मनोभूमि के परिष्कृत करने के लिए यह साधन क्रम अपनायें।

May 1972

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सार्वभौम और सर्वजनीय उपासना में कर्म काण्ड परक स्वेच्छा की भिन्नता रह सकती है पर उसके भाव पक्ष में एक रूपता रखनी ही होगी। अस्तु हमें उसी दृष्टिकोण को अपनाकर चलना चाहिए।

भजन, चिन्तन, मनन और समापन इन चार भागों में हमें अपनी उपासना पद्धति को विभाजित कर लेना चाहिए।

भजन का अर्थ है ईश्वर की समीपता-उसे अपने में और अपने को उसमें ओत-प्रोत होने की समर्पण अथवा अवतरण परक ध्यान धारणा।

चिन्तन का अर्थ है अपने स्वरूप का-लक्ष्य तथा कर्त्तव्य का स्पष्ट चित्र मनोभूमि में प्रखर करना।

मनन का अर्थ है-जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए अभीष्ट आदर्शों का अपने जीवन क्रम में-गुण कर्म स्वभाव में कितना समन्वय को सका इसका विश्लेषण और जो न हो सका उसकी पूर्ति के लिए आयोजन-नियोजन।

समापन का अर्थ है- हर समय अपने मानसिक चिन्तन और शारीरिक कर्तृत्व पर पर्यवेक्षक अफसर-अधिकारी की तरह निरीक्षण, नियन्त्रण तथा अव्यवस्था का तत्काल निराकरण।

इन चार आधारों का व्यावहारिक रूप यह हो सकता है कि जब भी शरीर शुद्धि के उपरान्त भजन के लिए बैठा जाय तो अपना निर्धारित कर्म काण्ड करते समय इस भावना को प्रबल किया जाय कि हम और ईश्वर दोनों अति समीप और अति घनिष्ठ बन कर बैठने वाले हैं और दोनों की द्वैत सत्ता के एकीकरण का आधार जुटाया जा रहा है। शरीर शुद्धि इसलिये आवश्यक है कि उसके साथ मन की शुद्धि का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। मलीन स्थान, मलीन काया, मलीन वस्त्र मलीन उपकरण, यदि पूजा के अवसर पर भी बने रहें तो मन में भी मलीनता की ही घटा छाई रहेगी। इसलिये न केवल शरीर ही शुद्ध करना चाहिए वरन् पूजा के स्थान एवं उपकरणों को भी अधिक से अधिक स्वच्छ करने का प्रयत्न करना चाहिए।

बूढ़े, बीमार, कमजोर व्यक्तियों को स्नान सम्बन्धी छूट मिल सकती है। जिन्हें शीत ऋतु का प्रभाव सहन न होता हो वे बिना स्नान के भी उपासना कर सकते हैं। गुरु देव को भी कभी-कभी जब बर्फीले तूफान आते हैं तब स्नान की सुविधा न होने से उसका व्यतिक्रम करना पड़ा पर इससे उपासना क्रम को भी छोड़ बैठना उचित नहीं समझा गया। हाँ मल मूत्र का त्याग-हाथ, पैर, मुख आदि की शुद्धि और शुद्ध वस्त्र धारण जैसी व्यवस्था तो बना ही लेनी चाहिए।

अपने किसी परम प्रिय और सम्मानित स्नेही के घर पर पधारते समय जो स्वच्छता सतर्कता बरती जाती है लगभग वैसी ही तैयारियाँ पूजा अवसर पर करनी चाहियें। और भी आगे बढ़ें तो पत्नी जिस तरह स्वच्छ सुसज्जित होकर सुहाग रात को पति के पास जाती है लगभग वैसी ही शारीरिक मानसिक स्थिति में पूजा के स्थल पर बैठना चाहिए। पूजा उपकरण भले ही थोड़े हों, सस्ते हों पर उन्हें स्वच्छ और सुसज्जित रखने में कसर नहीं उठा रखनी चाहिए। भजन, जप, पूजन इसी भावना के साथ करना चाहिए कि सचमुच परम सत्ता का विशेष अवतरण अपने समीप हो गया और उसका शिष्टाचार परक स्वागत सम्मान सम्पन्न किया जा रहा है। बहुत आगे चलकर यह भजन क्रम विशुद्ध मानसिक भी हो सकता है तब किसी वस्तु या क्रिया कलाप की आवश्यकता नहीं रहती पर आरम्भिक साधकों को तो पूजा के सभी साधन जुटाने चाहिएं और निर्धारित विधि विधान के साथ जप, पाठ, पूजन आदि सम्पन्न करने चाहिएं। गायत्री उपासकों के लिए गायत्री महाविज्ञान में तथा समय पर लेखों में सारा विधान बताया जा चुका है उसी की पुनरावृत्ति यहाँ आवश्यक नहीं।

