राजनीति से बढ़कर समाज सेवा की दिशा

May 1972

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अपने देश का दुर्भाग्य ही है कि लोग सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश तो करना चाहते हैं पर उनका दृष्टिकोण अति संकीर्ण होता है। राजनीति को ही सब कुछ समझा जाने लगा है। विधान सभाओं के चुनावों में जितने स्थान थे उन पर जितने प्रत्याशी खड़े हुए उसे देखते हुए उस वर्ग की अभिरुचि का सहज ही पता चल जाता है। दूसरे देशों में दो तीन से अधिक उम्मीदवार कहीं नहीं होते और वे भी संगठित संस्थाओं के मंच पर ही चुनाव लड़ते हैं। उनके पीछे कुछ आदर्श होता है कुछ कार्यक्रम, पर अपने देश में तो ऐसे ही भेड़ियाधसान में घुस पड़ने के लिये कोई भी उम्मीदवार खड़ा हो जाता है और मत दाताओं में मति भ्रम पैदा करके उपयुक्त प्रत्याशियों का भी मार्ग अवरुद्ध करता है।

इन्हीं विधान सभा के चुनावों पर दृष्टिपात करें और उसका लेखा-जोखा लें तो प्रतीत होगा कि असफल हजारों प्रत्याशी ऐसे थे जो राजनीति के वर्चस्व में प्रवेश करने की लालसा से एड़ी चोटी का पसीना एक कर रहे थे, उनका करोड़ों रुपया भी इस प्रयास में खर्च हुआ। इतनी लालसा, दौड़-धूप और खर्चीली राह क्यों अपनाई गई। इस संदर्भ में किसी की शान में कुछ कहना उचित न होगा। हो सकता है उनमें से बहुत से विशुद्ध देश सेवा के लिए ही राजनेता बनने के लिए उत्सुक हों। हो सकता है उनमें कुछ यश, प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए खड़े हुए हों। ऐसे कुछ ही होंगे जिन्होंने यह सट्टा इसलिये खेला हो कि सफल होने पर ऐसे दाव-घात अपनायेंगे जिनसे एक के बदले दस कमाने का अवसर मिल जाय। कुछ के मन में तो बड़ी लालसा रही होगी पर परिस्थिति वश मन मारकर बैठना पड़ा होगा।

जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि कितने ही प्रतिभाशाली लोगों की लालसा सार्वजनिक क्षेत्र में आने के लिये—लोक नेता बनने—यश सम्मान पाने या सेवा साधन का कोई भी प्रयोजन हो सकता है या इन सबका मिला जुला स्वरूप भी ऐसा हो सकता है जो इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए लालसा उत्पन्न करे। यह उभरता हुआ तथ्य हम उन लोगों के बीच भी देख सकते हैं जो संस्थाओं के भीतर पदों की प्राप्ति के लिए धक्का मुक्की करते हुए अवाँछनीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह संख्या कम नहीं है। लोक सेवा का आवरण ओढ़े हुए अधिकाँश लोग इसी बीमारी से ग्रसित हैं। फलतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता नष्ट होती चली जाती है और धक्का-मुक्की करने वाले लोग भी हर दृष्टि से असफल रह रहे हैं। न उन्हें यश मिल रहा है न श्रेय। लोक सेवा तो उस ओछी मनःस्थिति में बन ही कैसे पड़ेगी? वस्तुतः लोकसेवा के क्षेत्र में जिन्हें उतरना है उनके लिए गुरु देव का सुझाव था कि वे सामाजिक क्षेत्र में उतरें और उन कार्यों को हाथ में लें जो राजनीति की अपेक्षा अधिक ठोस और अधिक स्थायी हैं। यश और सम्मान की दृष्टि से भी राजनीति का क्षेत्र बड़ा अस्थिर और कुटिल है। जब तक एम॰ एल॰ ए0—एम॰ पी0 या मिनिस्टर हैं तब तक लोग बन्दगी करते हैं और जैसे ही वह टोपी उतरी कि सड़क चलते मुसाफिरों से अधिक कुछ इज्जत नहीं रह जाती। उस स्वल्प कालीन सम्मान या पद को प्राप्त करने के लिये—आगे बनाये रहने के लिए किन्हीं किन्हीं को ऐसे प्रपञ्च भी करने पड़ते हैं जिनसे उनकी आत्मा दिन-दिन कलुषित होती चली जाय और ईश्वर के दरबार में वह तथाकथित लोक सेवा द्रोह से भी बुरी ठहराई जाय।

