अपने को पहिचानें-आत्मबल सम्पादित करें

May 1972

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मानव जीवन में अध्ययन तत्वज्ञान का समावेश कैसे किया जाय इस विषय पर चर्चा करते हुए एक दिन गुरु देव ने निम्न तथ्यों पर प्रकाश डाला-

हर कोई जानता है कि शरीर अनेक सुख सुविधाओं का माध्यम है, ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा रसास्वादन और कर्मेन्द्रियों के द्वारा उपार्जन करने वाला शरीर ही साँसारिक हर्षोल्लास प्राप्त करने का माध्यम है। इसलिए उसे स्वस्थ, सुन्दर, सुसज्जित, एवं समुन्नत स्थिति में रखा जाना चाहिए। इस तथ्य से सभी अवगत हैं अस्तु सभी यह अपनी अपनी सुविधा और समझ के अनुसार प्रयत्न करते है कि शरीर की साज संभाल में कुछ उठा न रखा जाय। उत्तम आहार विहार इसी दृष्टि से जुटाया जाता है। तनिक सा रोग कष्ट होते ही चिकित्सा की सहायता ली जाती है। स्पष्ट है कि यदि शरीर दुर्बल रुग्ण एवं मलीन रखा जायगा तो भौतिक जीवन का सारा आनन्द ही चला जायेगा।

शरीर की ज्योति ही मस्तिष्क की उपयोगिता है। आत्मा की चेतना और शरीर की गतिशीलता का भौतिक व आत्मिक समन्वय का प्रतीक है यह मन मस्तिष्क। इसकी अपनी उपयोगिता है। मन की कल्पना, बुद्धि का निर्णय, चित्त की आकाँक्षा और अहंता की प्रवृत्ति इन चारों से मिलकर अन्तः करण चतुष्टय बना है। यह चिन्तन संस्थान मस्तिष्क गह्वर के कलेवर में आबद्ध है यों उसका नियन्त्रण और क्रिया कलाप समस्त शरीर के अंग प्रत्यंगों में देखा जा सकता है।

सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा, दीक्षा द्वारा मस्तिष्क को विकसित एवं परिष्कृत करने के लिए हमारी चेष्टा निरन्तर रहती है क्योंकि भौतिक जगत में उच्चस्तरीय विकास एवं आनन्द उसी के माध्यम से संभव है। सुशिक्षित व्यक्ति ही नेता, कलाकार, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, शिल्पी, वैज्ञानिक, साहित्यकार, ज्ञानी, व्यवसायी आदि सम्मानित पद प्राप्त कर सकते हैं। सभ्य और संस्कृत समझे जा सकते हैं। अशिक्षित एवं मस्तिष्कीय दृष्टि से अविकसित व्यक्ति आजीवन हेय स्थिति में पड़े रहते हैं उन्हें प्रगति की घुड़ दौड़ में पिछड़ा हुआ ही पड़े रहना होता है। इस तथ्य को समझने के कारण हर कोई अपने ढंग से ज्ञान वृद्धि का मानसिक विकास का प्रयत्न करता है।

