आत्मोत्कर्ष के लिए उपासना की अनिवार्य आवश्यकता

May 1972

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शरीर को नित्य स्नान कराना पड़ता है, वस्त्र नित्य धोने पड़ते हैं, कमरे में बुहारी रोज लगानी पड़ती है और बर्तन रोज ही माँजने पड़ते हैं। कारण यह है कि मलीनता की उत्पत्ति भी अन्य बातों की तरह रोज ही होती है। एक बार की सफाई सदा का काम नहीं चला सकती। मन को एक बार स्वाध्याय, सत्संग चिन्तन, मनन आदि से शुद्ध कर दिया जाय तो समाधान होने के बाद भी वह सदा उसी स्थिति में बना रहेगा ऐसी आशा नहीं की जानी चाहिए।

अभी आकाश साफ है अभी उस पर धूलि,आँधी,कुहरा, बादल छाने लगें तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं। एक बार का समझा-समझाया हुआ मन सदा उसी निर्मल स्थिति में बना रहेगा इसका कोई भरोसा नहीं। मलीनता शरीर, वस्त्र, बर्तन, कमरे आदि को ही आये दिन गन्दा नहीं करती मन को भी प्रभावित आच्छादित करती है इसलिये यह आवश्यक समझा गया है कि अन्य सब मलीनताओं के निवारण की तरह मन पर छाने वाली मलीनता का भी नित्य परिष्कार आवश्यक एवं अनिवार्य मानकर चला जाय और उस परिशोधन को नित्य कर्मों में स्थान दिया जाय। उपासना का यही प्रयोजन है।

यह समझना भूल है कि पूजा करना ईश्वर पर ऐसा अहसान करना है जिसके बदले में उसे हमारी उचित अनुचित मनोकामनायें पूरी करनी चाहियें। ओछे स्तर के लोग ऐसा ही सोचते हैं और इसी प्रलोभन से पूजा-पत्री का औंधा-सीधा ठाठा रोपते हैं। आधार ही गलत हो तो बात कैसे बने - पार कैसे पड़े? पूजा करने वालों से दोस्ती और न करने वालों से ‘कुट्टी’। यदि ऐसी रीति नीति अपनाने लगे तो फिर ईश्वर को समदर्शी कैसे कहा जा सकेगा? फिर संसार में कर्तव्य और पुरुषार्थ की आवश्यकता क्या रहेगी? यदि पूजा द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करके मनोकामनाएं पूर्ण की जा सकती हैं तो फिर इतने सस्ते और सरल मार्ग को छोड़कर क्यों कोई कष्ट साध्य गति-विधियाँ अपनाने को तैयार होगा? यदि यह तथ्य सही होता तो मन्दिरों के पुजारी सर्व मनोरथ सम्पन्न हो गये होते और साधु पण्डित जो ईश्वर का ही झण्डा उठाये फिरते हैं सर्व कामना सम्पन्न रहे होते। फिर उन्हें अभाव असन्तोष क्यों सताता? प्रत्यक्ष है कि यह वर्ग और भी अधिक दयनीय स्थिति में है। कारण कि उपासना को कामना पूर्ति का माध्यम समझा गया और आवश्यक कर्म निष्ठा से मुँह मोड़ लिया गया। इस गलत आधार को मान्यता मिल जाने से आस्तिकता का उपकार नहीं हुआ वरन् उसे असत्य और संदिग्ध मानने की अनास्था ही बढ़ी।

प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को मन की-जीवन की स्वच्छता को अत्यधिक महत्व पूर्ण मानना चाहिए और उसका साधन जुटाने के लिये उपासना का अवलम्बन लेना चाहिये। मन असीम क्षमताओं का भंडार है वह यदि मलीनताओं से भर जाय तो हमें अपार क्षति उठानी पड़ेगी। दाँत साफ न किये जायें तो उनमें कीड़ा लग जायगा और मुँह से बदबू आयेगी। शरीर को स्नान न करायें तो चमड़ी पर जमा हुआ मैल अनेक बीमारियाँ पैदा करेगा। मशीनों की सफाई न की जाय तो पुर्जों में जमा हुआ कीचड़ उनका ठीक तरह से काम करना ही असम्भव कर देगा। सफाई अपने आप में एक आवश्यक कर्म है। मेहतर, धोबी, कहार जैसे अनेक वर्ग इन्हीं कामों में जुटे रहते हैं। साबुन, फिनायल बनाने की फैक्ट्रियों से लेकर दन्त मञ्जनों तक के विशालकाय कारखाने गन्दगी के निराकरण के साधन बनाने में ही लगे रहते हैं। मन इन सबसे ऊपर है यदि उस पर निरन्तर चढ़ते रहने वाली मलीनता की उपेक्षा की गई तो वह बढ़ते चढ़ते इतनी अधिक हो जायगी कि हमारा अन्तरंग ही नहीं बहिरंग जीवन भी अव्यवस्थाओं और अवाँछनीयता से भरा-घिरा दीखेगा।