राजनीति में वर्चस्व प्राप्त करने के लिए लोगों की भीड़ और धक्का-मुक्की अत्यधिक है। घुसने वालों को भीतर बैठे हुए लोग रोकते हैं। भीड़ वाली गाड़ी में पायदान पर लटकते हुए चलने का जोखिम उठाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि कम भीड़ वाला वाहन पकड़ा जाय भले ही वह देर में पहुँचे, भारत का सामाजिक क्षेत्र ऐसा है जिसमें लोक-मंगल के लिये बहुत कुछ करने को पड़ा है और जिसमें काम करने की बहुत गुंजाइश है। उस क्षेत्र में बिना प्रतिस्पर्धा के सच्ची लोक सेवा की जा सकती है और उस मार्ग पर चलते हुए सच्ची और चिरस्थायी यश कामना भी पूर्ण हो सकती है।

सच तो यह है कि अपने देश का पिछड़ापन दूर करने में राजसत्ता उतनी सफल नहीं हो सकती जितनी कि सामाजिक क्षेत्र में की गई सेवा साधना। हजार वर्ष की गुलामी से अपना सब कुछ खो बैठने वाले समाज में संव्याप्त नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर किया जाना सबसे बड़ा काम है और उसे राजनीति द्वारा नहीं—सामाजिक सत्प्रवृत्तियों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है।

निरक्षरता की समस्या पिछड़ेपन का प्रधान चिह्न है। सरकारी स्कूलों में नगण्य सी बाल-संख्या शिक्षण पा रही है। प्रौढ़ और महिलाओं को मरने तक ऐसे ही निरक्षर रहने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार वर्तमान स्कूलों को चलाने में ही चरमरा रही है। प्रौढ़ों को प्रशिक्षित करने में सरकारी खर्चीली योजनाओं इतने टैक्स लगा देंगी कि उसे वहन करने से तो निरक्षर रहना ही पसंद करेंगे। यह कार्य शिक्षितों में सेवा भावना उत्पन्न करके गली-गली, गाँव-गाँव, मुहल्ले-मुहल्ले प्रौढ़ पाठशालायें चला कर ही पूरा किया जा सकता है। काम धन्धे में लगे हुए लोग अवकाश के समय में अपनी शिक्षा वृद्धि कर सकें इसके लिए रात्रि कालीन तथा प्रभात कालीन स्कूलों की हर जगह भारी आवश्यकता है।

खर्चीली विवाह शादियाँ समाज की आर्थिक तथा नैतिक दुर्दशा का बहुत बड़ा कारण है। औसत हर शादी में दो हजार भी खर्च पड़ें और हर परिवार को एक पीढ़ी में चार शादियाँ भी करनी पड़ें तो उस मद में आठ हजार खर्च हुआ ऐसे सात लाख परिवार इस देश में हैं। इसमें शादियों पर आने वाला कुल खर्चा अरबों खरबों हो जाता है। यह धन औसत भारतीय को या तो बेईमानी से जुटाना पड़ता है या रोटी, कपड़े, दवा, शिक्षा जैसे जरूरी कामों में कमी करके। जो कर्ज लेते हैं वे और भी अधिक दुर्दशा ग्रस्त होते हैं। हजारों लड़कियाँ अविवाहित रह जाती हैं, बूढ़ों को ब्याही जाती हैं या फिर आत्महत्या करती हैं। खर्चीली शादियों की कुरीति मिटाने से जो पैसा बचेगा उसे यदि कृषि, उद्योग आदि में लगाया जा सके तो अपने देश की सम्पन्नता अमेरिका से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी हो सकती है।

