मुक्ति प्राप्त करने में वेशभूषा बाधक नहीं। वेश चाहे साधु का हो या गृहस्थ का, वास्तविकता तो यह है कि अन्तरात्मा में साधुत्व आना चाहिए। कोई मनुष्य यह सोचकर कि गृहस्थाश्रम में मुक्ति होती ही नहीं, साधना न करे, धर्म-क्रिया न करे तो वह उसकी निरी मूर्खता है। आत्म-विकास और साधना के लिए तो हर पल उपयुक्त है। गृहस्थ के लिए भी साधना-पथ और आत्म-उज्ज्वलता के द्वार उसी तरह से खुले हैं, जिस तरह से साधु, साध्वियों के लिये। वह अपनी आत्मा को साधना पथ में लगाकर कर्मफल को भस्मीभूत कर दे। -आचार्य श्रीतुलसी