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April 1963

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उद्यमेन हिं सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथेः।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रवशन्ति मुखे मृगाः॥

—पंच तन्त्र

समस्त कार्य उद्यम करने से सिद्ध होते हैं केवल मनोरथ करने से कुछ नहीं मिलता, जैसे सोते हुये सिंह के मुख में हिरन अपने आप नहीं चले जाते।

कोई बड़ा नेतृत्व, पद या उत्तरदायित्व प्राप्त करने के इच्छुक तो सब रहते हैं पर उसे ठीक तरह सँभाल सकने की योग्यता किन्हीं विरलों में ही होती है। संयोगवश यदि कोई बड़ा उत्तरदायित्व मिल भी जाय तो आवश्यक गुण न रहने से ऐसे लोग अव्यवस्था फैलाते, हानि करते तथा अयोग्य सिद्ध होते हैं। जिनमें दूसरों की स्थिति, आवश्यकता और रुचि समझने की क्षमता नहीं वे उन से ठीक प्रकार काम भी नहीं ले सकते। अपने दुर्गुणों के कारण जो साथियों की दृष्टि में घृणास्पद, उपहास योग्य एवं उपेक्षणीय बना हुआ हो वह कैसे तो नियंत्रण रख सकेगा और कैसे काम ले सकेगा। ऐसी दशा में मिला हुआ नेतृत्व असफल ही सिद्ध होगा।

नम्रता और अहंमन्यता यों देखने में स्वभाव की छोटी-छोटी भिन्नताएँ हैं पर इनके प्रतिफल महान अन्तर प्रत्यन्तरों से भरे होते हैं। नम्र व्यक्ति किसी को कुछ दिये बिना भी केवल अपनी वाणी की मधुरता और व्यवहार की शिष्टता से ही दूसरों का मन जीत लेता है, परायों को अपना बना लेता है और प्रत्युत्तर में उनका स्नेह सहयोग पाकर सब प्रकार लाभान्वित रहता है। किन्तु जिसका स्वभाव अहंकारी एवं कर्कश है वह उनसे भी मनोमालिन्य ही पाता है जिनके लिए उसने ठोस सहायता की थी


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