शरीर को समुन्नत स्थिति में रखने के लिए पौष्टिक आहार की- सुसज्जा साधनों की- व्यायाम विनियोग की चिकित्सा की- विनोद आनन्द की अगणित व्यथाएं की गई हैं। मस्तिष्कीय उन्नति के लिए स्कूल, कालेज, प्रशिक्षण केन्द्र, गोष्ठियाँ सभाएं विद्यमान हैं पुस्तकें, पत्रिकाएं, रेडियो फिल्म, कलाकृतियाँ, संग्रहालय आदि न जाने कितने उपकरणों का सृजन किया गया है कि मस्तिष्कीय समर्थता बढ़े और विनोद आनन्द की अधिक मात्रा उपलब्ध हो सके। देखते हैं कि मानवीय चिन्तन और कर्तृत्व का अधिकाँश भाग उपरोक्त दो प्रयोजनों की पूर्ति में ही नियोजित है। आदमी जो सोचता है जो करता है उसके पीछे शारीरिक और मानसिक लाभ ही प्रधान होते हैं। सामाजिक कर्तृत्व उन दिनों की सुविधा के लिए ही वहन किये जाते हैं। गृहस्थ जीवन में प्रवेश, विवाह, संतानोत्पादन, परिवार व्यवस्था, आजीविका, मैत्री, यशोपार्जन, पद, नेतृत्व आदि जनसंपर्क एवं समाज सम्बन्ध के लिए मनुष्य शरीर और मन की सुविधा को ध्यान में रख कर ही प्रवृत्त होता है। यही सब तो हम अपने चारों ओर होता हुआ देखते हैं। इसके अतिरिक्त और कुछ कहीं है ही नहीं, ऐसा लगता है। प्रगति की परिभाषा इन्हीं क्षेत्र में हो रहे विकास तक सीमा बद्ध है। कारण कि जीवन का प्रत्यक्ष भाग इतना ही है। मनुष्य का स्थूल कलेवर शरीर और मन के रूप में ही जाना समझा जा सकता है। सो उन्हीं के लिए सुविधा साधन जुटाने में हर कोई जुटा है। यह उचित भी है। इस जगत के जड़ साधनों और चेतन हलचलों को यदि मानवी सुविधा एवं सन्तोष के लिए नियोजित किया जाता है और उसके लिए उत्साह वर्धक प्रयास जुटाया जाता है तो इसमें अनुचित भी क्या है?

मनुष्य द्वारा जो कुछ किया जा रहा है- संसार में जो हो रहा है, उसे स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए। यहाँ उसकी निन्दा प्रशंसा नहीं की जा रही। ध्यान उस तथ्य की ओर आकर्षित किया जा रहा है जो एक प्रकार से भुला ही दिया गया। समझ यह लिया गया है कि मनुष्य जो कुछ है वह शरीर और मन तक ही सीमित है। इससे आगे इससे ऊपर और कोई हस्ती नहीं। यदि इससे आगे ऊपर भी कुछ समझा गया होता तो उसके लिए भी जीवन क्रम में वैसा ही स्थान मिलता वैसा ही प्रयास होता जैसा शरीर और मन के लिए होता है। पर हम देखते हैं वह तीसरी सत्ता जो इन दोनों से लाखों करोड़ों गुनी अधिक महत्वपूर्ण है, एक प्रकार से उपेक्षित विस्मृत ही पड़ी है। और वह लाभ और आनन्द जो अत्यन्त सुखद एवं समर्थ है एक प्रकार से अनुपलब्ध ही रह रहा है।

रोज ही यह कहा और सुना जाता है कि हम शरीर और मन से ऊपर ‘आत्मा’ हैं सत्संग और स्वाध्याय के नाम पर यह प्रतिपादन आये दिन आँखों और कानों के पर्दों पर टकराते हैं पर वह सब एक ऐसी विडम्बना बन कर रह जाता है जो मानों कहने सुनने और पढ़ने लिखने के लिए खड़ी की गई है। यदि ऐसा न होता ‘आत्मा’ को सचमुच ही महत्वपूर्ण माना गया होता, कम से कम शरीर मन जितने स्तर का समझा गया होता तो उसके लिये उतना श्रम एवं चिन्तन तो नियोजित किया ही गया होता जितना कायिक मानसिक उपलब्धियों के लिए किया जाता है।

यथार्थता यह है कि आत्मा के सम्बन्ध में बढ़−चढ़ कर बातें कहने सुनने में प्रवीण होने पर भी उस संबंध में एक प्रकार से अपरिचित ही बने हुए हैं यदि ऐसा न होता दिनचर्या में आत्मिक उन्नति के लिए कुछ स्थान नियत रहा होता। श्रम और मनोयोग में उसके लिए भी जगह होती उपलब्धियों को जिन कार्यों में नियोजित किया जाता है- धन को जिन प्रयोजनों के लिए खर्च किया जाता है उनमें एक मद आत्म विकास के लिए भी रखी गई होती। पर देखा यह जाता है कि उन संबन्ध में सर्वत्र घोर उपेक्षा ही संव्याप्त है। जो कुछ होता भी है उसे विदूषकों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले प्रहसनों की ही संज्ञा दी जा सकती है।

