सूर्योदय हो चला अब प्रकाश फैलना ही बाकी है।

May 1972

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सूर्योदय पूर्व दिशा से होता है। उषा काल की लालिमा उसकी पूर्व सूचना लेकर आती है। कुक्कुट उस पुण्य वेला की अग्रिम सूचना देने लगते हैं। तारों की चमक और निशा कालिमा की सघनता कम हो जाती है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है कि प्रभात काल समीप आ गया और अब सूर्योदय होने ही वाला है।

नव जागरण का-युग परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्व मानव से संबन्धित समस्या है एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्व मानव ने जब करवट ली है तब उसका सूत्र संचालन सूर्योदय की भाँति ही पूर्व दिशा से हुआ है। यों पाश्चात्य देश वासी भारत को ‘पूर्व’ मानते हैं पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न है निस्संदेह यह श्रेय सौभाग्य इसी देश को मिला है, वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तर दायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे, इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। युग परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्य भूमि से आरम्भ हो चुका अब वह कुछ ही समय में विश्वव्यापी बनने जा रहा है।

विश्व जड़ और चेतन दो भागों में विभक्त है। जड़ प्रकृति से संबन्धित प्रगति को सम्पदा के रूप में देखा जा सकता है और चेतना प्रकृति के विकास को विचरणा एवं भावना के रूप में समझा जायेगा। सुविधा और सम्पदा की अभिवृद्धि भौतिक प्रगति कहलाती है और चेतना की उत्कृष्टता को आत्मिक उत्कर्ष कहा जाता है, जहाँ तक भौतिक प्रगति का सम्बन्ध है वहाँ तक उसके लिए राजतंत्र, अर्थ तंत्र, विज्ञान तंत्र और शिक्षा तंत्र का उत्तर दायित्व है कि वे अधिकाधिक सुविधा एवं सम्पदा उत्पन्न करके सुख साधनों को आगे बढ़ायें।

आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान तंत्र उत्तरदायी है। इसे दूसरे शब्दों में दर्शन, धर्म, अध्यात्म एवं कला के नाम से जाना जा सकता है। चेतना की भूख इन्हीं से बुझती है, उसे इन्हीं से दिशा और प्रेरणा मिलती है। परिवर्तन एवं उत्कर्ष भी इन्हीं आधारों को लेकर संभव होता है। अस्तु यह अनिवार्य है कि यह चेतनात्मक प्रगति आवश्यक हो तो ज्ञानतंत्र को प्रखर बनाना पड़ेगा। सच तो यह है जब कभी ज्ञान तंत्र शिथिल पड़ता है, विकृत होता है तभी व्यक्ति का स्तर लड़खड़ाता है और उस अस्त व्यस्तता में भौतिक जगत की समस्त गति विधियाँ उलझ जाती हैं। तत्व दर्शी सदा से यह कहते रहे हैं कि सम्पदा नहीं विचरणा प्रमुख है। यदि विचरणा सही रही तो सम्पदा छाया की तरह पीछे-पीछे फिरेगी पर यदि सम्पदा को ही सब कुछ माना गया और चेतना स्तर की उत्कृष्टता उपेक्षित की गई तो बढ़ी हुई सम्पदा दूध पीकर परिपुष्ट हुए सर्प की तरह सर्वनाश करने पर उतारू हो जायेगी। यह शाश्वत तथ्य है इसे इतिहास ने लाखों बार आजमाया है और करोड़ों बार आजमाया जा सकता है।

युग परिवर्तन के जिस अभियान में हमें दिलचस्पी है वह चेतनात्मक उत्कर्ष ही है। इसके लिए ज्ञान तंत्र को समर्थ और परिष्कृत करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह नहीं कि भौतिक प्रगति व्यर्थ है। वह भी आवश्यक है, पर वह दूसरे लोगों का काम है; जिसे वे शक्ति भर सम्पन्न कर भी रहे हैं। सरकारें पंचवर्षीय योजनाएं बनाती हैं। वैज्ञानिक शोध कार्यों में जुटे हुए हैं, अर्थशास्त्री व्यवसाय उत्पादन और वितरण का ताना बाना बुन रहे हैं। सैन्य तंत्र आयुधों के निर्माण और योद्धाओं के प्रशिक्षण में लगा है। शिक्षा शास्त्री बौद्धिक क्षमता के अभिवर्धन में लगे हैं। उपेक्षित तो ज्ञान तंत्र ही पड़ा है उसके नाम पर जो खड़ा है उसे तो विदूषकों जैसी विडम्बना ही कहा जा सकता है। धर्म के नाम पर जो कहा और किया जा रहा है उससे ऐसी आस्तिकता की अपेक्षा नास्तिकता भली प्रतीत होती है। ज्ञान तंत्र यदि मानवीय सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की अपेक्षा कर्मकाण्डों में ही उलझाये रहे और सातवें आसमान के सपने दिखाते रहे, कर्म को व्यर्थ और भक्ति को प्रधान कहता रहे तो उससे मानव समाज का, विश्व का कोई हित साधन न हो सकेगा। धर्म व्यवसायियों की आजीविका भले ही चलती रहे।

