मैं उत्कटता पूर्वक चाहता हूँ कि भारतीय संस्कृति निर्दोष बने, बढ़ती रहे और तेजस्वी रूप धारण करे। यह संस्कृति ज्ञानमय है, संग्राहक है, कर्ममय है। यह संस्कृति सबको अपने निकट लेगी, नये-नये प्रयोग करेगी, अविरत उद्योग करती रहेगी। भारतीय संस्कृति का अर्थ है, सर्वांगीण विकास, सबका विकास। भारतीय संस्कृति की आत्मा छुआछूत को मानती नहीं, हिन्दू-मुसलमान को जानती नहीं। यह प्रेम पूर्वक और विश्वास पूर्वक सबका आलिंगन करके, ज्ञानमय और भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार लेकर माँगल्य-सागर की ओर सच्चे मोक्ष—सिन्धु की ओर जाने वाली संस्कृति है।
भगवान् की इच्छा है कि हम सब उसकी इस सृष्टि को अधिक सुन्दर, अधिक सुखी, अधिक समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उसका हाथ बंटायें। अपनी बुद्धि, क्षमता और विशेषता से अन्य पिछड़े हुये जीवों की सुविधा का सृजन करें और परस्पर इस तरह का सद्व्यवहार बरतें जिससे इस संसार में सर्वत्र स्वर्गीय वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे।
भारतीय संस्कृति के उपासकों की महान यात्रा अनादि काल से आरम्भ हुई है। व्यास—वाल्मीकि, बुद्ध—महावीर, शंकराचार्य—रामानुज, ज्ञानेश्वर—तुकाराम, नानक—कबीर एवं महात्मा गाँधी, महर्षि अरविन्द जैसी महान विभूतियों ने इस यात्रा को आगे बढ़ाया है।
आइए, हम छोटे-बड़े सब इस पावन—यात्रा में सम्मिलित हों। आइए, आइए, सब कोई आइए। आज भारतीय संस्कृति के ये सारे सत्पुत्र हम सबको पुकार रहे हैं। यह पुकार जिसके हृदय तक पहुँचेगी वह धन्य होगा।
—साने गुरुजी