आत्मा की बात जो कुछ अधिक ध्यान से सुनते हैं वे अधिक से अधिक इतना कर लेते हैं कि थोड़ी ईश्वर प्रार्थना या पूजा परक कर्मकाण्डों की उलटी पुलटी प्रक्रिया को उथले मन से उलट पुलट लें। उतने से ही उस प्रयोजन की पूर्ति और कर्त्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है। यह देखा नहीं जाता कि जब शरीर को सजीव और समर्थ रखने के लिए इतना श्रम करना पड़ता है- जब मन मस्तिष्क के परिष्कार में इतनी तत्परता बरतनी पड़ी है तो आत्मा जैसे महान तत्व की आवश्यकता पूर्ति एवं प्रगति की व्यवस्था इतने स्वल्प साधनों से कैसे हो सकती है? अनावश्यक और महत्वहीन समझा जाने वाला पथ ही उपेक्षित रहता है इस दृष्टि से यदि कहा जाय कि हम आत्मा के स्वरूप और महत्व से अपरिचित हैं तो कुछ अत्युक्ति न होगी इन अपरिचितों में पूजा पाठ करने और न करने वाले लोग समान रूप से सम्मिलित हैं। इसे अपने आपके साथ एक निर्मम उपहास ही कहना चाहिए कि हम अपने अस्तित्व को ही भूल गये हैं उसकी गरिमा उपयोगिता से नाता ही तोड़ बैठे हैं।

थोड़ी गहराई से यदि विचार किया गया होता तो प्रतीत होता कि शरीर से बढ़कर मन और मन से बढ़कर आत्मा है। इन दोनों का सम्मिश्रण ही हम हैं। शरीर श्रम का उपार्जन सीमित और स्वल्प है पर परिष्कृत मस्तिष्क तो असीम कमाई कर सकता है। शरीर का एक अंग नष्ट हो जाये तो भी काम चलता रह सकता है पर मस्तिष्क का एक पेंच भी ढीला हो जाय पागलपन तनिक सा भी झलकने लगे तो आदमी अपने लिए और दूसरों के लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है सुन्दर और स्वस्थ शरीर वाला जितना यशस्वी होता है ज्ञान बान उससे असंख्य गुना और चिरस्थायी सम्मान प्राप्त करता है। इस खुले रहस्य को हर कोई जानता है। यदि शत्रु का सिर पर लाठी प्रहार हो तो हाथ अनायास ही ऊपर उठ जाते हैं और चोट अपने ऊपर लेकर मस्तिष्क को बचाने का प्रयत्न करते हैं। हमारी अन्तः चेतना जानती है कि हाथों का टूटना और शिर का टूटना इन दोनों में किसका महत्व ज्यादा है।

इस संदर्भ में एक कदम और आगे बढ़ने पर पता चल सकता है कि आत्मा का स्थान शरीर और मन से कम नहीं वरन् कहीं अधिक है। सच पूछा जाय तो मनुष्य का अस्तित्व आत्मा ही है। शरीर और मन उसके परिधान, वाहन, उपकरण मात्र हैं। शरीर के रुग्ण और मस्तिष्क के विकृत होने पर भी जीवन बना रह सकता है पर आत्मा के प्रयाण करने के बाद काय कलेवर की कुछ उपयोगिता नहीं रह जाती। उस मरी लाश को सड़न और दुर्गन्ध से बचाने के लिये जल्दी से जल्दी ठिकाने लगाने का प्रबन्ध किया जाता है। शरीर मरते रहते हैं- मन बदलते रहते हैं पर आत्मा अनादि काल से अनन्त काल तक एक रस ही बना रहता है। हम वस्तुतः वही अविनाशी आत्मा हैं। आत्मस्वरूप को भूल कर- अपने को शरीर और मन समझा जाने लगा है। जिस प्रयोजन के लिए यह दोनों उपकरण मिले हैं उस तथ्य को विस्मृत कर दिया गया है और यह मानकर चला जा रहा है कि शरीर एवं मन तक ही हमारी सत्ता सीमित है और उन्हीं के लिये सुख-साधन जुटाने में निरत रहना है। इसी उपहासास्पद अज्ञान का नाम ‘माया’ है। इस भटकाव में पड़ा हुआ प्राणी अपना लक्ष्य भूल जाता है और उन लाभों-आनन्दों एवं उपलब्धियों से वञ्चित रह जाता है जो ‘आत्म बोध’ होने की स्थिति में प्राप्त हो सकते थे।