नव निर्माण के अवतरण की किरणें अगले दिनों प्रबुद्ध एवं जीवंत आत्माओं पर बरसेंगी, वे व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा को लोक मंगल के लिए उत्सर्ग करने की आन्तरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर भी वे संकीर्ण स्वार्थ परता भरा व्यक्तिवादी जीवन ही न सकेंगे। लोभ और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेंगी जैसे कृष्ण जन्म के समय बन्दी गृह के ताले अनायास ही खुल गये थे। यों माया बद्ध नर कीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़ कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना लगभग असंभव जैसे लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की और कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल जंजाल में पकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछल कर आगे आती हैं और सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रिया कलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। जन्म जात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महा मानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़ें तो समझना चाहिए युग परिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्व साधारण को प्रत्यक्ष हो चला।

निस्संदेह युग परिवर्तन का प्रधान आधार भावनात्मक नव निर्माण ही होगा। जन मानस में इन दिनों झूठी मान्यताओं की भरमार है। सोचने की सही पद्धति एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी है। स्थिति का सही मूल्याँकन कर सकने वाला दृष्टिकोण हाथ से चला गया है। उसके स्थान पर भ्रान्तियों की चमगादड़ें विचार भवन के गुम्बदों में उलटी लटक पड़ी हैं। इस सारे कूड़े-करकट को एक बार झाड़ बुहार कर साफ करना होगा और चिन्तन की इस परिष्कृत प्रक्रिया को जल मानस में प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा जो मानवीय गरिमा के अनुरूप है। किसी धर्म सम्प्रदाय, सन्त या ग्रन्थ को बुद्धि बेच कर किसी का भी अन्धानुकरण न करने की बात हर किसी के मन में घुसती चली जायेगी और जो न्याय, विवेक, सत्य एवं तथ्य की कसौटियों पर खरा सिद्ध होगा उसी को स्वीकारने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। इस आधार के प्रबल होते ही न अनैतिकताओं के लिए कोई स्थान रह जायेगा और न झूठी मान्यताओं के लिए। निर्मल और निष्पक्ष चिन्तन किसी भी देश धर्म या वर्ग के व्यक्ति को उसी स्थान पर पहुँचा देगा जिसके लिए भारतीय अध्यात्म अनादि काल से अंगुलि निर्देश करता रहा है।

यह हलचलें जन-जन में दृष्टि गोचर होंगी। समुन्नत आत्मा निजी सुख सुविधाओं को तिलाञ्जलि देकर विश्व के भावनात्मक नव निर्माण को इस युग की सर्वोत्तम साधना उपासना तपश्चर्या एवं आवश्यकता समझते हुए इसी में सर्वतोभावेन संलग्न होंगी। साथ ही सामान्य स्तर के व्यक्तियों में इतना विवेक तो अनायास ही जागृत होगा कि वे अन्धकार और प्रकाश का अन्तर समझ सकें। अनुचित के लिए दुराग्रह छोड़ कर न्याय और विवेक के आधार पर प्रतिपादित उचित को स्वीकार कर सकें। इस प्रकार उभय पक्षीय सुयोग संयोग उस प्रयोजन को अग्रगामी बनाता चला जायेगा जो युग परिवर्तन का मूल भूत आधार है।

