लोक मानस के परिष्कार पर अवलम्बित

May 1972

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देश और समाज को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने के संदर्भ में गुरुदेव ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि- “व्यक्तिगत जीवन में सन्तोष उल्लास और उत्कर्ष की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए अध्यात्म का आवेश कितना आवश्यक है। तत्व-दर्शन के अवलम्बन से ही दृष्टिकोण का विकास होता है, चिन्तन में प्रखरता आती है। इसी पृष्ठ भूमि में गुण-कर्म और स्वभाव की परिष्कृत परिपक्वता का समावेश होता है। संयमी, सदाचारी, संतुष्ट, कर्मठ, कर्तव्य परायण व्यक्ति अध्यात्म विचारणा के आधार पर ही विनिर्मित और विकसित होता है। आन्तरिक परिपक्वता ही जीवन-क्रम को सरल और सुखद बनाती है। उसी स्तर का व्यक्ति चैन से रहने और संबंधित व्यक्तियों को चैन से रहने देने की स्थिति में होता है। चिन्तन में शालीनता, व्यवहार में सहृदयता और गतिविधियों में प्रखरता उच्चस्तरीय चिन्तन के बिना आ ही नहीं सकती। यदि यह अभाव दूर न हो सके तो कोई व्यक्ति सम्मान और श्रद्धा का भाजन न बन सकेगा। सच्चा सहयोग और स्नेह किसी का भी उपलब्ध न कर सकेगा। इन जटिलताओं से ग्रसित व्यक्ति किसी भी दिशा में ठोस उन्नति नहीं कर सकता। तब या तो उसे अविकसित पशु-जीवन जीना पड़ता है या महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति उद्धत आचरण से करनी पड़ती है।

व्यक्ति का विकास ‘कला’ नहीं विद्या है, इस प्रकार के कला-कौशल में छली और पाखंडी निष्ठागत होते हैं, उनका व्यवसाय ही इस हथकण्डे पर चलता है कि आरम्भ में मधुर सम्भाषण और प्रामाणिक आचरण का परिचय देकर कैसे किसी को आकर्षित करें और फिर उसके प्रिय विश्वास पात्र बन कर कैसे विश्वासघाती छुरी चलायें। यह कला अब कोई छिपा रहस्य नहीं रही। इन हथकंडों को किसी भी छल व्यवसायी को पास से देखकर सहज ही जाना जा सकता है। पाश्चात्य जगत में इस विषय की ढेरों पुस्तकें छप रही हैं। नर-नारी को-नारी-नर को झूठे प्रणय में बाँधकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए किस प्रकार संभाषण, पत्र-व्यवहार एवं हावभाव तथा गतिविधियाँ अपनायें, यह कला पाश्चात्य जगत का एक महत्वपूर्ण शास्त्र बन गया है। इससे अपरिचित भोले भाले नर-नारी वहाँ बेमौत मारे जाते हैं। इस प्रकार आर्थिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किस प्रकार दूसरों की चापलूसी, प्रशंसा की जाय, कैसे आश्वासन प्रलोभन या झाँसा दिया जाय इस प्रकार की ढेरों पुस्तकें बाजार में बिकती हैं। यह लोकप्रिय कला-अध्यात्म के उच्च आदर्शों की विडम्बना भर है। भ्रम में डाल कर किसी को हीरे के बदले काँच भी चपेका जा सकता है पर यह छद्म भी होता असली हीरे की दुहाई देकर ही है।

अध्यात्म असली हीरा है। जिसने उसे अपनी विचारणा और गतिविधियों में समाविष्ट कर लिया सचमुच वह हीरा ही हो गया। हीरा ही नहीं उसे तो पारस भी कहा जा सकता है। ऐसा व्यक्ति अटूट लोक श्रद्धा का भाजन बनता है। कहना न होगा जिसके पीछे लोक श्रद्धा का बल है उसके लिए संसार की किसी भी दिशा में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त करते चले जाना तनिक भी कठिन नहीं है। अन्तःकरण की तुष्टि भी आन्तरिक गरिमा से ही होती है। तीन चौथाई शान्ति को खा जाने वाले मनोविकारों से भी इसी आधार पर बचा जा सकता है। पग-पग पर खड़ी दीखने वाली अड़चनें और उलझनें भी परिष्कृत दृष्टिकोण ही सुलझाता सरल बनाता है। आधि-व्याधि भरे शोक-संताप-कष्ट क्लेश, दुख-दारिद्रय, से सुरक्षित केवल वे ही रह सकते हैं जिन्होंने अध्यात्म की छत्रछाया का आश्रय ग्रहण कर रखा है। मानव-जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अध्यात्म अवलम्बन के अतिरिक्त और कोई मार्ग है ही नहीं।

