शाखा संगठनों का उत्साह एवं प्रयत्न शिथिल न होने पाये

May 1972

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शाखा संगठनों को उन्होंने निर्देश दिया कि वे राहुल और अशोक की भूमिका सम्पादित करने में लग जायें। गौतम बुद्ध को जिस ‘बोधि वट वृक्ष’ के नीचे आत्म-ज्ञान प्राप्त हुआ था उसकी डालियाँ शाखायें काटकर बुद्ध के शिष्य राहुल, आनन्द और अशोक के नेतृत्व में एशिया के प्रायः समस्त देशों में ले गये थे और वहाँ आरोपण किया था, फलतः उन शाखाओं से उन देशों में भी विशाल ‘बोधि वट वृक्ष’ उग पड़े और उनने असंख्यों में श्रद्धा का सञ्चार किया।

हर शाखा अपने को बोधि वट वृक्ष की शाखा माने और यह सोचकर चले कि उसे स्वतन्त्र रूप से विशाल वट वृक्ष के रूप में परिणत होना है। स्थापना को शिथिल करके—अपने को—अपने संस्थापक को—उपहासास्पद नहीं बनाना है। मिशन में वे सभी तत्व मौजूद हैं जिनके कारण मनुष्यों के प्रत्येक वर्ग में—समाज के प्रत्येक पक्ष में—उसका स्वागत किया जाय। समय की माँग पूरी करने, उलझी हुई समग्र समस्याओं को हल करने तथा मानव जाति का भविष्य उज्ज्वल बनाने की समग्र सम्भावनायें इस योजना में सन्निहित हैं। अस्तु आरम्भ में कोई स्वल्प साधनों से इतना बड़ा कार्य होने की कठिनाई अवश्य व्यक्त कर सकता है पर मिशन के किसी पक्ष से असहमति या विरोध नहीं कर सकता। इसे जिस दूरदर्शी युग चिन्तन के आधार पर विनिर्मित किया गया है उसे जो कोई गम्भीरता पूर्वक समझने की चेष्टा करेगा उसे यह सर्वांग सुन्दर और शक्य संभव ही दिखाई देगी।

प्रश्न यह नहीं कि जनता उसे स्वीकार करेगी या नहीं—सहयोग देगी या नहीं—उसमें कमी होने की तो कोई आशंका ही नहीं है। सन्देह का कारण केवल कार्यकर्त्ताओं की शिथिलता ही हो सकता है जिसके कारण यह अंकुर प्यासा रह कर सूख जाय। गुरुदेव का संदेश शाखाओं के लिए यह था कि जहाँ भी स्थापना हुई है वहाँ उसे कार्यकर्त्ता अपने स्वेद बिन्दुओं से सींचते रहें, उसे मरने न दें। मरी हुई शाखा उन्हें उतनी ही कष्ट कर होगी जितनी किसी पिता को अपनी प्यारी और छोटी सन्तान की मृत्यु कष्ट कारक हो सकती है। यदि सींचना बन्द न किया जाय तो कोई शाखा कभी भी — किसी भी स्थिति में न तो मुरझाने पायेगी और न उसके ऊपर उदासी छायेगी।

बिहार के हजारी किसान की प्रेरणा प्रत्येक शाखा संगठन के ऊपर छाई रहनी चाहिए। एक अनपढ़ और साधनहीन किसान की लगन एवं तत्परता ने हजार आम के बगीचे लगाकर खड़े कर दिये और अपने नाम को हजारी बाग जिले के साथ जोड़कर अमर बना गया, वह लगन शाखा संचालकों में—परिवार के कर्मठ कार्यकर्त्ताओं में सजग और सजीव रहनी ही चाहिए। जो भी समाज का ऋण चुकाने की—युग की आवश्यकता पूरी करने में अपने योगदान की आवश्यकता अनुभव करेगा उसे दैनिक नित्य कर्मों में नव निर्माण के लिए भी कुछ करते रहने की प्रक्रिया को स्थान देना होगा। जो पेट और प्रजनन की क्षुद्रता में निमग्न हैं उन्हें वासना तृष्णा से आगे परमार्थ प्रयोजन सूझता ही नहीं, केवल वे ही फुरसत न मिलने या आर्थिक तंगी से घिर जाने का बहाना बना सकते हैं। मनुष्य जिस कार्य को महत्व देता है उसे सबसे पहले स्थान पर रखता है—टालमटोल तो उन बातों की की जाती है जो बेकार—बेगार—प्रतीत होती हैं। नव निर्माण अभियान को यदि निरर्थक नहीं समझा गया है उसके प्रति सच्ची लगन है तो घोर व्यस्तता के बीच भी उसके लिए समय निकलता रहेगा और घोर कठिनाइयों के बीच भी मिशन को सींचते रहना शक्य रहेगा। शाखा सदस्य इस कसौटी पर खरे ही उतरेंगे ऐसी विश्वास पूर्वक आशा की गई है।