आमदनी बढ़ने का तभी कुछ लाभ है जब अपव्यय रोके जा सके। अन्यथा आर्थिक तंगी यथावत् बनी रहेगी। शादियों में होने वाला वर्तमान अवाँछनीय खर्च यदि न रुका तो देश को चिरकाल तक ऐसी ही आर्थिक तंगी में पड़ा रहना होगा भले ही आमदनी कितनी ही क्यों न बढ़ जाय।

नशों को ही लीजिये। केवल तमाखू दो करोड़ रुपया प्रतिदिन का पिया जाता है। शराब, भाँग, अफीम आदि मिलाकर तो वह पाँच करोड़ प्रतिदिन अर्थात् वर्ष में 1800 करोड़ रुपया नष्ट होता है। यदि यह बचाया जा सके तो उतने धन से स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की न जाने कितनी समस्याएं हल हो सकती हैं और स्वास्थ्य बिगड़ना पैसे की तंगी रहना, गृह कलह, अपराधी प्रवृत्ति जैसी उसके साथ जुड़ी हुई बुराइयों से बचा जा सकता है।

पर्दा प्रथा के कारण नारी वर्ग की आधी जनसंख्या अपंग अपाहिज जैसी बनाकर रख दी गई है। इस कुरीति को यदि मिटाया जा सके तो दूनी श्रम शक्ति, बुद्धि शक्ति तथा दूनी प्रतिभा राष्ट्रीय प्रगति में योगदान दे सकती है। उपार्जन बढ़ सकता है और समुन्नत वातावरण बन सकता है।

छुआ-छूत ने जन समाज के एक बड़े भाग को मानवी अधिकारों से वंचित करके उन्हें पिछड़ी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश कर रखा है। उनका असन्तोष और पिछड़ापन दोनों ही राष्ट्रीय प्रगति में भारी बाधक हैं। अपने समाज पर लगे हुए इस कलंक को धोया जाना आवश्यक है। जाति-पाँति के नाम पर हजारों टुकड़ों में बँटे बिखरे अपने अगणित समाज को फिर एकता और समता के सूत्र में बाँधने की आवश्यकता है। सरकारी कानून तो हर बुरे काम के विरुद्ध बने पड़े हैं पर उनके रहते हुए भी सब कुछ होता रहता है। छुआछूत और ऊँच-नीच का भेद-भाव मिटाने के लिये कानून बन जाना ही सब कुछ नहीं उसके लिये अभी वातावरण बनाने के लिए बहुत काम करना होगा।

गृह उद्योगों के अभाव में महिलायें तथा वृद्ध लोग सर्वथा अनुत्पादक बन कर जीते हैं उन्हें कुछ काम मिले तो आर्थिक स्थिति सुधरे और बच्चों की शिक्षा तथा पौष्टिक आहार के साधन जुटें। इस दिशा में आवश्यक नहीं कि सरकार ही सब कुछ करे, सामाजिक क्षेत्र में भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है।

गौरक्षा आदि सचमुच करनी हो तो गौ दुग्ध की वरिष्ठता तथा उपयोगिता से सर्वसाधारण को परिचित करना पड़ेगा और जो लोग गोरस लेना चाहते हैं उनके लिए उपलब्ध कराने का एक विशाल तन्त्र खड़ा करना पड़ेगा। उन्हें गाय की उपयोगिता बता देने पर एक ठोस आर्थिक कारण बन जायगा गौरक्षा सम्भव हो जायगी।

