प्रज्ञामय बलिदानी (Kavita)

May 1972

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संस्कृति का उद्धार करो रे मानव! बनकर ज्ञानी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय बलिदानी॥

असुर वृत्तियाँ पनपीं थीं तो ऋषि दधीचि बन जागे।

करने को संहार दैत्य का, अस्थि पुञ्ज तक त्यागे॥

था अकाल सात्विकता का तो शुनःशेप बन आये।

रचा नया नरमेध, विश्वहित अपने प्राण खपाये॥

अपनी क्षमता अरे न क्यों अब तक तुमने पहचानी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय विज्ञानी॥

प्यासी थी धरती तो तुमने स्रोत नवल सरसाये।

तोड़े दुर्गम बंध और सुरसरि भू पर ले आये॥

तुम्हीं भगीरथ बनकर तप सकते हो विश्वहितों में।

ज्ञान गंग की धारा भर सकते हो सगर सुतों में॥

भँवर बड़ा है नौका छोटी- लेकिन तुम्हें बचानी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय बलिदानी।

भूला मनुज सत्य की गरिमा और कर्म की भाषा।

एकबार तो बदल गयी थी जीवन की परिभाषा॥

तुमने कष्ट सहे दुःसह और नव आदर्श दिया था।

हरिश्चन्द्र बन पात्र गरल का जग के लिये पिया था॥

हर नारी में जीवित है अब भी शैव्या-सी रानी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय बलिदानी॥

भोग नहीं आदर्श तुम्हारा- तुम चिर साधु-विरागी।

करतल गत थी पूर्ण अयोध्या-लेकिन तुमने त्यागी॥

राजभोग तज वन जीवन का कटुव्रत लिया तुम्हीं ने।

महलों में वन जैसा जीवन वर्षों जिया तुम्हीं ने॥

राम बड़े है- या कि भरत? है मूक यहाँ पर वाणी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय बलिदानी॥

मिटा ‘धर्म’ का रूप- उसे फिर से निर्मल मन दे दो।

बनी मरुस्थल ‘कर्म’ भूमि उसको सावन घन दे दो।

‘अर्थ’ व्यवस्थाएँ बिगड़ीं, उनको दो नयी दिशाएँ।

और ‘मोक्ष’ के लिए जगाओ त्यागमयी आस्थाएँ॥

जागृत कर दो सुप्तप्राय वेदों की शाश्वत वाणी।

बता रहा इतिहास, कि तुम हो प्रज्ञामय बलिदानी॥

-माया वर्मा

*समाप्त*


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