परिजन अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें

May 1972

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गुरु देव का शाँति कुञ्ज जितने समय ठहरना हुआ वे सामान्य कुशल क्षेम और चिकित्सा परिचर्या की साधारण सी बातों में कुछ ही क्षण लगाकर शेष सारा समय उसी प्रयोजन के लिये लगाते रहे, जिसके लिए कि उनका समस्त जीवन समर्पित है—और जिसको आगे भी गतिशील रखने के लिए हरिद्वार का यह आश्रम बनाया। वस्तुतः यह स्थान गुरुदेव और जन समाज की संपर्क व्यवस्था का माध्यम है। वे परिजनों के लिये—समस्त समाज के लिये क्या सोचते हैं—क्या करते हैं और क्या कराना चाहते हैं, इसी संदर्भ में उन दिनों चर्चाएं होती रहीं। पूछने और कहने के विषय भी अपने वैयक्तिक नहीं रहे। आकांक्षाएं ही नहीं अब तो जिज्ञासाएं भी लोक मंगल में पूरी तरह जुड़ गई हैं। व्यक्तित्व जब अपना रहा ही नहीं, तो अपनी कुछ समस्या ही क्या है, जिस पर कुछ पूछा बताया जाय?

नव निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में क्या सोच रहे हैं और अपने विशाल परिवार को—समस्त जन समाज को —वे क्या कहना चाहते हैं, यही प्रश्नोत्तर का प्रधान विषय रहा। जब जी आता कुछ पूछ बैठती—जब उनका जी आता बिना पूछे ही अपने उद्गार प्रकट करने लगते। इसी प्रकार वार्तालाप होता रहा। नोट लिये जाते रहे। संक्षिप्त विवरण इस अंक में है।

गुरु देव के व्यक्तित्व और उनके चिन्तन में, मिशन में जिन्हें दिलचस्पी है उन्हें इन पृष्ठों को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिए और यह प्रयत्न करना चाहिए कि उनके परामर्श निर्देश को यथा सम्भव अधिक से अधिक अपनाया जा सके।

इनमें किन विचारों से कौन कितना सहमत है, किसने इस दिशा में कितना चलना आरम्भ किया है, किसका क्या परामर्श और सुझाव है, और भविष्य में इस दिशा में क्या करने की तैयारी कर रहा है, इसका विवरण यदि मिल सके तो बहुत अच्छा हो। इससे परिजनों की मनःस्थिति और गतिविधियों का उन्हें भी पता चल जायगा जिस प्रकार उनने जो सन्देश दिये वे परिजनों तक इस अंक द्वारा पहुँचा कर मैं अपने कर्त्तव्य से निवृत्त हो गई उसी प्रकार परिजनों का चिन्तन तथा कर्तृत्व भी उन तक पहुँचाना मेरा काम है। आखिर मुझे सन्देश वाहक ही तो नियुक्त किया गया है। इधर की बात उधर और उधर की बातें इधर पहुँचाने के लिए ही यह शाँति कुञ्ज का माध्यम बनाया गया है। सामान्यतया हर परिजन से यह आशा करूंगी कि वे इस अंक में व्यक्त विचारों और निर्देशों के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करें और उसे पत्र द्वारा मुझे लिख दें। वह समस्त अभिलेख जब वे इधर आयेंगे तब उनके सामने प्रस्तुत कर दूँगी।


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