एक अन्धा था। लोग कह रहे थे- दोपहर हो गया। प्रकाश फैल रहा है।
अन्धे ने उनकी बात को झुठलाया और कहा- अगर प्रकाश है तो मेरे हाथ में थमा दो। अन्यथा मैं कैसे मानूँ कि तुम सच कहते हो।
लोगों ने कई तरह से प्रकाश की उपस्थिति समझाई। पर अन्धा न माना। यही कहता रहा- मैं प्रत्यक्ष वादी हूँ। प्रकाश को जब तक पकड़ न लूँगा उसका अस्तित्व स्वीकार न करूंगा।
बहस बढ़ रही थी और व्यर्थ का वितंडा चल रहा था। एक विद्वान उधर से निकले। उन्होंने कहा- झगड़ा मत करो, प्रत्यक्ष वादी को तर्क कहाँ स्वीकार हो सकता है।
बात समाप्त हो गई। विद्वान ने अन्धे को अस्पताल में भर्ती करा दिया, सौभाग्य की बात अन्धे की रोशनी लौट आई। उसने मध्याह्न का प्रकाश देखा। उसे माना भी और सराहा भी।
विद्वान ने एक दिन अनास्थावादियों को अन्धे का उदाहरण सुनाया और कहा- ईश्वर का अस्तित्व प्रकाश को पकड़ने की तरह जाना नहीं जा सकता। उसके लिये विवेक के चक्षु खोलने के लिए आत्मानुभूति की चिकित्सा का सहारा लेना पड़ेगा।