साहित्य क्षेत्र में आज कूड़ा-करकट ही लिखा, छापा और बेचा जा रहा है। इसे निरस्त करने के लिए उसके स्थान पर ऐसा साहित्य सर्व साधारण के लिए उपलब्ध कराना होगा जो प्रगतिवादी दृष्टिकोण विकसित कर सके। चित्र और पुस्तकों में भरी अश्लीलता पर कुठाराघात किया जाना नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिये नितान्त आवश्यक है। इस दिशा में सृजनात्मक वस्तुएं उपलब्ध करने की वास्तविक प्रगति को ध्यान में रखते हुए अत्यधिक आवश्यकता है। बाल-साहित्य, नारी साहित्य तो ऐसा अभी लिखा ही नहीं गया जो नई पीढ़ी को—महिलाओं को आवश्यक प्रकाश दे सकने में समर्थ हो। ऐसी पत्रिकायें भी कहाँ हैं? सामाजिक क्षेत्र में नेतृत्व करने वाले प्रभाव शाली पत्रों का भी एक प्रकार से अभाव ही है। राजनीति का ढोल पीटने वाले अखबारों की ही भरमार है। जबकि इस देश में सामाजिक आन्दोलनों को प्रोत्साहित करने की राजनीति से भी हजार गुनी अधिक आवश्यकता है। समय की पुकार है कि इस आवश्यकता को पूरा किया जाय।

सिनेमा आज का सर्व प्रिय मनोरंजन है। देश के 7 हजार सिनेमाओं में हर रोज लाखों आदमी देखने जाते हैं। उनमें से अधिकाँश फिल्में दर्शकों पर अवाँछनीय प्रभाव छोड़ती हैं और इससे नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों का बेतरह ह्रास होता है। इसे कोसने से काम नहीं चलेगा। सुसंगठित रूप से यदि सृजनात्मक फिल्म बनाये जाने लगें तो उस माध्यम से भावनात्मक नव निर्माण में बहुत सहायता मिल सकती है और नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्राँति का पथ प्रशस्त हो सकता है।

व्यायामशालाएं गाँव-गाँव खोले जाने की आवश्यकता है। अपराधी तत्वों से निपटने के लिये सुरक्षा दल गठित किया जाना चाहिए और नागरिकों को परेड करना शस्त्र चलाना आना चाहिए। खेल-कूदों की शिक्षा एवं प्रतियोगिता स्वास्थ्य संवर्धन में सहायक हो सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण के लिए व्यायाम आन्दोलन व्यापक बनाये जाने की नितान्त आवश्यकता है।

अन्न की कमी-पौष्टिक आहार की न्यूनता को देखते हुए शाक और फलों का उत्पादन आज की एक महती आवश्यकता है। सप्ताह में एक समय शाकाहार की परम्परा चल पड़े तो उससे स्वास्थ्य लाभ के अतिरिक्त अन्न की बचत भी हो सकती है। बड़ी दावतें और अनाप-शनाप जूठन छोड़ने के विरुद्ध आन्दोलन करके भी अन्न की बर्बादी का एक बड़ा भाग बचाया जा सकता है। घर आँगन में फूल एवं शाक उगाने की प्रथा चल पड़े तो उससे जहाँ सृजनात्मक प्रवृत्ति बढ़ेगी वहाँ घरों की शोभा और शाक खरीदने की बचत भी होगी। गाँव में मल-मूत्र तथा गोबर कूड़े का सदुपयोग सीखा सिखाया जा सके तो स्वच्छता की वृद्धि तथा उपलब्ध खाद से अन्न का उत्पादन बढ़ सकता है। ऐसे छोटे किन्तु महत्व पूर्ण कार्य राष्ट्रीय प्रगति में भारी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

पुस्तकालय शिक्षित वर्ग की ज्ञान वृद्धि के लिए अति उपयोगी माध्यम है। हर व्यक्ति सभी जीवनोपयोगी पुस्तकें खरीदने की व्यवस्था नहीं जुटा सकता। पुस्तकालयों से इस अभाव की पूर्ति होती है। विचारोत्तेजक साहित्य वाले पुस्तकालय तथा चल पुस्तकालय लोक चिन्तन में प्रखरता लाने के आवश्यकता पूरी करेंगे।

