अणु बम बनाने के लिए प्रधानतया ‘यूरेनियम’ धातु की आवश्यकता होती है। “हैवी वाटर” का उस कार्य में बहुत उपयोग होता है। यह पदार्थ जिनके पास पर्याप्त मात्रा में होते हैं वे ही अणु-शक्ति उत्पन्न करने और उस प्रकार के आयुध बना सकने में सफल होते हैं। युग-निर्माण के लिए ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता होती है जो जन्मजात रूप से संस्कारवान हों। कुसंस्कार तो थोड़ी-सी बुरी संगति से उत्पन्न हो जाते हैं पर सुसंस्कार चिरकालीन साधना से ही विनिर्मित होते हैं। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति के 16 संस्कार तो समारोह-पूर्वक किये जाते हैं और नित्य नैमित्तिक उपासना, स्वाध्याय, व्रत, पर्व, अनुष्ठान, कथा, कीर्तन, सत्संग, देव दर्शन, हवन, तीर्थयात्रा, श्राद्ध आदि के द्वारा यह प्रयत्न निरन्तर होते हैं कि व्यक्ति को सुसंस्कारी बनाने की प्रक्रिया बन्द न होने पावे, उसका क्रम किसी न किसी प्रकार चलता ही रहे।
उपदेशों का महत्व तो बहुत है पर यह ध्यान रखना चाहिये कि वे सुसंस्कारी व्यक्तियों को ही प्रभावित करते हैं। चिकने घड़े पर पानी की बूँदें ठहरती नहीं, बेंत की बेल विपुल वर्षा होने पर भी फलती-फूलती नहीं। आज कथा, वार्ता, प्रवचन, सत्संगों का आयोजन पूर्वकाल की अपेक्षा कहीं अधिक होता है पर सुनने वाले उनका लाभ समय काटने या मनोरंजन करने जितना ही प्राप्त करते हैं। जो उपदेश दिये गये थे उन पर चलने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती, हाँ, उन्हीं उपदेशों में कोई बात ऐसी आ जाय जो उनकी दुष्प्रवृत्तियों का परोक्ष रूप से भी समर्थन करती हो तो उसे याद रख लेते हैं और अपने दोषों के समर्थन में उन बातों को ‘सनातन’ कह कर उचित सिद्ध करने की चेष्टा करते रहते हैं।
प्राचीन काल में संस्कार और पात्रत्व पर बहुत ध्यान दिया जाता था ओर चुने हुए व्यक्तियों को ही प्रभावशाली श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगाया जाता था। गुरुकुलों में पात्रत्व की परीक्षा के बाद ही छात्रों की भर्ती होती थी। धर्म प्रवचन का अधिकार किसी को तब मिलता था जब वह त्याग और तप की कसौटी पर अपने को सुसंस्कारी सिद्ध कर देता था। संस्कार मनोभूमि की परिपक्वता का प्रतीक है, जो देर तक एक गतिविधि को अपनाये रहने के बाद ही परिपुष्ट होते हैं। युग-निर्माण के लिए संस्कारवान मनोभूमि के व्यक्तित्वों की आवश्यकता पड़ेगी अन्यथा दुर्बल स्तर के व्यक्ति सहज ही निराश होते हैं, फिसलते और गड़बड़ी उत्पन्न करते दिखाई देंगे। आज लोक सेवक कहलाने वाले व्यक्ति जो अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न करते और कलंक-कथाएँ प्रस्तुत करते देखे जाते हैं इसका कारण यह ही है कि उपयुक्त मनोभूमि बनने से पूर्व ही वे ‘नेता’ बन जाते हैं और फिर अपने पद का दुरुपयोग करते हैं।