शरीर बल का अपना स्थान है और बुद्धि बल का अपना महत्व, पर इन दोनों की तुलना में करोड़ गुना अधिक महत्वपूर्ण है आत्मबल। जड़ पञ्च तत्वों से बने इस कलेवर का मूल्य नगण्य है। बुढ़ापा, बीमारी और मौत इस कलेवर को पानी के बुलबुले की तरह गला देता है। समुद्र की लहरों की तरह वह उठता है और नष्ट होता रहता है। वस्त्रों की तरह वह जल्दी जल्दी फटता और जीर्ण होता रहता है। घिसे हुए औजार की तरह बार-बार उसे बदलना होता है। ऐसे कलेवर की सुसज्जा को ही लक्ष्य बना लिया जाय और आत्मोत्कर्ष के-आत्म-कल्याण के- आत्मानन्द के उद्देश्य को विस्मृत कर दिया जाय तो वह बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता ही होगी। खेद इसी बात का है कि लगभग समस्त मानव समाज इस आत्म प्रवञ्चना में सम्मोहित हुआ- मूर्छित बना पड़ा है।

दूरदर्शिता का तकाजा यह है कि हम अपने स्वरूप और जीवन के प्रयोजन को समझें। शरीर और मन रूपी उपकरणों का उपयोग जानें और उन प्रयोजनों में तत्पर रहें जिनके लिए प्राणि जगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर- सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है। उसकी मूल प्रवृत्तियाँ वही हैं जो ईश्वर की। परमात्मा परम पवित्र है। श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। उसका समस्त क्रिया कलाप लोक मंगल के लिए है। वह लेने की आकाँक्षा से दूर- देने की-प्रेम की-उदात्त भावना से परिपूर्ण है। आत्मा को इसी स्तर का होना चाहिए और उसके क्रिया कलापों में उसी प्रकार की गतिविधियों का समावेश होना चाहिए। परमेश्वर ने अपनी सृष्टि को सुन्दर, सुसज्जित, सुगन्धित और समुन्नत बनाने में सहयोगी की तरह योगदान करने के लिये मानव प्राणी को अपने प्रतिनिधि के रूप में सृजा है उसका चिन्तन और कर्त्तव्य इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिए। यही है आत्मबोध यही है आत्मिक जीवन क्रम। इसी को अपनाकर हम अपने अवतरण की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

यह सर्वथा अवाँछनीय है कि हम अपने को शरीर एवं मन मान बैठें और इन्हीं की सुख-सुविधा और मर्जी जुटाने के लिए अनुचित मार्ग तक अपनाने में न हिचकें। पेट और प्रजनन में प्रवृत्त पशु जीवन ही हो सकता है। वासना और तृष्णा की पूर्ति, ललक लिप्सा में डूबा हुआ मनुष्य असुर ही कहा जायेगा। जिसे अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं, उसे मोहान्ध और जिसे लक्ष्य में रुचि नहीं उसे विक्षिप्त नहीं तो और कहा जाय? हम सब इन दिनों इसी दयनीय स्थिति में रह रहे हैं और नारकीय शोक सन्ताप सहन करते हुए जीवन की शव यात्रा संजो रहे हैं। शरीरगत क्षणिक सुख के लिये-मनोगत हास-परिहास के लिये जीवन सम्पदा को फुलझड़ी की तरह जलाने का बाल कौतुक किसी दूरदर्शी के लिए शोभा नहीं देता। व्यर्थ और अनर्थ जैसे क्रिया कलापों में संलग्न रहकर चिर भविष्य को अन्धकारमय बना लेना समझदारी का चिह्न कैसे हो सकता है। वाहन और उपकरणों में तन्मय होकर अपने सर्वनाश को जो सँजो रहा है उसे क्या कहा जाय? शरीर और मन की प्रसन्नता के लिये जिसने आत्म प्रयोजन का बलिदान कर दिया उससे बढ़ कर अभागा एवं दुर्बुद्धि और कौन हो सकता है?