इस वर्ष कुछ अधिक काम किया जाना चाहिए। गर्मी के दिनों में अध्यापक, किसान, व्यापारी प्रायः सभी अपेक्षाकृत कुछ फुरसत में रहते हैं इस फुरसत को मिशन का कार्य क्षेत्र और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने में लगाया जाना चाहिए। पत्रिकाएं जहाँ भी जाती है उन्हें कम से कम दस व्यक्ति अवश्य पढ़ें या सुनें तभी उसकी सार्थकता समझी जानी चाहिए। आन्दोलन का मार्ग दर्शन एवं प्रसार पाक्षिक युग-निर्माण योजना पत्रिका के द्वारा होता है, उसे अधिक लोग मँगायें—पढ़ें इस पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

चल पुस्तकालय हर शाखा की सजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वह कुछ भी कठिन नहीं है। हलके पहियों वाली धकेल गाड़ी कहीं भी मिल या बन सकती है। उसमें बहुत लागत नहीं आती। लगभग 100 रुपये में नई बन जाती है। इस पर तीन ओर सुन्दर बोर्ड लटका कर—ज्ञान रथ सजाया जा सकता है। पुरानी अखण्ड-ज्योति युग-निर्माण पत्रिकायें—ट्रैक्ट मोटे कागज के कवर चिपका कर इस गाड़ी पर रख लिये जायें और दो कर्मठ कार्यकर्त्ता अपने अवकाश के समय उसे अपने गाँव, नगर में घुमाने—जन संपर्क बनाने, मिशन का प्रयोजन समझाने और विज्ञप्तियाँ अथवा अंक पढ़ने देने पीछे वापिस लेने का क्रम चलाने लगें तो समझना चाहिए अपना कार्य क्षेत्र विस्तृत होने का द्वार खुल गया।

बड़े रूप में यह चल पुस्तकालय सुन्दर, सुसज्जित गाड़ी और पढ़ाने तथा बेचने के लिए समुचित साहित्य मँगाने पर एक हजार रुपये लागत आयेगी। पर प्रारम्भ तो नई 100 रुपये या पुरानी 50 रुपये की गाड़ी लेकर भी किया जा सकता है अंक तथा ट्रैक्ट अन्य सदस्यों से माँगकर संग्रह किये जा सकते हैं। जैसे भी हो हर शाखा को अपने यहाँ समर्थ या दुर्बल चल पुस्तकालय खड़े कर ही लेने चाहिएं और उन्हें भले ही अवकाश के समय या छुट्टी के दिन चलाया जाया करे—भले ही एक ही व्यक्ति लिये फिरे पर उसका आरम्भ तथा सञ्चालन अवश्य ही होना चाहिए।

युग-निर्माण शाखा के सभी सक्रिय सदस्यों को अपने वहाँ ज्ञानघट स्थापित कर लेने चाहिएं। इससे नियमितता रहती है और अपने कर्त्तव्य का नित्य स्मरण रखने का अवसर मिलता है जहाँ दस सदस्य हैं उस शाखा को हजारी आन्दोलन के अंतर्गत उपवन की और जहाँ चौबीस सदस्य हैं उसे उद्यान की संज्ञा दी गई है। यों संगठन की स्थापना तो दो सदस्यों पर भी हो सकती है और वे दो भी टोली बनाकर—झोला पुस्तकालय चलाने के लिये, जन संपर्क के लिये प्रचार अभियान पर निकलते रह सकते हैं पर प्रयत्न यही रहना चाहिए कि हर शाखा में दस सक्रिय सदस्य तो हो ही जायें। इस संख्या में जो कमी रह गई हो उसे इन्हीं गर्मियों में पूरा कर लेना चाहिए।

