अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रत्येक सदस्य के नाम संदेश देते हुए गुरु देव ने कहा-प्रत्येक परिजन को पेट और प्रजनन की पशु प्रक्रिया से ऊँचे उठकर उन्हें दिव्य जीवन की भूमिका सम्पादित करने के लिये कुछ सक्रिय कदम बढ़ाने चाहिएं। मात्र सोचते विचारते रहा जाय और कुछ किया न जाय तो काम न चलेगा। हममें से प्रत्येक को अधिक ऊँचा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और कर्तव्य में ऐसा हेर-फेर करना चाहिए जिसके आधार में परमार्थ प्रयोजनों को अधिकाधिक स्थान मिल सके। उपलब्ध विभूतियों और सम्पदाओं को अपने शरीर और अपने परिवार के लिए सीमित नहीं कर लेना चाहिए वरन् उनका एक महत्व पूर्ण अंश लोक मंगल के लिये नियोजित करना चाहिए।
हर एक को यह समझ लेना चाहिए कि दृष्टिकोण के परिष्कार गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता और परमार्थ प्रयोजनों में तत्परता अपनाये बिना कभी किसी की आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। ईश्वर उपासना और साधनात्मक गति विधियाँ अपनाने का प्रभाव परिणाम भी इन्हीं सत्प्रवृत्तियों का विकास होना चाहिए अन्यथा वह जप भजन भी एक चिह्न पूजा बनकर रह जायगा और उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा।
उपासना एवं जीवन साधना का श्रेष्ठ किन्तु सरल रूप क्या हो सकता है इसकी चर्चा पिछले पृष्ठों पर हो चुकी है। उस दिशा में एक-एक कदम हर किसी को उठाना चाहिये और ‘इन दोनों गति विधियों को अपने जीवन क्रम में अविच्छिन्न रूप से सम्मिलित कर लेना चाहिए।
गुरु देव ने कहा-प्रत्येक जागृत आत्मा को क्रमबद्ध रूप से इस संगठन सूत्र में आबद्ध हो जाना चाहिए। युग-निर्माण परिवार की नियमित सदस्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए और भावनात्मक नव निर्माण के लिए एक घण्टा समय और दस पैसा जैसे प्रतीकात्मक अनुदान को नियमित रूप से बिना किसी ढील-पोल के आरम्भ कर देना चाहिए। इस क्रम में व्यतिरेक न आने पाये इसलिए ‘ज्ञान घट’ की स्थापना आवश्यक है। उस बन्धन के सहारे नियमितता टूटने नहीं पायेगी और परिवार की सदस्यता के साथ आत्मिक प्रगति का क्रम यथावत् चलता रहेगा।
जहाँ एक पत्रिका अखण्ड-ज्योति ही मँगाई जाती है वहाँ प्रयत्न करके पाक्षिक युग निर्माण मँगाना भी आरम्भ कर दिया जाना चाहिए। क्योंकि युग परिवर्तन के महान अभियान का मार्ग दर्शन एवं स्वरूप उसी के प्रकाश में जाना जा सकता है । जो मँगाते नहीं हैं उन्हें भी यह प्रयत्न करना चाहिए कि कहीं से माँग कर पढ़ लें। अब उस की उपयोगिता भी अखण्ड -ज्योति जितनी हो गई है।
जो पचास वर्ष के हो गये । जिनके बड़े बच्चे अपने छोटे भाई बहिनों का उत्तरदायित्व संभालने में समर्थ हो गये अथवा जिनके पास गुजारे के लिए दूसरे साधन मौजूद हैं उन्हें अधिक कमाने और बेटे पोतों के लिये अधिक संग्रह करने की ललक छोड़ देनी चाहिए। यह लिप्सा अब बहुत पीछे युग की बात रह गई। समाजवाद का युग बिलकुल निकट आ गया। संग्रहीत पूँजी का लाभ कोई न उठा सकेगा। हर किसी को रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना पड़ेगा। अमीरी अब गये गुजरे जमाने की बात हो चली। राजाओं के राज गये-जमींदारों की जमींदारी-महन्तों की महन्ती भर रही है। समानता की लहरें आकाश-चूम रही हैं। धनी और हरामखोर व्यक्ति अगले दिनों सम्मान नहीं तिरस्कार प्राप्त करेंगे। घृणित समझे जायेंगे और बुरी तरह मरेंगे। इसीलिए समय रहते उस विपत्ति भरी कुरुचि को समय से पूर्व ही छोड़ देना चाहिए और जो समय लोभ एवं मोह की पूर्ति में लगाया जा रहा है, उसे लोक मंगल के लिये नियोजित करने की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दिखानी चाहिए। समर्थ व्यक्तियों को ऐसी ही हिम्मत दिखाने की आवश्यकता है।