मूर्छितों की बात अलग है। यदि सचमुच कोई जीवित जागृत हो तो उसे अपनी गतिविधियों पर पुनर्विचार करना ही पड़ेगा और अन्धी भेड़ों की तरह जन समूह जिन पथ भ्रष्ट गतिविधियों को अपनाये हुए है उनसे विरत होना ही पड़ेगा। आत्मावलम्बी विवेक को अपना आधार बनाता है और दूरदर्शिता को सम्बल। वह दूसरों के पीछे नहीं चलता। अन्तःकरण ही उसका मार्गदर्शक होता है। ओछे लोग जिसे लाभ समझते हैं यह यदि विवेक की कसौटी पर हानि सिद्ध होती है तो विवेकवान व्यक्ति एकाकी निर्णय करता है और सत्पथ पर एकाकी चल पड़ता है। भले ही उन्मादियों की भीड़ उसका उपहास, असहयोग या विरोध करती रहें। ऐसा साहसवान शूरवीर ही पानी की धार को चीर कर चल सकने वाली मछली की तरह अपने भाग्य का आप निर्माण करता है वहाँ जा पहुँचता है जहाँ पहुँचने के लिए आत्मा का अवतरण इस धरती पर हुआ है।

शरीर बल और मनोबल का अपना स्थान है। पर आत्मबल की गरिमा तो अनुपम है। आत्मबल अर्थात् ईश्वरीय बल। ईश्वरीय बल अर्थात् परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य। जिसने आत्मबल उपार्जित कर लिया उसे समग्र शक्ति का अवतार ही कहना चाहिए। सिद्ध पुरुषों की-ऋषियों की-ईश्वर भक्तों की-महामानवों की युग युगान्तर तक जीवित रहने वाली गुण गाथायें गाकर हम धन्य होते हैं। उनके चमत्कार हृदय को हुलसित कर देते हैं। उनके प्रकाश से अप्रकाशित और उनकी नाव में चढ़कर पार हुए असंख्य प्राणियों के उद्धार की बात जब सामने आती है तब प्रतीत होता है कि ऐसे ही जीवन धन्य हैं। उन्हीं का अवतरण सार्थक है। मनुष्यता ऐसे ही आत्मबल सम्पन्न महामानवों से कृत कृत्य होती है।

यह आत्मबल उस साहसिकता की पृष्ठभूमि पर विकसित होता है जिसमें अपने दोष-दुर्गुणों को खोज निकालने और उन्हें बहिष्कृत करने की उमंग उठती है। शारीरिक क्रिया कलापों में- मनोगत लिप्साओं में स्वभाव गत कुत्साओं में जितना भी अवाँछनीय तत्व है उसका उन्मूलन करने के लिए जो शौर्य सक्रिय होता है उसे आत्मबल का प्रादुर्भाव ही समझा जाना चाहिए। मनोगत दुर्भावनायें और शरीर गत दुष्प्रवृत्तियों का जितना परिशोधन होता चलता है उसी अनुपात से आत्म तेज निखरता चला जाता है। कहना न होगा कि यह ब्रह्मतेज- आकाश में चमकने वाले सूर्य के प्रकाश से कम नहीं अधिक ही प्रभावशाली होता है। उससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं- समस्त संसार का भी कल्याण होता है।

आत्मबल अभिवृद्धि का दूसरा चिह्न वहाँ देखा जा सकता है, जहाँ कोई व्यक्ति मोहान्ध जन समूह के परामर्शों और उदाहरणों को उपेक्षा के गर्त में पटकता हुआ आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने के लिए एकाकी चल पड़ता है। उत्कृष्टता का वरण करने के लिये सोचते ललचाते तो कितने ही रहते हैं पर आत्मबल के अभाव में न किसी निर्णय पर पहुँचते हैं और न कोई कदम बढ़ाने की हिम्मत करते हैं- स्वप्न भर देखते रहते हैं और दिन बिताते हुए, असफल मनोरथ रहते हुए- हाथ मलते हुए- प्रयाण करते हैं। आत्मबल सम्पन्न इस दयनीय दुर्गति से अपने आपको ऊँचा उठाता है और वह कर गुजरता है जिसे करने के लिए उसका अन्तरात्मा कहता, पुकारता, बुलाता और ललकारता है।

