इन परिस्थितियों में सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता संव्याप्त होना स्वाभाविक था।

कहना न होगा कि परिस्थितियों ने जिस तरह पलटा खाया, बाजी जिस तरह उलटी हुई- उससे समस्त संसार आश्चर्य चकित रह गया। विश्व कूटनीति के परिचितों में से किसी को भी यह आशा न थी कि परिस्थितियाँ इस तरह करवट लेंगी और बंगला देश की मुक्ति इस रूप में सम्भव होगी एवं भारत का वर्चस्व एक बार फिर मूर्धन्य स्तर तक पहुँचेगा। इस सफलता का प्रत्यक्ष श्रेय निस्संदेह हमारे राजनेताओं की सूझ-बूझ और सेना के त्याग बलिदान को मिलना चाहिए। वे ही इस श्रेय के अधिकारी भी हैं; पर जो सूक्ष्म जगत की हलचलों में विश्वास करते हो उन्हें यह भी जानना चाहिए कि प्रत्यक्ष घटना क्रम ही सब कुछ नहीं है कुछ अप्रत्यक्ष भी होता रहा है। और वह हलका नहीं काफी वजनदार है। जब गुरुदेव 1 जुलाई को गये थे तब कुछ और ही वातावरण था और जब जनवरी में लौटे तो परिस्थिति बिलकुल दूसरी थी इन सात महीनों में बहुत करके इसी मोर्चे पर अपने ढंग से जूझते रहे हैं।

बसन्त पर्व पर परिजनों को अतिरिक्त प्रेरणा और प्रकाश देने का वचन देकर वे गये थे। उसे भी निबाहना था। इन सात महीनों में उपरोक्त काली घटाओं को निरस्त करने के अतिरिक्त जो शक्ति बची उसे उन्होंने परिवार के प्रबुद्ध परिजनों को आवश्यक प्रकाश प्रदान करने में लगा दिया। धागे में पिरोये हुए मोतियों की तरह उन्होंने इतना परिवार अपने साथ प्रेम बन्धनों में जकड़ कर बाँध रखा है। उसकी प्रगति अवनति उनकी अपनी समस्या है। यदि युग-निर्माण परिवार के सदस्य ऐसे ही लोभ मोह में ग्रस्त-पेट और प्रजनन में व्यस्त-वासना और तृष्णा के पशु जीवन भर जीकर मर जाते हैं तो यह गुरुदेव के लिए भी कलंक की बात है इस परिवार के लिये भी लज्जा की। हाथी के बच्चे बकरों की शक्ल में दीखें इसमें उपहास हाथी का भी है और बच्चों का भी। परिवार यदि बन ही गया तो शोभा उसी में है कि उसका स्तर भी कुलपति के अनुरूप हो। हर अभिभावक की अपनी सन्तान के प्रति ऐसी ही इच्छा रहती है। उनकी भी है। युग-निर्माण परिवार का प्रत्येक सदस्य महामानवों की ऐतिहासिक भूमिका निभा सके- इसी उधेड़ बुन में वे लगे रहते हैं। अपना तप पुण्य देकर आरम्भिक लालच भी इसीलिए पूरा करते हैं कि आगे चलकर सम्भवतः यह बालक उनके आदेशों को अपनाने का साहस करेंगे। बसन्त पर्व पर उन्हें कुछ ऐसी ही प्रेरणायें देनी थीं। इसके लिए तप शक्ति भी अभीष्ट थी सो उन्होंने इन दिनों के उपार्जन में से जितना कुछ बचा खुचा था इसी निमित्त लगा दिया। अधिकाँश परिजनों ने बसन्त पर्व पर उनका प्रकाश अपने इर्द-गिर्द एवं अन्तरंग में प्रस्तुत देखा भी है। इन अनुभूतियों में कल्पना-भावुकता कम और यथार्थता अधिक रही है। गत सात मास की तप साधना की आमदनी और खर्च का यही लेखा-जोखा है जो उन्होंने मुझे बताया।

भविष्य में वे कब शान्ति कुञ्ज आयेंगे? उनका भावी कार्यक्रम क्या रहेगा? इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए उनने कहा। जब वितरण कर सकने योग्य कुछ मसाला- इस एकान्त साधना के द्वारा संग्रहीत हो जाया करेगा तब उसके वितरण के निमित्त ही आया करेंगे। यह परिस्थितियों पर निर्भर है कि कुछ संचित संग्रहीत होता है या नहीं जिसे युग-निर्माण परिवार के सदस्यों को प्रदान किया जा सके- पिछले सात मास उपरोक्त दो तीन प्रयोजनों में लग गये। (1) बँगलादेश से सम्बन्धित विभीषिका (2) बसन्त पर्व (3) मेरी बीमारी। जो कमाया था वह खर्च हो गया अब शान्ति कुञ्ज रहने का कुछ तुक नहीं रहा। समय ही बतायेगा कि आगे भी कोई ऐसी ही विश्व विभीषिका तो उत्पन्न नहीं हो जाती है और उससे जूझने में ही तो नहीं जुटना पड़ता है। इसके अतिरिक्त उनके मार्ग दर्शन का आदेश संकेत भी प्रधान है। उनकी इच्छा आज्ञा के बिना वे एक कदम भी कहीं नहीं रखते। दोनों प्रकार की अनुकूलता होने पर जमा पूँजी का वितरण करना ही यहाँ आने का उद्देश्य होगा। चूँकि उनके आने के साथ अनेक अगर-मगर जुड़े हुए हैं। वे स्वयं सर्वतंत्र स्वतंत्र नहीं हैं। उच्च सत्ताओं के-पराधीन हैं। अपनी उनकी कुछ इच्छा भी नहीं, हो तो उसे बिना उस आदेश के कार्यान्वित नहीं करते। यही कारण है कि वे फिर कब आयेंगे यह बताने की स्थिति में वे थे ही नहीं।

