शरशैया पर पड़े हुए भीष्म पितामह उत्तरायण सूर्य आने पर प्राण त्यागने की तैयारी में लगे थे।
कुरु और पाण्डु कुल के नर-नारी उन्हें घेरे बैठे थे। पितामह ने उचित समझा कि उन्हें कुछ धर्मोपदेश दिया जाए। वे धर्म और सदाचार की विवेचना करने लगे।
सब ध्यानपूर्वक सुन रहे थे पर द्रौपदी के चेहरे पर व्यंग हास की हलकी सी रेखा दौड़ रही थी।
भीष्म ने उसे देखा और अभिप्राय को समझा।
वे बोले—बेटी! मेरी कल की करनी और आज की कथनी में अन्तर देखकर तुम आश्चर्य मत मानो। मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही उसका मन बनता है। जिन दिनों राज सभा में तुम्हारा अपमान हुआ था उन दिनों कौरवों का कुधान्य खाने से मेरी बुद्धि मलीन हो रही थी इसलिए तुम्हारे पक्ष में न्याय की आवाज न उठा सका। पर इन दिनों मुझे लंबी अवधि का उपवास करना पड़ा है सो भावनाएं स्वतः वैसी हो गईं जैसा कि मैं इस समय धर्मोपदेश में व्यक्त कर रहा हूँ।
द्रौपदी ने आहार की शुद्धि का महत्व समझा और क्षमा प्रार्थना के रूप में अपनी भूल पर दुःख प्रकट करते हुए पितामह के चरणों पर मस्तक झुका दिया।