यह भली भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्मा-परमात्मा का राज पुत्र है। उसके सम्मुख वे सभी सम्भावनायें प्रस्तुत हैं जो ईश्वर के हाथ में हो सकती है। दोनों का सम्बन्ध विच्छेद जिस अज्ञानान्धकार के मायिक कलेवर ने किया है उसी का अन्त करना ‘साधना’ है। साधना का प्रयोजन ईश्वर का स्तवन उसकी खुशामद करना या पूजा की रिश्वत देकर फुसलाना नहीं वरन्- उन कुत्साओं और कुण्ठाओं की जञ्जीरों को काट डालना है जो जीव और ईश्वर के मिलने में एक मात्रा बाधा बनकर अड़ी खड़ी हैं।

आत्मबल को प्रखर करने के लिये जो तपश्चर्यायें की जाती हैं उनका प्रयत्न, जन्म जन्मान्तरों से सञ्चित पशु प्रवृत्तियों का निराकरण और देव शक्तियों के अभिवर्धन का पथ प्रशस्त करता है। मनुष्य में वे सभी दिव्य सत्ताएं बीज रूप में विद्यमान हैं जो इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी किसी भी रूप में विद्यमान हैं। यह दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति रूपी व्यामोह ही उन्हें मूर्छित बनाये हुये हैं। वे हट जायें तो मनुष्य में अनायास ही ईश्वर की झाँकी हो सकती है। और वह अपने आपको नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, लघु से महान, आत्मा से परमात्मा के रूप में विकसित हुआ प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। आत्मकल्याण के साथ विश्व कल्याण का भी लक्ष्य पूर्ण कर सकता है। ऋद्धि सिद्धियों की बात तुच्छ है। जो ईश्वरीय परिधि को छू सका- उस सत्ता के साथ अपने सम्बन्ध बना सके उसे न अपने लिए कुछ अभाव असन्तोष रहता है और न दूसरों को मुक्त हस्त से बहुत कुछ दे सकने में असमर्थ रहता है।

साधना का उद्देश्य ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं आत्म शोधन है। जो आत्म शोधन कर सका उस पर ईश्वर अनायास ही अनुग्रह करेगा। उससे वञ्चित तो वे लोग रहते हैं जो अपनी निकृष्टता यथावत् बनाये रहना चाहते हैं और लोभ-मोह की पूर्ति के लिए अपने पुरुषार्थ को जगाने की अपेक्षा ईश्वर को फुसलाने का जाल बिछाते हैं। तपश्चर्या का अर्थ है- जीवन क्रम परिष्कार, पिछले दिनों किये गये दुष्कर्मों का प्रायश्चित। इस स्तर की प्रखर साधना कर सकना जिनसे बन पड़े उन्हें सच्चे अर्थों में सौभाग्यवान मानना चाहिए।

हमारा व्यक्तित्व भौतिक और आत्मिक सत्ताओं का सम्मिश्रण है। शरीर विशुद्ध रूप से जड़ है। आत्मा विशुद्ध रूप से चेतन। दोनों का सम्मिश्रण अर्ध जड़ अर्ध चेतन मन है। इन तीनों को ही विकसित एवं बलिष्ठ होना चाहिए। शरीर स्वस्थ रहे- मन स्वच्छ रहे- समाज व्यवहार में सभ्यता का समावेश रखा जाय साथ ही यह न भुला दिया जाय कि आत्मा सर्वोपरि है। आत्मबल की गरिमा सर्वोत्कृष्ट है। उसे प्राप्त कर सकने पर ही हम सच्चे अर्थों में सुखी और सफल कहला सकते हैं।


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