इसे एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अध्यात्म की संजीवन विद्या आज विकृत और उपहासास्पद रूप में प्रस्तुत हो रही है। धर्म व्यवसायियों ने उसे कैसा विकृत कुरूप एवं दुरूह बनाया है इसे देखकर रोना आता है। भोले लोग किस प्रकार उस आडम्बरी जंजाल में उलझ कर अपना समय, धन और मनोयोग नष्ट कर रहे हैं यह कथा और भी अधिक करुणाजनक है। इन दिनों की इस दुर्गति के रहते हुए भी यथार्थता के तत्व-ज्ञान में कोई अन्तर नहीं आता। प्राचीन काल की तरह आज भी यदि कोई उसके वास्तविक स्वरूप को समझने और अपनाने का साहस करे तो दिखेगा कि यह व्यक्तित्व के समग्र विकास की-प्रगति के सर्वतोमुखी आधार की अत्यन्त महत्वपूर्ण और अति प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। सच्चा अध्यात्मवादी ही सच्ची प्रगति का चिरस्थायी आनन्द उपलब्ध कर सकता है।

व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त सामूहिक जीवन का- समाज-व्यवस्था का क्षेत्र आता है। किसी देश समाज या राष्ट्र को किस प्रकार समर्थ समुन्नत बनाया जा सकता है इसके लिए विविध स्तरों पर विविध प्रकार के चिन्तन एवं प्रयोग किये जा रहे हैं। सो उचित भी है। क्योंकि व्यक्ति की तरह समाज भी बहुमुखी है और उसकी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक साधनों को जुटाना ही पड़ेगा। शासन सैन्य उद्योग, व्यवसाय, नियन्त्रण, शिक्षा, कला, विज्ञान, कृषि, पशु पालन, चिकित्सा, विनोद प्रभृति अगणित आवश्यकतायें समाज की हैं और उनकी पूर्ति यथावत की ही जानी चाहिए। पर साथ ही यह भूल नहीं जाना चाहिए कि किसी भी समाज या राष्ट्र की समर्थता का-प्रगति का-प्रधान कारण उसका चरित्र एवं चिन्तन ही होता है। यदि यह घटिया और ओछा रहा तो तात्कालिक प्रगति के लक्षण भले ही चकाचौंध पैदा कर दें। भावनात्मक खोखला पन रहने पर तथा-कथित प्रगति बालू के महल की तरह तनिक-सा आघात लगने पर ढह जायेगी।

इस संदर्भ में विश्व इतिहास के पृष्ठ उलटने पर यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि जिन शासकों ने- जिन नेताओं ने अनैतिक आचरण अपना कर अपने वर्ग को लाभान्वित करने का- अपने समाज या राष्ट्र को समुन्नत बनाने का प्रयास किया वे क्षणिक उछाला लेकर सदा के लिए पतन के गर्त में विलीन हो गये। इसी प्रकार जो समाज नैतिक मर्यादाओं में उपेक्षा एवं अनास्था व्यक्त करने लगा वह विलासी भर बन कर रह गया। अनैतिक और उच्छृंखल आचरण अपना कर वह सुखी नहीं बन सका। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त होकर दुर्बल ही बनता चलता गया। नीति सदाचार की मर्यादायें शिथिल होते ही अपराधी प्रवृत्तियाँ अराजक हो उठती हैं और उस आन्तरिक विद्रोह में कोई राष्ट्र बाह्य आक्रमण से भी अधिक जर्जर हो जाता है।