जहाँ अपनी विचार धारा का विस्तार, सम्मान तो बहुत है। पर संगठन नहीं बना है वहाँ यह प्रयत्न किया जाना चाहिए कि सम्बद्ध व्यक्ति शाखा सूत्र में आबद्ध होकर संगठित हो जायें कहना न होगा कि यह संगठन का युग है, इसमें संघ शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। युग परिवर्तन के लिये इस चेतना को विकसित करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

‘बोलती दीवारें’ आँदोलन हर जगह बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुआ है उससे सहज ही अनेक व्यक्तियों को चेतना प्रेरणा एवं दिशा मिलती है। अवकाश के दिनों में प्रेरणाप्रद वाक्य दीवारों पर लिखने के लिए लग जाना चाहिये। इस संदर्भ में एक नया प्रयोग यह हुआ है कि दुरंगे छोटे पोस्टर छपाये गये हैं जो घर दुकानों की किवाड़ों पर, खंभों पर चिपकाये जा सकते हैं। यह उपक्रम दीवारों पर लिखने के समान ही आकर्षक एवं प्रभावशाली है। आवश्यकतानुसार यह पोस्टर मथुरा से मँगाये जा सकते हैं और उन्हें चिपका कर पूरा नगर मूक किन्तु प्रभावशाली उपदेशक के रूप में खड़ा किया जा सकता है। जिस प्रकार विविध संस्थाओं वाले लोग चन्दा माँगने निकलते हैं, उसी तरह परिजन टोलियाँ बनाकर सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने, दुष्प्रवृत्तियाँ छोड़ने का भावनात्मक धन संग्रह करने के लिये निकला करें। जन संपर्क बनायें और लोगों को समझायें। जो किसी बात से सहमत हो जायें उनसे उस प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करा लें और धन्यवाद की रसीद दे दें। यह प्रतिज्ञा फार्म और रसीदें मथुरा में उपलब्ध हैं उन्हें मँगाया जा सकता है और टोलियाँ बनाकर ‘भावना संग्रह’ के लिये निकला जा सकता है। धन संग्रह द्वारा सम्पन्न होने वाले परमार्थ प्रयोजनों की अपेक्षा यह बिना पैसा संग्रह का अभियान लोक मंगल की दृष्टि से कम नहीं वरन् अधिक ही उपयोगी है।

एक घण्टा समय देने की शर्त भी दस पैसे देने की तरह प्रायः सभी सदस्यों को पालन करनी पड़ती है। उस, समय-दान से सुशिक्षित व्यक्ति रात्रि को युग-निर्माण पाठशाला चला सकते हैं। यदि ऐसी महिलाएं भी परिवार में हैं तो वे अपने समय को तीसरे प्रहर महिलाओं की पाठशाला चलाने में लगा सकती हैं। इन पाठशालाओं की छपी पाठ्य पुस्तकों द्वारा प्रशिक्षित छात्र छः-छः महीने बाद परीक्षाएं देते हैं और उन्हें सुन्दर प्रमाण पत्र मिलते हैं। यह प्रशिक्षण क्रम प्रायः हर शाखा में चलाया जाना चाहिए।

