सत्य-तप और वैराग्य का समन्वय

May 1972

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सत्य की प्राप्ति-तपस्वी ही कर सकता है। शारीरिक और मानसिक प्रलोभनों से बचने में जिस तितीक्षा और कष्ट सहिष्णुता की-धैर्य और संयम की आवश्यकता पड़ती है, उसे जुटा लेने का नाम ही तप है। अकारण शरीर के सताने का नाम ही तप नहीं है। सताना तो किसी का भी बुरा है फिर शरीर को व्यथित और संतप्त करने से ही क्या हित साधन हो सकता है। तपस्या वह है जो सत्यमय जीवन लक्ष्य निर्धारित करने के कारण सीमित उपार्जन से निर्वाह करने की स्थिति में- गरीबी अथवा मितव्ययिता अपनानी पड़ती है। इसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार और शिरोधार्य करने का नाम तप साधना ही है।

सत्य रूप नारायण को प्राप्त करने का मूल्य है वैराग्य। वैराग्य का अर्थ घर परिवार को छोड़, विचित्र वेश बनाना या भिक्षाटन करना नहीं है वरन् यह है कि जिस राग-द्वेष की धूप छाँह में सारा जगत हँसता, रोता, अशान्त और उद्विग्न रहता है उस विडम्बना से बचते हुए महान लक्ष्य की ओर अनवरत गति से चलते जाना। सत्य निष्ठ व्यक्ति इस असत्य मग्न संसार को एक विचित्र प्राणी लगता है। उसे भी अज्ञान के अन्धकार में भटकती दुनिया दयनीय लगती है। दोनों का तालमेल नहीं बैठता। यह विसंगति कहीं कटुता उत्पन्न करती है, कहीं तिरस्कार उलीचती है, कहीं अवरोध उत्पन्न करती है, कहीं त्रास देती है। इसे उपेक्षापूर्वक देखना वैराग्य है और इस पर भी जो त्रास सहने पड़े उन्हें सन्तोष पूर्वक सहने का नाम तप है।

वैराग्य और पत के डाँडों के सहारे विवेकवान व्यक्ति अपनी साधना की नाव खेते हैं और सत्य के परम लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं।


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