सामाजिक एवं राष्ट्रीय प्रगति के अनेक पक्ष हैं और वे सभी कार्यान्वित किये जाने चाहिएं। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि मूलभूत राष्ट्रीय सम्पदा उस देश के नागरिकों की भावनात्मक एवं कर्मात्मक उत्कृष्टता ही है। इसके रहते कोई निर्धन समाज भी अपनी गौरव गरिमा बनाये रह सकता है। अपनी स्वतन्त्रता सुरक्षित रख सकता है। यदि इस सम्पदा में कमी आदि हो तो विशाल क्षेत्रफल विशाल जनसंख्या-विशाल सेना और विशाल साधनों वाले देश को भी अंतर्द्वंद्वों से जर्जरित दीन-दुर्बल एवं परमुखापेक्षी होकर रहना पड़ेगा।

पूर्वकाल में साधन अति स्वल्प थे, सम्पत्ति भी कम ही थी पर आन्तरिक स्तर ऊँचा रहने के कारण लोग उतने से ही स्वर्गोपम सुख-शान्ति पाते थे और देवोपम जीवन जीते थे। आज भौतिक दृष्टि से हम पूर्वकाल की अपेक्षा हजार गुने सुसम्पन्न हैं पर भावनात्मक हीनता के कारण वह समस्त प्रगति सुख के स्थान पर दुख को ही बढ़ा रही है। भेड़ियों की तरह मनुष्य एक दूसरे के रक्त पिपासु बने हुए हैं ऐसा साधनों के अभाव में नहीं-भावनात्मक स्तर की निकृष्टता के कारण हुआ है। ओछा मनुष्य, उपलब्ध, धन, ज्ञान, कौशल बल एवं साधन को पशु-प्रवृत्तियों के भड़काने में लगाये हुए हैं। फलतः बढ़ती हुई असुर वृत्ति पग-पग पर नरक के दृश्य उपस्थित करा रही है। उसका प्रभाव राष्ट्र को समर्थ नहीं दुर्बल ही बना रहा है।

राज सत्ता एवं अर्थ सत्ता विश्व की भौतिक स्थिति को प्रभावित कर सकती है। विज्ञान की प्रगति सुख सुविधायें बढ़ाने वाले उपकरण प्रस्तुत कर सकती है। बौद्धिक शिक्षा की प्रगति से मनुष्य की मस्तिष्कीय क्षमता बढ़ सकती है। पर इन सब साधनों का समन्वय हो जाने पर भी व्यक्ति का अन्तःकरण समुन्नत नहीं बनाया जा सकता। और यह भी असंदिग्ध है कि जब तक अन्तःभूमिका परिष्कृत न होगी तब तक न तो चिन्तन उत्कृष्ट बनेगा और न कर्तृत्व श्रेष्ठ बनेगा। यह न हो सका तो व्यक्ति ओछा-निकृष्ट ही बना रहेगा। ऐसी दशा में उसका आन्तरिक पिछड़ापन-असीम सुख-साधनों के रहते हुए भी उसे शोक-संताप ग्रस्त बनाये रहेगा। न वह स्वयं चैन से रहेगा न दूसरों को चैन से रहने देगा। दूध पीने पर सर्प का विष बढ़ने की तरह आन्तरिक दुष्टता साधनों की वृद्धि के साथ-साथ और भी अधिक भयंकर बनेगी। विनाश को सर्वनाश की दिशा में अग्रसर करेगी।

पूँजीवादी देश धन के अभिवर्धन को और साम्यवादी देश धन के वितरण को महत्वपूर्ण मान रहे हैं। दोनों वर्ग घुड़दौड़ में आगे निकलने की ओर जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं, विज्ञान के क्षेत्र में भी यही बाजी लगी हुई है। बुद्धि तन्त्र विकसित करने के लिए शिक्षा संस्थान भी कुछ उठा नहीं रख रहे हैं। जन-स्तर पर कला, शिल्प, विनोद, आरोग्य जैसे साधनों को अभिवर्धन पूरे उत्साह से चल रहा है। शुद्ध तन्त्र अपनी चरम सीमा को छू रहा है। इतने विकट प्रयास प्रगति के नाम पर ही हो रहे हैं।

