बड़प्पन की नहीं, महानता की आकाँक्षा जागृत करें

May 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भौतिक बड़प्पन और आत्मिक वर्चस्व की विवेचना करते हुए गुरुदेव ने कहा-लोग बड़प्पन के पीछे अन्धी दौड़ लगा रहे हैं और महानता की गरिमा भूलते चले जा रहे हैं। अहंता का पोषण करने वाले साधन जुटाने में जितनी रुचि दीख पड़ती उतनी यदि दिव्यता के अभिवर्धन में लगी होती तो नर पशु से ऊँचा उठकर मनुष्य ने नर-रत्न और नर नारायण का पद प्राप्त कर लिया होता।

निर्वाह के लिये धन की आवश्यकता उचित है। पर जिनके पास गुजारे के लिये साधन मौजूद हैं वे संग्रह के पीछे क्यों पड़े हैं? जिनके पास पूर्व संग्रह आजीवन निर्वाह कर सकने जितना मौजूद है फिर भी वे अधिक कमाई की हविस में जुटे हैं, यदि वे इस दिशा में लगी अपनी क्षमता को लोक कल्याण में लगा सके होते तो कितना अच्छा होता। गुजारे भर के लिये उपार्जन-संग्रह अनावश्यक-बची शक्तियों का विश्व मानव के चरणों में समर्पण की नीति अपना कर चला गया होता तो मनुष्य संतुष्ट भी रहता-अनाचार भी न करता और लोक कल्याण की दिशा में बहुत कुछ हो सका होता।

परिवार पालन एक बात है और परिवार तक ही सीमित हो जाना उनके लिए नीति अनीति अपना कर बैठे खाते रहने जैसी पूँजी जुटाने में लगे रहना दूसरी बात। परिवार को सुसंस्कृत और स्वावलम्बी बनाना एक बात है और लाड़ दुलार में उनकी हर इच्छा पूरी करना दूसरी बात। माली की दृष्टि रख कर भगवान का बगीचा परिवार- हम सँभाले सजायें इतना ही बहुत है। इन्हीं चंद लोगों पर जीवन सम्पदा को केन्द्रित और निछावर कर देना दूसरी बात है। परिवार के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उलझा हुआ नहीं वरन् सुलझा हुआ स्पष्ट होना चाहिए।

ईश्वर व्यक्ति नहीं है। जिसे कुछ खिला पिलाकर-दे दिला कर-कह सुन कर प्रसन्न किया जा सके। विश्व मानव विश्व वसुधा को ही भगवान का साकार रूप माना जाय और ईश्वर अर्पण, ईश्वर पूजन का व्यावहारिक स्वरूप लोक मंगल के लिए बढ़−चढ़ कर अनुदान देने के रूप में प्रस्तुत किया जाय। अपने को अपने साधनों को ईश्वर का समझना ईश्वरार्पण करना- इसका सीधा साधा अर्थ है अपने को समाज की अविच्छिन्न एक इकाई भर मानना और जो कुछ योग्यता तथा सम्पदा है उसे संसार को अधिक समुन्नत बनाने के लिए प्रत्यक्षतः समर्पण करना है। मन ही मन सब कुछ भगवान को समर्पण करना और व्यवहार में पूरे कृपण कंजूस बने रहना यह ढोंग आत्मवादी को नहीं आत्म प्रवंचक को ही शोभा देता है। ईश्वर पूजन अर्थात् उत्कृष्टता के अभिवर्धन में किया गया त्याग बलिदान है संकीर्णता और लिप्सा को नियंत्रित किये बिना सेवा और परमार्थ का व्रत लिए बिना सच्ची ईश्वर भक्ति न किसी के लिए संभव हुई है न आगे होगी। ईश्वर को एक प्राणी मान कर उसे बहलाने फुसलाने के ढोंग रचते रहने वाले न भक्ति का स्वरूप समझते हैं और न उसका प्रतिफल प्राप्त करते हैं।

भौतिक सम्पदाओं की इतनी भर आवश्यकता है। जिससे अपना और अपने परिवार का पोषण हो सके दूसरों पर आतंक जमाने आकर्षित करने और उन पर अपनी दृश्य मान विशेषताओं की छाप डालने की बाल क्रीड़ा भावात्मक बचपन की निशानी है। रूप, शृंगार, कौशल, वैभव पद का प्रदर्शन करके केवल हेय अहंता का पोषण होता है।

आत्म कल्याण और ईश्वर प्राप्त के लिए देवत्व की महानता उपलब्ध करने के लिए अन्यमनस्क भाव से कुछ पूजा पत्री कर लेना पर्याप्त न होगा वरन् उनके लिए मनोयोग वैभव और वर्चस्व का सर्वोत्तम अंश नियोजित करना पड़ेगा।

बड़प्पन के आकाँक्षी महानता प्राप्त नहीं कर सकते हैं महानता के उपासकों को बड़प्पन की अभिलाषा को नियंत्रित ही रख कर चलना होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118