कब आ सकेंगे- कब चले जायेंगे- कब तक रुकेंगे- यह निर्णय उनके अपने करने के नहीं, दूसरों के- तथा परिस्थितियों के हाथों में है। इसलिए उस पर सदा पर्दा ही पड़ा रहेगा। एक मोटा कारण जो उनने तो नहीं बताया पर मेरी समझ में आता है कि परिजन भावावेश में उनके दर्शनों के लिए दौड़ पड़ते हैं। इसमें जहाँ उनके प्रेम की-मोह ममता की-स्नेह सौजन्य की प्रशंसा की जायेगी, वहाँ उनके विवेक को उथला भी माना जायेगा। हर कोई अपने प्रियजन से मिलना चाहता है। गुरुदेव का अन्तःकरण प्रेम और ममता से लबालब भरा है वे यों समस्त संसार को अपना मानते हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं। पर परिष्कृत अन्तःकरण के आत्मीय जनों के प्रति तो उनकी ममता और भी प्रगाढ़ है। कोई संसारी व्यक्ति अपने स्त्री बच्चों को जितना प्यार कर सकता है उससे कम नहीं अधिक ही प्यार युग निर्माण परिवार के सदस्यों को करते हैं। ऐसी दशा में प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है और यह उचित ही है कि परिजन उन्हें उतना ही प्यार करें। यह भी स्पष्ट ही है कि प्यार के उभार में उफान होता है और उस उमंग में मिलन लालसा उत्कृष्ट हो उठती है। यही कारण है कि जब वे कहीं जाते थे तब लाखों व्यक्ति उनसे भेंट करने के लिए दौड़ पड़ते थे। उनके प्रवचनों में जितना प्रभाव है उससे हजार गुना अधिक आकर्षक उनका व्यक्तित्व है। अस्तु आत्मीय जनों की मिलने की इच्छा उचित भी है। विशेषतया तब जबकि वे कष्टकर कठिन परिस्थितियों में बहुत दिन उपरान्त वापिस लौटे हों।

इसका एक उदाहरण तब देखा गया जब वे 21 से 30 जून तक दस दिन शान्ति कुञ्ज रहकर 100 प्रवचन टेप कराने वाले थे और कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रशिक्षण मुझे देने वाले थे। किन्तु विदाई सम्मेलन के उपरान्त भी प्रिय परिजन अपनी मोह ममता कम न कर सके और उन्हीं दिनों एक हजार से अधिक व्यक्ति दर्शन के लिए हरिद्वार आ गये। योजनायें पीछे रह गई। भेंट मिलन प्रधान बन गया और वे दस अत्यन्त महत्वपूर्ण दिन ऐसे ही भावावेश की पूर्ति में चले गये। मेरी बीमारी के दिनों में भी ऐसा ही हुआ। वे इन थोड़े से दिनों को आवश्यक प्रयोजनों में लगाना चाहते थे पर जिन्हें पता चला वे भावावेश में दौड़ पड़े और आवश्यकता से कहीं अधिक समय तक उन्हें यहाँ रुकना पड़ा।

हो सकता है भविष्य में इस प्रकार की भावावेश पूर्ण पुनरावृत्तियाँ न होने देने लिये भी यह उचित समझा हो कि अपने आने और चले जाने का समय अनिश्चित रखें। यों यहाँ उन्होंने अपना एकान्त कक्ष बना लिया है। जब तक यहाँ रहेंगे उसी में रहेंगे और आवश्यक प्रयोजनों के लिए निर्धारित समय तक ही मिलने के लिए नीचे उतरेंगे। अधिकाँश समय तो यहाँ भी एकान्त में ही रहेंगे। दर्शनार्थियों से अकारण मिलते रहना उनके लिए संभव न होगा। यों पहले भी वे लोक मंगल की जीवन साधना में ही निरत थे पर अब तो उस क्रम का स्तर असंख्य गुना बढ़ गया है। अस्तु उनका एक-एक क्षण विश्व मानव की बहुमूल्य निधि है। उसमें भावावेश के कारण व्यतिरेक उत्पन्न करना समस्त संसार को उस लाभ से वंचित करना है जिस पर कि मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की संभावनायें निर्भर हैं।