इनका यदि सूक्ष्म विश्लेषण विवेचन किया जाय और प्रतिक्रिया को जाना जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि व्यक्ति की आन्तरिक उत्कृष्टता में वृद्धि न हो सकने के कारण यह समस्त भौतिक प्रगति व्यक्ति एवं समाज के अधःपतन में ही योगदान दे रही है। सुख-चैन, संतोष, उल्लास और स्नेह सद्भाव का क्रमशः अन्त ही होता चला जा रहा है। कारण कि मानवी अन्तः चेतना, उपलब्ध साधनों को निष्कृष्ट प्रयोजनों में ही प्रयुक्त कर रही है फलतः सर्वत्र अशान्ति की ही वृद्धि हो रही है।

कानून, कचहरी, पुलिस, जेल की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो यह निश्चित है कि नैतिक मूल्यों के प्रति अनास्थावान नागरिकों को अपराधी गतिविधियां अपनाये रहने से पूर्णतया रोका नहीं जा सकता। व्यसन और अपव्यय के अभ्यस्त व्यक्ति कितनी ही बड़ी आजीविका रहने पर भी आर्थिक तंगी से मुक्त नहीं हो सकते। असंयमी के लिए आरोग्य दुर्लभ है भले ही वह निरन्तर पौष्टिक औषधियाँ खाता रहे। कटुभाषी के मित्र देर तक नहीं रहेंगे भले ही वह उन पर कितना ही खर्च करता रहे। कुकर्मी की सन्तान सुसंस्कृत न बन सकेगी। भ्रष्टाचारी और कामचोर कर्मचारियों के रहते कोई शासन जन कल्याण नहीं कर सकता। पशु प्रवृत्तियाँ भड़काने वाले साहित्यकार कलाकार जिस देश में बढ़ेंगे वहाँ प्रजाजनों की दुष्टता पर नियन्त्रण न किया जा सकेगा।

शासन तंत्र ही सब कुछ नहीं है। धन की अभिवृद्धि ही सुख-शान्ति का आधार नहीं है। शिक्षा ही सदाचरण की मूल नहीं है। हमें गहराई तक विचार करना होगा कि जिन तथा कथित समुन्नत देशों में विज्ञान, शिक्षा, धन और साधनों का बाहुल्य है वहाँ के प्रजाजन क्यों दुष्प्रवृत्तियों में अधिकाधिक ग्रसित होकर क्यों सर्वनाश की ओर जा रहे हैं क्यों अपना और अपने राष्ट्र का भविष्य अन्धकार मय बना रहे हैं? खोज हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचायेगी कि वैयक्तिक चरित्र को राष्ट्रीय प्रगति का अंग न मानकर भारी भूल की गई। व्यक्तिगत जीवन में कुछ के करने की छूट-सामाजिक हस्तक्षेप से निजी जीवन को पृथक रखने का नारा हिप्पीवाद को जन्म दे रहा है उस नैतिक अराजकता को जन्म दे रहा है जो समाज-व्यवस्था का सर्वनाश करके रहेगी।

मनुष्य मशीन नहीं, उसे मात्र भौतिक साधनों के आधार पर ही सुसंचालित नहीं रखा जा सकता। उसमें चेतन भी है और उस चेतना को उत्कृष्ट चिन्तन एवं परिष्कृत वातावरण का पोषण न मिलेगा तो निश्चय ही मानवीय उत्कृष्टता समाप्त होती चलेगी और उस समाज की भी जड़ें खोखली करेगी।

राष्ट्र या समाज को सुस्थिर सुदृढ़ और समुन्नत रखने के इच्छुकों को भौतिक उन्नति की ही रट नहीं लगाये रहना चाहिए वरन् यह भी देखना चाहिए कि वैयक्तिक उत्कृष्टता को पोषण देने वाले आधार विकसित हो रहे हैं या नहीं। यदि उस ओर अपेक्षा बरती जा रही है तो समझना चाहिए प्रगति थोथी, खोटी और उथली है। उस प्रवंचना से मिथ्या मनबहलाव भले ही किया जाता रहे राष्ट्रीय उत्कर्ष का ठोस आधार न बनेगा। विचारशील समाज सेविका, दूरदर्शी देश भक्तों- और मानवता प्रेमी विश्व नागरिकों का कर्त्तव्य है कि वे आत्मिक प्रगति की बात सोचें। चरित्र निर्माण के आधार स्थापित करें और पत्ते धोने की अपेक्षा जड़ सींचने की बात को महत्व दें।