पूजा परक कर्म काण्डात्मक विधान ईश्वर की समीपता का और उनके स्वागत सम्मान का प्रयोजन पूरा करता है। इसके बाद द्वितीय चरण ध्यान का है। गुरु देव का परम प्रिय और अनुभूत ध्यान यह है कि-अपने आपे को ईश्वर में समर्पित कर दिया गया और दिव्य सत्ता अपने में ओत-प्रोत हो गई। बिजली का करेंट जब हीटर के तारों में आता है तो वे लाल हो जाते हैं। उसी प्रकार ईश्वरीय सत्ता के अपने भीतर अवतरण होने से अपना रोम-रोम उसी से भर गया और हीटर के तारों की तरह लाल हो गया। जैसे घी अग्नि में डालने पर वह अपना पूर्व स्वरूप खो बैठता है और मात्र लपट के रूप में दीखता है। उसी प्रकार यह अनुभूति होनी चाहिए कि अपना आपा पूर्णतया ईश्वरीय सत्ता में समर्पित कर दिया, अहंता समाप्त हो गई और जो कुछ है वह अग्नि की लपट के रूप में ईश्वर की सत्ता के रूप में है। यह ध्यान बहुत ही महत्वपूर्ण है। अपने दोष दुर्गुणों के ईश्वरीय अग्नि में जल जाने और दिव्य तत्वों के अपने शरीर, मन तथा अन्तःकरण में भर जाने की मान्यता इस ध्यान से निरन्तर पुष्ट और प्रत्यक्ष होती चलती है।

साकार उपासक ईश्वर के किसी रूप की कल्पना कर सकते हैं और उसके साथ मानवी रिश्तों में से कोई भी रिश्ता जोड़ कर घनिष्ठता, समीपता और प्रेम भावना से भरी पूरी उमंगों की उस स्तर के क्रिया कलाप की-अनुभूति कर सकते हैं। जप के साथ भी इस तरह का ध्यान किया जा सकता है और बिना जप के भी। अपनी मनोभूमि के अनुसार जो भी ठीक पड़ता हो उसी क्रम को अपना लेना चाहिए।

भगवान को आकाश में सूर्य की तरह चमकते हुए और उसके प्रकाश एवं ऊष्मा से अपने शरीर मन एवं अन्तःकरण को ज्योतिर्मय होने का ध्यान भी कई साधकों को अधिक रुचिकर लगता है।

यह ध्यान, जप के साथ भी हो सकता है और अलग भी। पाठ पूजन में चूँकि मन उन क्रिया कलापों से बँधा रहता है इसलिये उनके साथ तो समीपता स्वागत जैसा भाव ही रहता है पर जप के साथ ध्यान चल सकता है। माला यदि ध्यान में व्यवधान उत्पन्न करे तो समय की नियमितता के लिए घड़ी से भी काम चल सकता है। जप पूजन में पन्द्रह मिनट और ध्यान में पन्द्रह मिनट कम से कम आधा घण्टा तो उपासना में लगाना ही चाहिए। इससे अधिक जिससे जितना बन पड़े-कर सकते हैं। दिन में कई बार किया जा सकता है। ध्यान की यह प्रक्रिया तो ऐसी है कि मानसिक जप की तरह उसे कभी भी सुविधा और अवकाश के समय किया जा सकता है।

चिन्तन और मनन की एक ही प्रक्रिया समझी जा सकती है। उसे दो खण्डों में विभक्त माना जा सकता है। इसके लिए सर्वोत्तम समय वह है जब प्रातःकाल आँख खुल जाती है और शैया त्यागने की तैयारी में थोड़ी देर करवटें बदली जाती हैं। आमतौर से लोग आँख खुलते ही शैया त्याग नहीं कर देते वरन् कुछ समय ऐसे ही उनींदे पड़े रहते हैं। यह समय सुविधा का है। मल-मूत्र त्यागने के बाद भी कुछ समय एकाँत में बैठकर या बिस्तर में लेट कर यह चिन्तन-मनन की प्रक्रिया चलाई जा सकती है। कम से कम पन्द्रह मिनट तो इसमें भी लगाने चाहियें। चिन्तन करना चाहिये कि अपना आपा-ईश्वर का अंश पुत्र और प्रतिनिधि, शुद्ध, निर्विकल्प दिव्य चेतना एवं दिव्य क्षमताओं से परिपूर्ण है। अपना शुद्ध स्वरूप यही है, शरीर और मन अपने दो औजार-वाहन हैं। इन्हें अपने से पृथक रखकर दो सेवकों के रूप में देखने समझने की मान्यता विकसित करनी चाहिए। चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ सुर-दुर्लभ कलेवर प्रदान करने का ईश्वरीय प्रयोजन, एक आदर्श मनुष्य का उदाहरण प्रस्तुत करना समझा जाना चाहिए कि ईश्वर ने अपनी सृष्टि को सुन्दर सुविकसित, समुन्नत एवं सुव्यवस्थित करने के लिए उसे अपने सहायक प्रतिनिधि के रूप में इस संसार में भेजा है। जीवन की सार्थकता, आत्मिक पवित्रता और लोक मंगल में तत्परता बढ़ाते रहने से ही सम्भव हो सकती है। इस तथ्य को गहराई तक हृदयंगम करने की विचारणा को ही चिन्तन माना जाना चाहिए। इसे आत्म-बोध या आत्म-जागरण साधना भी कह सकते हैं।