भिक्षा वृत्ति के 56 लाख साधु बाबाजी निठल्ले बना दिये हैं और काम कर सकने योग्य व्यक्ति भी थोड़ी सी शारीरिक कमी होने पर भीख माँगने का व्यवसाय अपनाने पर उतारू हो जाते हैं। उन्हें काम करने के लिए विवश किया जाना चाहिए। समर्थ लोगों की भिक्षावृत्ति को चोरी, उठाईगीरी जैसे अपराधों में गिना जाना चाहिए। लोक सेवी तथा असमर्थ व्यक्ति दान पर जीवन यापन करें तो बात समझ में आती है पर समर्थ लोगों का अकारण हाथ पसारते फिरना या फिर प्रपंच करके रोटी कमाना, राष्ट्रीय चरित्र पर भारी आघात और मानवी स्वाभिमान का पतन है। अपंग, असमर्थों के निर्वाह की व्यवस्था करना समाज का कर्त्तव्य है पर भिक्षा व्यवसाय की छूट नहीं होनी चाहिए।

निरर्थक आभूषणों से विलासिता और फैशन में अपव्यय रोकने और उस बचत को उपयोगी कामों में लगाने के लिए वातावरण तैयार किया जा सकता है। बालविवाह—वृद्ध विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय पशुओं के साथ बरती जाने वाली निर्दयता आदि अनेक सामाजिक बुराइयां ऐसी हैं जिन्हें रोकने के लिये सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है।

ऊपर की पंक्तियों में उन थोड़ी सी आवश्यकताओं की ओर ध्यान दिलाया गया है ऐसे अनेक कार्य करने को पड़े हैं जिन्हें हाथ में लेकर व्यक्ति एवं समाज की सर्वांगीण उन्नति में बहुत बड़ा योगदान दिया जा सकता है। ऐसे आन्दोलनों को—रचनात्मक कार्यक्रमों को—हाथ में लेने के लिए आदि संगठित प्रयास किये जायें तो निस्सन्देह सच्ची लोक सेवा हो सकती है।

राजनीति क्षेत्र में घुसी बुराइयों को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक कि मतदाता हित अनहित में अन्तर करना नहीं सीख लेता है वोट को राष्ट्र की परम पवित्र धरोहर समझ कर उसे सही व्यक्तियों को देने के लिए सजग नहीं हो जाता। इसके लिए व्यापक लोक शिक्षण की आवश्यकता है। प्रजातन्त्र में राजसत्ता की कुञ्जी मत दाता के हाथ में रहती है। भ्रष्ट राज नेताओं से भी सामाजिक रूप से लड़ा जा सकता है पर उसका आध्यात्मिक समाधान मतदाता के—जनता के हाथ में ही है। सो उसी को जागृत किया जाना चाहिए।

जन जागरण का प्रयोजन वे कर सकते हैं जो अपने उज्ज्वल चरित्र एवं निस्वार्थ सेवा साधना से लोक मानस में अपने लिए गहरा सम्मान और स्थान बना लें। जो इसके लिए साहस कर सकते हैं, लोक श्रद्धा और यशस्विता उन्हीं के गले पड़ती है और वे ही सच्चे नेता कहलाने के अधिकारी बनते हैं।

इन्हीं रचनात्मक कार्यक्रमों को लेकर युग निर्माण योजना चल रही है। सच्ची सेवा, साधना के इच्छुक व्यक्तियों को उसका विशाल कार्य क्षेत्र तैयार किया हुआ है। उसका आधार भारतीय धर्म और संस्कृति के अनुरूप तथा युग की पुकार से ओत-प्रोत रहने के कारण जनता ने उसे सराहा ही नहीं स्वीकार भी किया है। राजनैतिक वर्चस्व प्राप्त करने के लिये लालायित लोग यदि लोक मंगल की सेवा साधना, सामाजिक स्तर पर करने लगें तो देश का कितना बड़ा उपकार हो और उन उमंगों का भी सदुपयोग हो जो राजनीति में इधर-उधर धक्के खाती हुई भ्रमित एवं अस्त-व्यस्त होती रहती है। यदि लोक सेवा में निरत रहकर जनता की सच्ची श्रद्धा अर्जित कर ली जाय तो राजनेता बनने में भी कुछ कठिनाई नहीं रहती। पर यों ही उछल कूद के आधार पर यदि राजनेता बन भी जाया जाय तो उसमें स्थिरता कहाँ रहती है?


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