जहाँ कला, प्रतिभा, बुद्धि, कुशलता, सम्पदा जैसी ईश्वर प्रदत्त अतिरिक्त विभूतियाँ हैं उनकी जिम्मेदारी और भी अधिक है। इस ईश्वरीय अमानत को वे गुलछर्रे उड़ाने के लिए नहीं विश्व मानव को सुविकसित समुन्नत बनाने के लिये पवित्र धरोहर समझें और उसका उसी रूप में प्रयोग करें। न करेंगे तो सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा ऐसे विभूतिवान व्यक्ति ईश्वर के दरबार में अधिक बड़े अपराधी ठहराये जायेंगे और अधिक दण्ड के भागी बनेंगे। भावी पीढ़ियाँ भी उन्हें घृणास्पद ही मानेंगी।
समाज को ईश्वर की प्रत्यक्ष प्रतिमा मानना चाहिए और अपने पुण्य परमार्थ की सत्प्रवृत्ति को भावनात्मक नव निर्माण की श्रेष्ठतम युग साधना में नियोजित करना चाहिये। न्यूनतम समय एक घण्टा और न्यूनतम राशि - ही इस कार्य के लिए अनिवार्य मानी गई है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि 8 घण्टे सोने 8 घण्टे आजीविका उपार्जन और 4 घण्टा फुटकर कामों में खर्च करने के उपरान्त 4 घण्टा प्रतिदिन लोक मंगल के लिए लगाये जायें और महीने में एक एक दिन की आमदनी नव निर्माण के लिए लगाने के उदारता दिखाई जाय।
जहाँ थोड़े भी परिवार हैं वहाँ उन्हें संगठित हो जाना चाहिए। युग निर्माण परिवार बना लेना चाहिए और यदि न्यूनतम संख्या ही है तो भी उन्हें टोली बनाकर जन संपर्क के लिये निकलना चाहिये और नये युग की विचारणा एवं प्रक्रिया से सर्व साधारण को परिचित कराने के लिये निकलना चाहिये।
शाखा संगठन के उद्देश्य, स्वरूप और कार्यक्रमों की अगले पृष्ठों पर चर्चा है। प्रयत्न हर जगह यह होना चाहिये कि सामूहिकता का विकास हो, और संगठित परिजन उन क्रिया कलापों को आगे बढ़ाने में पूरा उत्साह और सहयोग दिखायें। संघ शक्ति के बिना युग परिवर्तन जैसे महान अभियान में प्रगति नहीं हो सकती इसलिए एकाकी कुछ टुन मुन करते रहने की अपेक्षा हमें सुसंगठित ही होना चाहिए और अपने आपको सृजन सेना का सदस्य मानकर नव निर्माण की दिशा में कुछ चिन्तन और कुछ प्रयत्न निरन्तर करते रहना चाहिए।
एक से दस का कर्त्तव्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। पत्रिकायें जहाँ भी पहुँचती हैं- जिनके पास भी पहुँचती हैं वहाँ यह कर्त्तव्य समझा जाना चाहिये कि इन्हें पढ़ने या सुनने का लाभ कम से कम दस व्यक्ति तो उठा ही लिया करें। इसके लिये थोड़ी दौड़ धूप और चेष्टा हर किसी को करनी चाहिये।
यह प्राथमिक कसौटी है जिस पर कस कर किसी परिजन की अध्यात्म निष्ठा को परखा जा सकेगा और यह समझा जा सकेगा कि उस अभियान के संचालक के साथ उनका मोह ही नहीं प्रेम भी है। मोह दर्शन लाभ करने मात्र से तृप्त हो जाता है पर प्रेम तो कुछ अनुदान माँगता है जो कुछ न दे सके, उचित अनुरोध आग्रह पर भी ध्यान न दे सके उसे कुछ भले ही कहा जाय ‘प्रेमी’