मनन इसी चिन्तन प्रवाह का पूरक है। अपनी मानसिक गति-विधियों और शारीरिक क्रिया कलापों का शवच्छेद विश्लेषण करना चाहिए और देखना चाहिए कि मनुष्यता के आदर्शों में से कितना अंश गुण, कर्म, स्वभाव में सम्मिलित हो गया। उपलब्धियों पर सन्तोष व्यक्त करना चाहिए और जो कमी दिखाई पड़े उन्हें पूरा करने के लिये क्या किया जाय? कैसे किया जाया? कब किया जाय? इस पर विचार करना चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि आदर्शों का धर्म मान्यताओं का कहना, सुनना, पढ़ना, जानना ही पर्याप्त नहीं वरन् उन्हें क्रिया कलाप में भी समन्वित किया जाना चाहिए। लोभ, मोह, कायरता जैसी कौन कमजोरियाँ हैं जो जीवन को आदर्श बनाने में अड़चन उत्पन्न करती हैं; उन दुष्प्रवृत्तियों को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानना और उनके उन्मूलन के लिये आत्मबल जगाना मनन का महत्व पूर्ण अंग है। विचारणा के इन क्षणों में यह योजना बनानी चाहिए कि अपनी हेय गति विधियों को कैसे छोड़ा जा सकता है। आदर्श महा मानव बनने के लिए क्या कदम उठाया जा सकता है? इस परिवर्तन का आरम्भ कैसे किया जाय और अन्त कहाँ किया जाय? इस प्रकार योजनायें बनाना और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए मन को वैसा ही उद्बोधन देना चाहिए जैसा कि जामवन्त ने समुद्र लाँघने के लिये हनुमान को दिया था। चिंतन की प्रक्रिया को प्रगति पथ पर बढ़ चलने की योजना व्यवस्था भी कह सकते हैं। इसे प्रातः काल चारपाई पर पड़े या एकान्त में बैठे, लेटे तो नित्यकर्म के रूप में करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जब भी एकान्त हो-मन खाली हो तब उसी दिशा में उधेड़-बुन आरम्भ कर देनी चाहिए।

समापन जागने से लेकर सोने तक निरन्तर चलते रहने वाले निरीक्षण नियंत्रण एवं निराकरण का क्रम है। जिसे प्रत्येक शारीरिक और मानसिक क्रिया कलाप के साथ जोड़ कर रखना चाहिए। समझना चाहिए शरीर और मन हमारे दो नौकर हैं, हम उनके ऊपर निरीक्षक नियंत्रण कर्त्ता, उनकी प्रत्येक हरकत पर कड़ी नजर रखनी चाहिये और देखना चाहिए कि वे हरामखोरी या बदमाशी तो नहीं कर रहे हैं। मस्तिष्क में अशुभ चिन्तन तो नहीं चल रहा- शरीर असुर कर्म तो नहीं कर रहा। ऑटोमेटिक मशीनें अपने आप चलती रहती हैं और उनके निरीक्षक मशीन की गति विधियों को सतर्कता पूर्वक बैठे देखते रहते हैं। जहाँ तनिक सी भी कोई गड़बड़ी दिखाई पड़ती है तुरन्त सुधारते हैं। अपनी जिम्मेदारी समझते हैं कि यदि मशीनों ने गड़बड़ की तो उस निरीक्षक के कान खींचे जायेंगे। ठीक यही दृष्टि जागृति के प्रत्येक क्षण में बनाये रखनी चाहिये और असुर चिन्तन अथवा अशुभ कर्म का आरम्भ होते ही उसे प्रचण्ड विरोध करके निरस्त करना चाहिए।

समापन का अर्थ अनुचित को निरस्त करना ही नहीं वरन् उचित को प्रोत्साहित एवं योजना बद्ध बनाना भी है। हर दिन सावधानी के साथ सवेरे ही दिनचर्या बना लेनी चाहिए और समय का एक क्षण भी व्यर्थ न जाने पाये तथा इन दोनों सेवकों को उपयुक्त कर्तव्य में जुटाये रखा जाय यह भी आवश्यक है। ‘हर दिन नया जन्म-हर रात नई मौत’ के सूत्र को व्यवहार में कार्यान्वित करते हुए हर नया दिन पिछले दिनों की अपेक्षा अधिक संतोषजनक उपलब्धियों से भरा हुआ रहे इसका प्रयत्न करना चाहिये। रात्रि को सोते समय दिन भर के क्रिया कलापों का लेख-जोखा लेना चाहिए और अगले दिनों भूलों को सुधारने तथा सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने का संकल्प लेकर सोना चाहिए।

भजन, मनन, चिन्तन और समापन की गतिविधि उपासना पद्धति गुरु देव के प्रत्येक परिचित और संपर्क में रहने वाले को आरम्भ कर देनी चाहिए। इस प्रकार जोती हुई भूमि में उनके लिए उन विभूति वृक्षों का आरोपण सम्भव होगा जिनकी कि इन दिनों वे पौध तैयार कर रहे हैं।


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