आज की स्थिति को देखते हुए यह दोनों ही कार्य कठिन दीखते हैं। धर्म विडम्बना के सस्ते प्रलोभनों को तिरस्कृत कर धर्म प्रेमी लोग कष्ट साध्य परमार्थ में प्रवेश करेंगे यह कठिन है। बुद्धिजीवी अपनी अच्छी खासी सुविधाओं का परित्याग कर लोक मंगल के लिए दर-दर ठोकरें खायेंगे यह भी कठिन ही दीखता है। पर समय यह भी कराके छोड़ेगा। रीछ बानर अपने प्राण हथेली पर रख मौत से लड़ने गये थे। बुद्ध के ढाई लाख अनुयायी यौवन की उमंगों को कुचलते हुए भिक्षु भिक्षुणी बनने की जटिल प्रक्रिया स्वीकार करने को सहमत हुए थे। गान्धी की पुकार पर लाखों ने अपनी बर्बादी को स्वीकार किया था। उसी प्रकरण को यदि इतिहास फिर दुहराये तो इसे न कठिन मानना चाहिए और न असंभव। जो भूत काल में होता रहा है उसकी पुनरावृत्ति को कठिन या जटिल मानने का कोई कारण नहीं। समय की पुकार इस कष्ट साध्य प्रक्रिया को भी पूरी करके रहेगी। जीवंत और जागृत आत्माओं का एक बड़ा वर्ग निकट भविष्य में ही आगे आवेगा और ज्ञान तंत्र का ऐसा विशाल काय शस्त्रागार खड़ा करेगा जिसकी सहायता से अनाचार की लंका को ध्वस्त किया जा सके।

आज का जन मानस मूढ़ता और दुष्टता की असुर प्रवृत्तियों में बेतरह चिपका दीखता है। नैतिकता को उपहासास्पद मूर्खता माना जाता है। स्वेच्छाचार और अनाचार का बोलबाला है। नीति और न्याय की धर्म और ईश्वर की बातें तो बहुत सुनी जाती हैं पर व्यवहार में उन्हें उतारना असंभव कहा जाता है। आज की यह कठोरता कल बदलेगी और सर्व साधारण को सही सोचने और सही अपनाने की ललक उठेगी यह उभार लोक मानस में आने ही वाला है। उस स्थिति में भावनात्मक नव निर्माण उतना कठिन न रहेगा जितना कि आज दीखता है। ज्ञान तंत्र का उपहास नहीं उड़ाया जायेगा वरन् उसका स्वागत समर्थन आशातीत रूप में देखने को मिलेगा।

धर्म अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगा। उस के प्रसार प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जायेगा। सम्प्रदाय वादियों के डेरे उखड़ जायेंगे, उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दीखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपना कर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे। तब उत्कृष्ट चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोक मंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा पाखण्ड पूजा के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौंचक होकर देखेंगे और किसी कोंटर में बैठे दिन गुजारेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते चाहते तो रहेंगे पर फिर समय लौटकर कभी आ न सकेगा।

अगले दिनों ज्ञानतंत्र ही धर्म तंत्र होगा। चरित्र निर्माण और लोक मंगल की गति विधियाँ धार्मिक कर्म काण्डों का स्थान ग्रहण करेंगी। तब लोग प्रतिमा पूजक देव मन्दिर बनाने की तुलना में पुस्तकालय विद्यालय जैसे ज्ञान मंदिर बनाने को महत्व देंगे तीर्थ-यात्राओं और ब्रह्मभोजों में लगने वाला धन लोक शिक्षण की भाव भरी सत्प्रवृत्तियों के लिए अर्पित किया जायगा। कथा पुराणों की कहानियाँ तब उतनी आवश्यक न मानी जाएंगी जितनी जीवन समस्याओं को सुलझाने वाली प्रेरणाप्रद अभिव्यंजनाएं। धर्म अपने असली स्वरूप में निखर कर आयेगा और उसके ऊपर चढ़ी हुई सड़ी गली केंचुली उतर कर कूड़े करकट के ढेर में जा गिरेगी।

ज्ञान तन्त्र वाणी और लेखनी तक ही सीमित न रहेगा वरन् उसे प्रचारात्मक रचनात्मक एवं संघर्षात्मक कार्यक्रमों के साथ बौद्धिक नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए प्रयुक्त किया जायगा। साहित्य, संगीत, कला के विभिन्न पक्ष विविध प्रकार से लोक शिक्षण का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करेंगे। जिनके पास प्रतिभा है जिनके पास सम्पदा है वे उससे स्वयं लाभान्वित होने के स्थान पर समस्त समाज को समुन्नत करने के लिए समर्पित करेंगे।