उपासना को नित्य कर्म में सम्मिलित करने की आवश्यकता इसीलिए पड़ती है कि आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्बाध गति से चलता रहे। नित्य का अभ्यास ही किसी महत्व पूर्ण विषय में स्थिरता और प्रखरता बनाये रह सकता है। यदि पहलवान लोग नित्य का व्यायाम छोड़ दें, फौजी सैनिक परेड की उपेक्षा कर दें तो फिर उनकी प्रवीणता कुछ ही दिन में अस्त-व्यस्त हो जायगी। स्कूली पढ़ाई छोड़ने के बाद जिन्हें फिर कभी पुस्तकें उलटने का अवसर नहीं मिलता वे उस समय के सारे प्रशिक्षण को भूल जाते हैं। याद केवल उतना ही अंश रहता है जितना काम में आता रहता है। मन की भी यही स्थिति है, वह पशु प्रवृत्तियों के निम्नगामी प्रवाह में तो अनायास ही बहता रहता है, पर यदि उसे उच्च स्तर पर बनाये चढ़ाये रहना हो तो पतंग उड़ाने वालों की तरह बहुत कुछ पुरुषार्थ करना होता है। पानी को कुँए से निकालने टंकी तक पहुँचाने में नित्य ही प्रयत्न करना पड़ता है पर नालियाँ अपने आप चलती रहती हैं। गिरा हुआ पानी अपने आप नीचे ढुलकता जाता है और उसको बिना किसी यन्त्र मशीन या प्रयास के नालियाँ बहाती रहती हैं। निकृष्ट बनना हो तो संचित पशु प्रवृत्ति को स्वच्छन्द छोड़ देना पर्याप्त है वे जीवन वृक्ष पर अमर बेल की तरह छा जायेंगी पर यदि उत्कृष्टता का उद्यान लगाना हो तो उसके लिए चतुर माली जैसा कला कौशल एवं मनोयोग नियोजित करना पड़ेगा। उपासना मनःक्षेत्र को सुरभित उद्यान की तरह फल फूलों से सदा लदा हुआ बनाने के कुशल पुरुषार्थ की तरह ही समझी जानी चाहिए। वस्तुतः मनोकामनायें पूर्ण करने का यह विवेक संगत एवं यथार्थ मार्ग है मन देवताओं का भी देवता है। यदि उसे साध सँभाल लिया जाय तो वह कल्पवृक्ष से कम नहीं अधिक ही उपयोगी एवं वरदानी सिद्ध होता है। उपासना इस मन कल्पवृक्ष को सुविकसित बनाने की वैज्ञानिक विधि व्यवस्था का ही नाम है।

आत्मोत्कर्ष में अभिरुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उपासना को अपने नित्य क्रम में सम्मिलित करना ही चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि हम ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं फिर उपासना की क्या जरूरत। लुहार, बढ़ई, मूर्तिकार आदि शिल्पी अपने योजन में लगे रहते हुए भी यह आवश्यक समझते हैं कि उनके औजारों पर जल्दी-जल्दी धार धरी जाती रहे। नाई अपने काम में ठीक तरह लगा रहता है पर उस्तरा तो उसे बार-बार तेज करना पड़ता है। मन ही वह औजार है जिससे क्रिया कलापों को ठीक तरह करते रह सकना सम्भव होता है। यदि यह भोथरा होने लगे तो फिर कर्तृत्व का स्तर भी गिरने लगेगा इसलिए जहाँ अन्य अन्य अनेक कार्यों में समय लगाया जाता है वहाँ मन की मलीनता को स्वच्छ करने और उसे प्रखर बनाने के प्रयास को भी नित्य का एक आवश्यक कर्तव्य माना जाना चाहिए। पेट की भूख बुझाने के लिए बार-बार भोजन करना पड़ता है। आत्मा की भूख बुझाने के लिये भी उसे उपासना का आहार बार-बार नित्य ही- दिया जाना आवश्यक है।

गुरुदेव ने स्वयं अपने जीवन क्रम में उपासना को सर्वोच्च स्थान दिया। वे कहते थे पुरुषार्थ की प्रखरता में उपासना अत्यधिक सहायक होती है, उसे समय नष्ट करने वाली बाधा नहीं माना जाना चाहिए। पर लौकिक पुरुषार्थ में अधिक उत्कृष्टता लाने के लिये अपने समय का एक अंश उपासना में नियमित रूप से लगाना चाहिए। धुले कपड़े पर टिनोपाल लगा देने से-लोहा करने से और भी सुन्दरता आ जाती है। निर्मल और उज्ज्वल जीवन क्रम रहते हुए भी यदि उपासना का अवलम्बन ग्रहण किया जायगा तो उसमें लगे हुए समय की कहीं अधिक सुन्दर सुव्यवस्था जीवन क्रम में विकसित होगी। शर्त यही है कि उपासना मात्र कर्म काण्ड होकर न रह जाय उसमें भावना के समन्वय की प्राण प्रतिष्ठा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहे।