जहाँ कम सदस्य हैं वहाँ तो नहीं, पर जहाँ अधिक सदस्य हैं वहाँ ज्ञानघटों का एक तिहाई धन ऐसे कार्यकर्त्ताओं के पारिश्रमिक के लिये भी रखा जा सकता है यह ज्ञान घट का धन एकत्रीकरण, बदले में साहित्य पहुँचाने, दीवारें लिखने, पाठशाला, चल पुस्तकालय आदि के कार्यों में लगाया करें। यदि मिशन से परिचित, सेवा भावी—कार्य कुशल कार्यकर्त्ता इस प्रकार कुछ पारिश्रमिक देकर रख लिया जाय तो उसकी नित्य की नियमित गति विधियाँ बहुत ही प्रभाव शाली सिद्ध हो सकती हैं, शाखा के कार्यक्रमों में आशाजनक गतिशीलता आ सकती है। वैसे यह कार्य सेवा भावी वानप्रस्थों और कर्मठ कार्यकर्त्ताओं को अवैतनिक रूप से करने का है पर जहाँ वैसा प्रबन्ध न हो सके वहाँ कुछ न होने की अपेक्षा—पारिश्रमिक देकर भी कराना अच्छा है।

पिछली बार वसन्त पर्व जिस श्रद्धा और तत्परता से मनाया गया उसे परिवार के जीवन काल में बहुत ही सफल प्रयोग कहा जा सकता है। इन आयोजनों में प्रायः 50 लाख जनता ने मिशन की विचार धारा से निकट संपर्क बनाया और उसमें सहयोग देने की उत्सुकता प्रकट की। इन आयोजनों का क्रम आगे भी रखा जाना चाहिए। चुने हुए पर्वों को सामूहिक समारोह के रूप में उसी प्रकार प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाया जाना चाहिए। (1) वसन्त पर्व (2) राम नवमी (3) गायत्री जयन्ती (4) श्रावणी (5) विजय दशमी (6) गीता जयन्ती। यह छः पर्व प्रायः दो-दो महीने के अन्तर से आते हैं इन्हें बसन्त पर्व जैसी तैयारी के साथ मनाया जाता रहे तो जन जागरण का महान प्रयोजन सहज ही सर्वत्र पूरा होने लगेगा। इससे अपने क्षेत्र में ही ऐसे वक्ता और गायक उत्पन्न किये जा सकेंगे जो समय-समय पर युग परिवर्तन सम्बन्धी विचार धारा को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकें। भविष्य में सर्वतोमुखी परिवर्तन लाने के लिए व्यापक रूप से जन आँदोलन खड़े करने पड़ेंगे। उनके लिए पर्व मनाने की प्रक्रिया एक पूर्व तैयारी और अनुभव एकत्रित करने की पाठशाला सिद्ध हो सकती है।

अगला पर्व गायत्री जयन्ती गंगा दशहरा का— जेष्ठ सुदी दशमी तदनुसार ता0 21 जून को आ रहा है। उसे मनाने की अभी से तैयारी की जानी चाहिए। कुछ सप्ताह ही शेष हैं। इतने दिनों में यदि उत्साह पूर्वक तैयारी की जाय तो उसे वसन्त पर्व से घट कर नहीं वरन् बढ़ कर ही मनाया जा सकता है। प्रभात फेरी, सामूहिक जप, हवन, कीर्तन, दीप दान की प्रक्रिया सामान्य है। गंगावतरण का चित्र बाजार से खरीद कर शीशे में मढ़ा लेना चाहिए गायत्री माता का चित्र तो प्रायः सभी शाखाओं में होगा। इन दोनों की एक चौकी पर स्थापना करके स्त्री सूक्ष्म मंत्रों से षोडशोपचार पूजन करें और अन्त में उपस्थित लोग फूलों की अथवा चन्दन, केशर से रंगे पीले चावलों की पुष्पाञ्जलि चढ़ाएं। कर्म काण्ड इतना भर है। इसका अनुभव सभी को है।

बात केवल संगीत प्रवचन की रह जाती है। सो उसके लिए भी स्थानीय क्षेत्र में इसकी ढूँढ़-तलाश करनी चाहिये। पत्रिकाओं के पीछे छपती रहने वाली तथा अपनी कविता पुस्तकों में प्रकाशित गायनों में से कोई गायन गायक तैयार कर सकते हैं। प्रवचन कर्त्ताओं के लिये इस पर्व पर दिये जाने वाले प्रवचनों के सूत्र संकेत युग-निर्माण पाक्षिक में पढ़ लेने चाहिएं। मंच, मण्डप, फर्श, लाउडस्पीकर आदि की व्यवस्था हर जगह आसानी से हो सकती है और टोली बनाकर घर-घर आमन्त्रण देने तथा बुलाने के लिये कार्यकर्त्ता निकल पड़ें तो उस आह्वान पर जनता की उपस्थिति भी आशाजनक हो सकती है। इस प्रकार जहाँ अभी से ध्यान दिया जायगा और प्रयत्न किया जायगा वहाँ गायत्री जयन्ती पर्व भी बहुत शान से सम्पन्न होगा। आशा की जानी चाहिये कि वसन्त पर्व की अपेक्षा कहीं अधिक जनता उस आयोजन से लाभाँवित होगी।

