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April 1963

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लोक एव विषयालु रंजर्न।

दुःख गर्भमपि मन्यते सुखम्॥

आमिषं बडिश गर्भमप्यहो।

मोहतो ग्रसर्ति यद्वदण्डलः॥

“मछली जैसे माँस के टुकड़े को ही देखती है, उसके नीचे छुपे हुये काँटे पर ध्यान नहीं देती, उसी प्रकार दुनिया के लोग विषयों के बाह्य आकर्षण को ही देखते हैं, विषयों के परिणामस्वरूप अवश्यम्भावी दुःख को नहीं देखते।”

खाद्य समस्या आज की दूसरी समस्या है। जनसंख्या बढ़ती जा रही है और धरती उतना अन्न नहीं उपजाती। फल स्वरूप विदेशों से अन्न मँगाने में हमें परावलम्बी होना पड़ता है और विपुल धन विदेशों को भेजना पड़ता है। कभी ऐसा अवसर या जाय कि युद्ध आदि कारणों से विदेशों से अन्न न मिले तो कैसी बीते? इस दृष्टि से स्वावलम्बी होना हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। इसे देर तक बिना हल किये नहीं रहा जा सकता।

अन्न का उत्पादन बढ़ाना, शाक भाजी का अधिक उपयोग करना, अन्न को जरा भी बर्बाद न होने देना जरूरी है। साथ ही झूठन छोड़ने और अधिक प्रकार के खाद्यान्न परोसे जाने वाली, अधिक व्यक्तियों को सम्मिलित करने वाली दावतों की प्रथा समाप्त करना भी आवश्यक है। इसलिए व्यापक लोक शिक्षण किया जाना चाहिए। खाली जगहों में, यहाँ तक कि घर के आँगनों में भी जहाँ संभव हो वहाँ शाक भाजी उगाये जाने चाहिए। खाद्य का उत्पादन एक राष्ट्रीय गौरव की बात समझी जाय और हर व्यक्ति इस दिशा में दिलचस्पी लेने लगे, इसके लिए प्रयत्न किया जाय।

एक कार्य बहुत ही सरल यह है कि सप्ताह में कम-से-कम एक समय कुछ न खाने या शाक दूध


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