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April 1963

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वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्ततयायति याति च।

अक्षीणो वित्ततः क्षीणः वृत्ततस्तु हतो हतः॥

—महाभारत

“अपने जातीय वृत्तांत (इतिहास) की यत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये। धन तो आता जाता रहता है और धन की न्यूनता हो जाने से कोई नष्ट नहीं हो जाता किन्तु अपना प्राचीन गौरव नष्ट कर देने पर विनाश निश्चित है।”

एक मन सहायता का महत्व एक तोले चुभने वाली बात कहने में नष्ट हो जाता है। कढ़ाई भरे दूध में जरा भी खटाई पड़ने पर उसका फटना निश्चित है। श्रम, त्याग और प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की हुई सद्भावना थोड़े से अप्रिय व्यवहार में नष्ट हो जाती है। जिनके स्वभाव में अहंकार सम्मिलित हो गया हो, वे अपने को सँभाल नहीं पाते। कुछ-न-कुछ चुभने वाला ही कहते या करते रहते हैं। फलतः उनके मित्र घटते और शत्रु बढ़ते चले जाते हैं।

शत्रुता, द्वेष मनोमालिन्य और लड़ाई झगड़ों में वास्तविक कारण 30 फीसदी और स्वभावजन्य दुर्बलताओं के कारण उत्पन्न हुई गलतफहमी 70 फीसदी होती है। यदि स्वभाव सज्जनता का है तो उन तीस फीसदी कारणों का भी परस्पर मिल-जुल कर समाधान खोजा जा सकता है। कोई मध्यस्थ भी समझौते का मार्ग ढूँढ़ सकता है। पर जहाँ स्वभाव सम्बन्धी दुर्बलताएँ भरी पड़ी हों वहाँ अकारण ही उत्तेजना, असहिष्णुता तुनुकमिजाजी और शंका संदेह की दृष्टि रहने से खटपट होती रहेगी। साधारण सी बातें तूल पकड़ती रहेंगी और लड़ाई झगड़े का वातावरण बना रहेगा। जिन लोगों के साथ रहना और काम करना है उनसे तनाव रहने पर चित्त में खिन्नता ही रहती है। इस स्थिर खिन्नता का प्रभाव शरीर और मन पर बहुत बुरा पड़ता है, प्रगति में भी अड़चन पैदा होती है। स्वभाव की यह छोटी छोटी कमजोरियाँ सुविधा सम्पन्न जीवन का भी आनन्द नष्ट कर देती हैं।

प्रगति के लिए जिस सूझबूझ की आवश्यकता पड़ती है उसका विकास तभी होता है जब मन शान्त और प्रसन्न रहे। संतुलित निश्चिन्त और प्रसन्न रहने वाले व्यक्ति का मस्तिष्क ही किसी समस्या के हर पहलू को ठीक तरह सोच समझ सकता है और गंभीर विवेचना के साथ किसी ठीक निष्कर्ष पर पहुँच सकता है। यदि मन क्षुब्ध, खिन्न और उत्तेजित रहेगा तो आवेश और अधीरता की स्थिति बनी रहेगी जिसमें किसी प्रश्न पर केवल एकांगी विचार कर सकना ही संभव होगा। अधूरे विचार के साथ किये गये निर्णय आम तौर से गलत सिद्ध होते हैं और उनको कार्यान्वित करने से हानि ही होती है। अच्छी सूझ-बूझ सबके लिए संभव हो सकती है केवल इसके लिए अपने स्वभाव को धीर गंभीर बनाना मात्र पर्याप्त होता है। जो अपने स्वभाव को सुधारने का, उसे सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न नहीं करते उन्हें अच्छी सूझ-बूझ से भी वंचित रहना पड़ता है।

बुरी आदतों का परिणाम उन बुरी प्रतिक्रियाओं के रूप में प्रस्तुत होता है जो चित्त को खिन्न करती हैं। खिन्न चित्त रहने वाले की तीन चौथाई शक्ति उस मानसिक सन्ताप से ही नष्ट हो जाती है। एक चौथाई से प्रगति के लिए कुछ ठीक से सोच सकना और जम कर कुछ ठोस काम कर सकना संभव नहीं होता। उन्नति की आकाँक्षा करने मात्र से काम नहीं चल सकता, उसके लिए उचित साधन भी होने चाहिएं। इन साधनों में सबसे बड़ा, सबसे प्रमुख, सबसे शक्तिशाली साधन है—मानसिक संतुलन और वह केवल उन्हें ही प्राप्त होता है जिनने अपने गुण-कर्म, स्वभाव का निर्माण सज्जनोचित रीति से सम्पन्न किया है।

प्रगति की दिशाएँ अनेक हैं, अनेक क्षेत्रों में जीवन बँटा हुआ है, पर उन सबका उचित विकास ऐसे स्वभाव की अपेक्षा रखता है जिसके कारण प्रतिकूलताएँ अनुकूलताओं के रूप में परिवर्तित होती रहें। साधन सामग्री की आवश्यकता सभी लोग अनुभव करते हैं और उन्हें प्राप्त करने के लिए जो संभव होता है सो करते भी हैं। पर इस तथ्य की उपेक्षा ही होती रहती है कि सत्प्रवृत्तियों के फलस्वरूप ही स्थायी सुख शान्ति के साधन उपलब्ध होते हैं। जितना प्रयत्न बाह्य साधनों को जुटाने में किया जाता है उतना ही यदि आत्मनिर्माण के लिए भी किया जाने लगे तो प्रगति की संभावना हजारों गुनी अधिक बढ़ सकती है।

जो भीतर होता है वही बाहर प्रस्तुत रहता है। हम अपने अन्तः-करण को दैवी सम्पत्तियों से सुसज्जित करें तो कोई कारण नहीं कि बाह्य जीवन में सुख शान्ति श्री समृद्धि और सिद्धि विभूति की प्रचुरता से वंचित रहना पड़े।


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