परिवार का पालन ही नहीं निर्माण भी करें

April 1963

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समाज सेवा का सबसे समीपवर्ती और सबसे सरल कार्यक्षेत्र हमारा परिवार ही हो सकता है। ईश्वर ने जिन प्राणियों के साथ रक्त-संबंध बना कर तथा कर्तव्य और उत्तरदायित्व के बंधनों में बाँध कर परिवार रूप में प्रस्तुत किया है उनकी सेवा करना प्रत्येक दृष्टि से आवश्यक है। यों जितने अधिक मनुष्यों और प्राणियों की सेवा जितनी जिससे बन पड़े उतनी ही उत्तम है। पर कौटुम्बिक उत्तरदायित्व तो अनिवार्य रूप से उठाने ही होते हैं, इनमें उपेक्षा बरतने से जो दुष्परिणाम निकलते हैं, वे धर्म-कर्तव्य, समाज-हित और परिवार संगठन की दृष्टि से बहुत ही विपरीत एवं घातक सिद्ध होते हैं। इसलिए सेवा धर्म की ओर लक्ष रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह कार्य अपने घर से ही आरम्भ करना चाहिए।

यों अपने परिवार के लिए भोजन वस्त्र की व्यवस्था सभी करते हैं। बच्चों की शिक्षा, और विवाह का प्रबन्ध भी सबको करना पड़ता है। दवादारु, मनोरंजन तथा अन्य आवश्यक व्यवस्थाएँ भी समय-समय पर होती रहती हैं। इन कार्यों को गरीब अमीर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार उपेक्षा या उत्साह से किसी न किसी तरह पूरा करते ही रहते हैं। पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात छूटी ही रह जाती है और वह है परिवार को संस्कारवान बनाना।

सुसंस्कारों के अभाव में मनुष्य का व्यक्तित्व गिरा हुआ ही बना रहता है। जिसका व्यक्तित्व निम्न श्रेणी का है। वह भले ही धन, विद्या, स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रतिभा आदि की दृष्टि से कितना ही बढ़ा चढ़ा क्यों न हो, निकृष्ट प्रकार का जीवन ही व्यतीत करेगा। उसे न तो स्वयं ही आन्तरिक शान्ति मिलेगी और न उसके संपर्क में रहने वाले सुख पूर्वक निर्वाह कर सकेंगे। दुर्गुणी व्यक्ति समाज के लिए, अपने लिए और परिवार के लिए अभिशाप ही सिद्ध होते हैं। इसलिए परिवार में सद्गुणों की सुसंस्कारिता की अभिवृद्धि करना प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का एक आवश्यक धर्म कर्तव्य माना गया है।

स्कूलों में अध्यापक लोग निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ा सकते हैं पर उनसे चरित्र शिक्षण की आशा करनी चाहिए। क्योंकि चरित्र कहने-सुनने से नहीं सीखा जाता, उसके लिये तो वातावरण एवं अनुकरणीय उदाहरण चाहिए। स्कूलों के अध्यापकों का संपर्क बच्चों से पढ़ाई के निर्धारित घंटों में ही होता है—उनके निजी चरित्र और व्यक्तिगत व्यवहार से सीधा संबंध न होने से छात्र कोई सीधा प्रभाव ग्रहण नहीं करते। बुराई तो कहीं से भी सीखी जा सकती है, पर अच्छाई के लिए अनुकरण की


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