इससे आगे भी अन्य पर्व इसी क्रम से मनाये जाते रहें तो एक दो वर्ष में ही जनता उसकी अभ्यस्त हो जायगी और वह परम्परा अनायास ही अपने ढर्रे पर लुढ़कते हुए—नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान का—जन जागरण का पुण्य प्रयोजन पूरा करती रह सकती है।

इस वर्ष उपरोक्त सभी कार्यों पर ध्यान दिया जाना चाहिए और शाखा संगठन की गति विधियों में गति भरते रहना चाहिए। सक्रिय सदस्यों का—कर्मठ कार्य कर्त्ताओं का ध्यान इस ओर बना रहे तो उसकी थोड़ी सी भावना एवं तत्परता इन सहज सरल से कार्यों को बात की बात में पूरा करती रह सकती है। जहाँ अन्यमनस्कता उदासी एवं उपेक्षा होगी वहाँ कागजी शाखा ही बनी रहेगी काम कुछ भी दृष्टिगोचर न होगा।

विदाई समारोह में गुरु देव ने एक बात पर बहुत जोर दिया था कि शाखाओं में समर्थता विकसित करने के लिये गायत्री यज्ञों के आयोजन किये जायें। उसे बड़ी शाखाओं ने तो निभा लिया पर छोटी शाखाएं उतना साहस न कर सकीं। उनके लिए पर्व मनाने की प्रक्रिया को बड़े यज्ञ का विकल्प बना दिया गया है। छह पर्वों पर छह बार में मिला कर एक बड़े यज्ञ से कम नहीं वरन् अधिक ही कार्य होगा। सरल भी पड़ेगा। जहाँ पर्व मनाये जाने लगें वहाँ समझा जाना चाहिए कि विदाई समारोह के अवसर पर किया गया अनुरोध भली प्रकार पूरा कर लिया गया।

समर्थ शाखाओं के पास प्रचार उपकरण होने चाहिएं जिससे वे अपने क्षेत्र में व्यापक रूप से इस प्रकाश को फैला सकें। पूरी योजना में कई उपकरण रखे गये थे और कई हजार का खर्च था, अब शाखाओं की स्थिति देखते हुए उसे भी हलका कर दिया गया है। स्लाइड प्रोजेक्टर (रंगीन प्रकाश चित्र यंत्र सिनेमा) तीन दिन तक डेढ़ घंटा रोज इस सिनेमा को दिखा सकने योग्य 150 स्लाइडें तथा छोटा लाउडस्पीकर बैटरी मिलाकर लगभग एक हजार या उससे कुछ ही अधिक खर्च आयेगा। यह बिजली और बैटरी दोनों से चल सकेगा इसलिये इसकी उपयोगिता उन छोटे देहातों में भी होगी जहाँ बिजली नहीं है। यह सारे उपकरण एक साइकिल पर भले प्रकार ले जाये जा सकेंगे और वक्ता स्वयं भी उसी पर बैठकर एक रात को एक गाँव के क्रम से उस माध्यम से सारे क्षेत्र में मिशन का प्रकाश फैला सकेगा और उत्साह की नई उमंग पैदा कर सकेगा। यह उपकरण जल्दी ही बनकर तैयार हो रहे हैं। इनके लिये एक हजार रुपये की राशि की अभी से व्यवस्था सोचनी और करनी चाहिए।

आशा की गई है कि समस्त शाखा संगठन अपनी प्रखरता बनाये रहेंगे और उत्साह में कार्यक्रमों में किसी प्रकार की शिथिलता न आने देंगे।


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