सूर्य देवता एक दिन अपने अनवरत सेवा कार्य के सम्बन्ध में लोगों की क्या मान्यता है यह जानने के लिये जन समूह में वेष बदल कर जा मिले।
एक कह रहा था, बेचारे को छुट्टी भी नहीं मिलती। दूसरे ने कहा अभागे को एक दिन की जिन्दगी मिलती है रोज जीता और रोज मरता है। तीसरे ने उन्हें आग उगलने वाला निर्जीव पिण्ड मात्र बताया। लोगों की जैसी आदत है। निन्दा करने की-दोष ढूंढ़ने की सो ही वे सूर्य के सम्बन्ध में भी चरितार्थ कर रहे हैं, प्रशंसा करने वाला एकाध ही मिला। बहुत तो निन्दा करने वाले ही थे। सूर्य नारायण को इस कृतघ्नता पर बहुत दुख हुआ जिनके लिये इतना कष्ट सहते हैं और निस्वार्थ सेवा में लगे रहते हैं, उनके मुख से दो शब्द प्रशंसा के भी न निकले। ऐसे लोगों की सेवा करना व्यर्थ है। उन्होंने दूसरे दिन उदय होने से इन्कार कर दिया।
उनकी पत्नी शची ने जब पति देव के कर्म विमुख होने का समाचार पाया तो उनके पास पहुँची और विनीत होकर कहा- क्षुद्रता का काम ढेला फेंकना और महानता का काम उन्हें झेलना है। कोई कितने ही ढेले फेंके समुद्र में वे डूबते ही चले जाते हैं। सहन शीलता उन्हें उदरस्थ करती जाती है। ढेले का प्रहार तो घड़े नहीं सह पाते वे एक ही चोट में टूट जाते हैं। नाथ, आप समुद्र हैं, घड़े का अनुकरण क्यों करते हैं। सूर्य देव ने अपनी गरिमा को समझा और अपने रथ पर सवार होकर नित्य की तरह अपनी यात्रा पर चल दिये।