अपने संपर्क क्षेत्र के प्रत्येक व्यक्ति से गुरु देव सदा यह आग्रह करते रहे-परामर्श देते रहे कि वे उपासना को अपने जीवन क्रम में एक नियमित नित्य कर्म को स्थान अवश्य दें। इस बार भी जब वे आये तो यह कहना न भूले कि सम्बद्ध परिजनों को उपासना क्रम में व्यवधान उत्पन्न न होने देने के लिए सचेत करते रहा जाय। जिनने अभी तक यथाक्रम उसे अपनाया नहीं है उनसे उस ओर कदम बढ़ाने के लिये अनुरोध किया जाय। हर विचारशील को समझाया जाय कि यह समय की बर्बादी नहीं वरन् उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की महत्व पूर्ण प्रक्रिया है।

अधिक प्रभावशाली साधनायें-तपश्चर्याएं अनेक हैं। उन्हें कार्यान्वित एवं फलित करने की सम्भावना तभी रहेगी जब प्रारम्भिक उपासना क्रम ठीक से चलने जमने लगे। एक दम उछल कर चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण, समाधि, ईश्वर दर्शन जैसे प्रसंगों के लिए लालायित होना मञ्जिल पार करने का राजमार्ग है। यदि ऐसा न होता तो स्वयं गुरु देव को क्यों पैंतालीस वर्ष पापड़ बेलने पड़ते और अब इस वृद्धावस्था में भी क्यों अपने को इस तरह धुनते। कोई जादू ही तुर्त-फुर्त चमत्कार दिखा सकता है, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि वह जल्दबाजी का जादू अस्थिर होता है। बाजीगर दस मिनट में झोली में से गुठली से आम का पौधा और उस पौधे पर फल लगा देता है पर वह छलावा भर होता है यदि वह बात वास्तविक होती तो बाजीगर पैसे-पैसे को हाथ न फैलाता-अब तक आमों का विशाल व्यापार करके लखपति करोड़पति बन गया होता।

कतिपय बहुमूल्य परामर्श गुरु देव समय-समय पर सम्बन्धित व्यक्तियों को देते रहे हैं। इस बार उन्होंने फिर उस परामर्श को दुहराया और कहा जिन पर अपना कुछ प्रभाव हो उनसे अनुरोध ही नहीं आग्रह स्तर पर भी उपासना में नियमितता बनाये रखने या आरम्भ करने के लिए कहा जाय। जो कर रहें हैं उनसे कहा जाय कि भले ही वे अपनी पूजा विधि के बाहरी स्वरूप को अपनी रुचि और परम्परा के अनुसार बनाये रहें पर उसमें भावना का प्राण अवश्य जोड़ें। अनेक मत मतान्तरों की पूजा प्रक्रिया भिन्न हो सकती है। पर उनके भीतर भावनात्मक तथ्य तो समुचित मात्रा में रहना ही चाहिए। जब तक गायत्री परिवार के संगठन का- गायत्री के महामंत्र के प्रचार विस्तार का उत्तरदायित्व का कार्य उनके कंधों पर था तब तक वे केवल गायत्री मन्त्र की महिमा और विधि ही बताया करते थे पर अब जबकि विश्वव्यापी भावनात्मक नव निर्माण का उच्च स्तरीय कार्य उन्हें सौंपा गया है तो उन्होंने विभिन्न रुचियों और मान्यताओं के अनुरूप चली आ रही परम्पराओं के समन्वय में कुछ कहना बन्द कर दिया है। उनका स्वयं का अटूट विश्वास एवं साधना क्रम अभी भी गायत्री मन्त्र ही है क्योंकि इससे बढ़कर समर्थ माध्यम उन्हें दूसरा दीखता नहीं। फिर वे दूसरों को अपनी रुचि पर चलने में भी बाधक नहीं बनते और कहते हैं कि यदि भावना की मात्रा अभीष्ट मात्रा में जुड़ी रहे तो कोई भी विधि व्यवस्था मानसिक परिष्कार में सहायक हो सकती है।

उपासना क्रम के अभ्यासियों को उच्चस्तरीय अनुदान भी साधना क्षेत्र में मिल सकते हैं। सम्भव है अगले दिनों उन्हें अपने तप अंश का कुछ प्रत्यावर्तन जीवन्त आत्माओं में करना पड़े इस बीज बोने का ठीक परिणाम निकले। इसके लिये यह आवश्यक है भूमि जोतने और उसमें नमी रखने का प्रयास पहले से ही चलता रहा हो। जो भूमि न जोती गई है-न जिसमें खाद पानी की मात्रा है उसमें बहुमूल्य बीज या पौधे का आरोपण भी निरर्थक चला जायगा। इसलिए आवश्यक है कि इस दिशा में प्रगति की सच्चे मन से आकाँक्षा करने वाले अपने नित्य कर्म में उपासना की प्रक्रिया को सम्मिलित कर लें।


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