वे जिन्हें बुलायें उन्हें ही आना चाहिए। अथवा जिन्हें मिलना नितान्त अभीष्ट हो उन्हें पहले से ही मुझे अपना नाम और प्रयोजन नोट करा देना चाहिए। यदि उचित समझा जायेगा तो उन्हें सुविधानुसार बुला लिया जायेगा। ऐसे अनुरोधों में एक ही बात ध्यान में रखने की है कि सकाम कार्यों के लिए आशीर्वाद प्राप्त करना इस मिलन का प्रयोजन नहीं होना चाहिए। जो बहुमूल्य समय लिया जाय उसमें आत्मोत्सर्ग की परमार्थ प्रयोजनों की ही चर्चा की जाय। शाखा संगठन- आशीर्वाद अनुदान जैसे काम जो मुझे सौंप दिये गये हैं उन्हीं के लिए उन्हें कष्ट देना उचित नहीं।

यह तो स्पष्ट है कि उनके आगमन का अन्तिम स्थान हरिद्वार ही है। हिमालय और गंगा तट ही उनके भावी जीवन का क्रिया क्षेत्र रहेगा। अन्यत्र उनके जाने का विचार नहीं है। इसमें अपवाद व विदेश यात्रा है जिसके लिये वे पहले से ही वचनबद्ध हो चुके हैं। अध्यात्म का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर होता है इस तथ्य को विज्ञान नहीं मानता। उनका कहना है कि विचार विचारों को प्रभावित कर सकते हैं और भावना भावनाओं को। विचार का प्रभाव वस्तुओं पर नहीं पड़ सकता। इस मान्यता को गलत सिद्ध करने के लिये और विचारों के वस्तुओं पर पड़ने वाले प्रभाव को प्रत्यक्ष करने के लिए उन्हें विदेश जाना होगा। प्रवासी भारतीयों का भी आग्रह इसी प्रकार का है जो सम्भवतः कभी पूरा करना पड़े। इन दोनों प्रयोजनों के लिये विदेश यात्रा की तिथि अभी निश्चित नहीं है पर कभी न कभी जाना पड़ सकता है। इस अपवाद के अतिरिक्त सप्त ऋषियों की तपस्थली जहाँ गंगा ने उनकी सुविधा के लिए अपनी सात धारायें चीर दी थीं- वहीं अवस्थित शान्ति कुञ्ज उनका अन्तिम आवागमन स्थल रहेगा। वहीं से उनने कुछ पाया है अस्तु उसी खदान में से कुछ और बहुमूल्य रत्न खोज निकालने के लिए वे लगे ही रहेंगे।

युग परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। पृथ्वी सौर मण्डल के साथ अनन्त आकाश में भ्रमण करती रहती है। अपनी कक्षा में घूमते हुए भी वह सौर मण्डल के साथ कहीं से कहीं चली जाती है। इस परिभ्रमण में ब्रह्माण्ड किरणों की न्यूनाधिकता से मानव शरीर और मन की सूक्ष्म स्थिति में भारी अंतर पड़ जाता है। साँसारिक परिस्थितियाँ और भौतिक हलचलें- सामाजिक विधि- व्यवस्थायें भी मानव जीवन की मूलभूत स्थिति में भारी अन्तर प्रस्तुत कर देती हैं। इस परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए ही युग साधना का स्वरूप समय-समय पर निर्धारित करना पड़ता है। प्राचीन काल की साधना विधियाँ उस समय के मानव शरीरों की स्थिति के अनुरूप थीं परिवर्तन के साथ साधन क्रम भी बदलेंगे। यदि हेरफेर न किया जाय तो प्राचीन काल में सफल होने वाली साधनाएँ अब सर्वथा निरर्थक और निष्फल सिद्ध होती रहेंगी।

इस प्रकार का शोध कार्य अब नितान्त आवश्यक हो गया है। अन्यथा साधकों की यह शिकायत बनी ही रहेगी कि हमने ग्रन्थों के लिये अनुसार तप साधन किया पर उसका कुछ परिणाम न निकला, गुरुदेव भौतिक विज्ञान की ही तरह अध्यात्म विज्ञान को भी प्रत्यक्ष करना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि इसके बिना सर्व साधारण की अभिरुचि आत्म-विज्ञान की ओर हो नहीं सकेगी। गुरुदेव के वर्तमान साधना क्रम को इसी स्तर का शोध कार्य समझा जाना चाहिए। समय, मन और शरीर की शक्तियों को उपरोक्त प्रयोजनों में लगाये रहने की दृष्टि से ही वे प्रिय परिजनों से पृथक रहने का साहस कर सके हैं। यों इस वियोग का कष्ट उन्हें भी कम नहीं है पर उत्तरदायित्व को देखते हुए परिजनों की तरह उन्हें भी मन मसोस कर अपने निर्धारित कर्त्तव्य में संलग्न रहने को विवश रहना पड़ता है।


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