भावनाओं को प्रभावित करने वाले समस्त साधनों और आधारों को अवाँछनीय हाथों से निकाल कर उन उत्तरदायी हाथों में सौंपा जाना चाहिए जो उनका उपयोग विवेक शीलता एवं उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित कर सकें। प्रजातन्त्र में नागरिक आजादी होती है सो सही; पर वह आजादी “आग लगाने और विष खिलाने की आत्म हत्या की” नहीं होनी चाहिए। यदि प्रजातन्त्र के साथ- नागरिक अधिकारों के साथ ऐसी सर्वनाशी आजादी जुड़ गई है तो उसे विचार और सुधारा जाना चाहिए। आज का साहित्यकार क्या रच रहा है, प्रकाशक क्या छाप रहा है, गायक क्या गा रहा है, अभिनय और रंग-मञ्च जन मानस पर क्या छाप छोड़ रहा है, चित्रकार द्वारा क्या चित्रित किया जा रहा है इसकी ओर से आँखें बन्द किये रहना भेड़ियों को छूट देकर शिशुओं के लिए प्राण संकट उत्पन्न करने की तरह है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि विचारों को प्रभावित करने वाले साधनों को उच्छृंखलता की दिशा में खुली छूट देकर व्यक्ति और समाज का भविष्य अन्धकार मय बनाने की प्रक्रिया को मूक दर्शक की तरह देखा जा रहा है और उसे रोकने के लिये अपंग असमर्थों की तरह मौन रहा जा रहा है।

धर्म और अध्यात्म के नाम पर जो कूड़ा-करकट जन मानस के गले उतारा जा रहा है उससे आत्मा, परमात्मा, लोक परलोक किसी की कुछ सेवा होना तो दूर उलटे अज्ञान, अन्धविश्वास और प्रपञ्च, पाखण्ड को प्रोत्साहन मिल रहा है। उचित यह था कि जन मानस को प्रभावित करने में समर्थ इस धर्म मञ्च को हाथ में लेने के लिये प्रगतिशील लोग आते और उलूक शृंगालों को विडंबनाएं फैलाने से रोकने के लिये जनता को प्रशिक्षित करते। पर अपने देश में तो राजनीति से लाभान्वित होने की हर किसी को आपाधापी पड़ी है। हर कोई उसी भीड़ में घुसने के लिए व्याकुल है। मानो देशसेवा का और कोई क्षेत्र बना ही नहीं। कितना अच्छा होता यदि राजनैतिक धक्का-मुक्की में घुस कर विग्रह उत्पन्न करने के स्थान पर कुछ सच्चे लोक सेवी जन मानस को भावनात्मक दृष्टि से परिष्कृत करने को अपना कार्य क्षेत्र बनाते और उसी में अपने को खपा देते।

युग-निर्माण योजना के शत सूत्री कार्यक्रमों के अंतर्गत ऐसे अनेक आधार हैं जिन्हें अपनाकर लोकचिन्तन की दिशा मोड़ी जा सकती है। भ्रष्ट साधनों से लोक मानस को दूषित करने में संलग्न दुष्प्रवृत्तियों से झगड़ना ही काफी नहीं वरन् उनकी तुलना में हर क्षेत्र में उत्कृष्टता विकसित करने वाले साधन खड़े करने होंगे। श्रेष्ठता के अभाव में लोग निकृष्टता अपनाते हैं। निकृष्टता की निन्दा करना ही काफी नहीं वरन् उसका सही विधायक तरीका यह है कि उत्कृष्ट आधारों को विकसित करने में सृजनात्मक शक्तियाँ इस प्रकार जुट जायें कि जनता को भले-बुरे का अन्तर पहचानने- दोनों में से किसी एक का वरण करने का अवसर मिल सके। जब तक भ्रष्टता ही स्वच्छन्द विचरण करती है, जन मानस को प्रभावित करने की सारी क्षमता उसी के हाथ है तब तक अपकर्ष ही जीतता रहेगा। उत्कर्ष को असफल, असहाय ही रहना पड़ेगा।

समाज निर्माण के लिये- राष्ट्रीय उत्कर्ष के लिए आवश्यक है कि जन मानस उत्कृष्टता के आरोपण और पोषण के समुचित साधन जुटाने में दत्त चित्त हो। भौतिक प्रगति की सार्थकता इसके बिना संदिग्ध ही रहेगी।


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