(1) एकता (2) समता (3) ममता और (4) शुचिता नव निर्माण के चार भावनात्मक आधार होंगे।

एक विश्व, एक राष्ट्र एक भाषा, एक धर्म, एक आचार, एक संस्कृति के आधार पर समस्त मानव प्राणी एकता के रूप में बँधेंगे। विश्व बन्धुत्व की भावना उभरेगी और वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श सामने रहेगा। तब देश, धर्म भाषा वर्ण आदि के नाम पर मनुष्य मनुष्य के बीच दीवारें खड़ी न की जा सकेंगी। अपने वर्ग के लिए नहीं समस्त विश्व के हित साधन की दृष्टि से ही समस्याओं पर विचार किया जायगा।

जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे छूत अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले काले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण कर्म स्वभाव सेवा एवं बलिदान ही किसी के सम्मानित होने के आधार बनेंगे जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से नर श्रेष्ठ है उसे अधिक अधिकार प्राप्त है ऐसी मान्यता हट जायगी। दोनों के कर्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रति बन्ध या मर्यादायें दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी। प्राकृतिक सम्पदाओं पर सब का अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यानुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन। मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर्थ सदस्य ही गुजारा प्राप्त कर सकेंगे। हट्टे-कट्टे और कमाऊ बेटे बाप के उपार्जन के दावेदार न बन सकेंगे, वह बचत राष्ट्र की सम्पदा होगी इस प्रकार धनी और निर्धन के बीच का भेद समाप्त करने वाली समाज वादी व्यवस्था समस्त विश्व में लागू होगी। हराम खोरी करते रहने पर भी गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा किसी को न मिलेगी। व्यापार सहकारी समितियों के हाथ में होगा, ममता केवल कुटुम्ब तक सीमित न रहेगी वरन् वह मानव मात्र की परिधि लाँघते हुए प्राणिमात्र तक विकसित होगी। अपना और दूसरों का दुख सुख एक जैसा अनुभव होगा। तब न तो माँसाहार की छूट रहेगी और न पशु−पक्षियों के साथ निर्दयता बरतने की। ममता और आत्मीयता के बन्धनों में बँधे हुए सब लोग एक दूसरे को प्यार और सहयोग प्रदान करेंगे।

शरीर, मन, वस्त्र, उपकरण सभी को स्वच्छ रखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। शुचिता का सर्वांगीण विकास होगा। गंदगी को मानवता का कलंक माना जायेगा। न किसी का शरीर मैला कुचेला रहेगा न वस्त्र । घरों को गंदा गलीज न रहने दिया जायगा। मनुष्य और पशुओं के मल मूत्र को पूरी तरह खाद के लिए प्रयुक्त किया जायगा। वस्तुएं यथा स्थान, यथा क्रम और स्वच्छ रखने की आदत डाली जायगी। मन में कोई छल कपट, द्वेष दुर्भाव जैसी मलीनता न रखेगा।

एकता, समता, ममता और शुचिता इन चार मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर विभिन्न आचार संहिताएं, रीति नीति, विधि व्यवस्थाएं, मर्यादाएं और परंपराएं बनाई जा सकती हैं। भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियों को देखते हुए उनमें हेर फेर भी यत्किंचित् होते रह सकते हैं। पर आधार उनके यही रहेंगे।

यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्रमुख शक्तियाँ हैं-एक राज तंत्र दूसरी धर्म तन्त्र। राज सत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्म सत्ता में अन्तः चेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा। यह चारा थोथा है कि राजनीति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। सच्ची बात यह है कि एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। कर्तव्यनिष्ठ और सदाचारी नागरिकों के बिना कोई राज्य समर्थ समुन्नत नहीं हो सकता और राज सत्ता यदि धर्म सत्ता को उखाड़ने की ठान ले तो फिर उसके लिए भी कुछ अधिक कर सकना कठिन है। राम राज्य तभी सफल रह सका जब उस पर वशिष्ठ का नियन्त्रण था। चन्द्रगुप्त की शासन गरिमा का श्रेय चाणक्य के मार्ग दर्शन को ही दिया जा सकता है। प्राचीन काल की यह परम्परा आगे भी चलेगी। धर्म सत्ता का स्थान पहला है इसलिए राज सत्ता को उसका समर्थक और सहायक ही बन कर रहना चाहिए।

धर्मों के वर्तमान स्वरूप प्रभाव और कलेवर की सहायता लेकर हमें वर्तमान जन-मानस को परिष्कृत करते चलना चाहिए। जमे हुए ढाँचे को न तो उखाड़ने की जरूरत है और न उसकी उपेक्षा करने की। चूँकि आधार आगे भी धर्म ही रहना है इसलिए उपयुक्त यही है कि


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