देव, दानव और मनुष्यों की श्रेणी में बैठे हुए मानव प्राणी परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते और धरती को खून से लाल करते रहते।
दुखी होकर धरती माता प्रजापति के पास पहुँची और अपनी दुख गाथा कह सुनाई। पुत्रों का रक्त बहते देखकर माता का दुखी होना स्वाभाविक भी था।
ब्रह्मा जी ने तीनों बच्चों को बुलाया और कहा इस प्रकार लड़ते झगड़ते रहने से तुम संसार को नरक बना दोगे और स्वयं भी नष्ट हो जाओगे।
अपराधी की तरह तीनों बालक शिर झुकाए खड़े थे। उनने पूछा—पितामह, कोई ऐसी शिक्षा दीजिए जिस पर चलते हुए हम कलह से बचें और शान्ति तथा सुविधा प्राप्त करें।
ब्रह्मा जी गंभीर हो गये, उन्होंने पूरे मनोयोग से शान्ति की शिक्षा का एक ही बीज-मंत्र बोला—’द’ ‘द’, ‘द”। तीनों लड़के गंभीरता पूर्वक उसका अर्थ समझने और व्याख्या करने में लग गये।
सोच विचार बहुत देर होता रहा तो स्तब्धता को भंग करते हुए प्रजापति ने बच्चों से पूछा—हमारी सूत्र शिक्षा का क्या अर्थ समझे?
देवता ने कहा—द अर्थात् दान। जिसके पास सुख साधन मौजूद हैं उन्हें उनका उपभोग अपने ही लिए नहीं करना चाहिए। वरन् दूसरे अभावग्रस्तों को अपनी कमाई देकर आन्तरिक आनन्द प्राप्त करना चाहिए।
अब मनुष्य की बारी आई। प्रजापति के प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा—द अर्थात् दमन। अन्तःकरण में वासना और तृष्णा के जो तूफान उठते रहते हैं उन्हें दमन करना, षडरिपुओं को परास्त करना, पौरुष और प्रयत्न में संलग्न रहना आलस को दबाना। यही मैंने समझा है। मनुष्य का कल्याण इसी में दीखता है।
असुर ने अपनी अभिव्यक्ति बताते हुए कहा—द का अर्थ है दया! दुष्टता निर्दयी ही कर सकता है। जिसे दूसरों के कष्ट अपने कष्टों के समान चुभेंगे वह किसी को सताने की असुरता से बचेगा।
ब्रह्मा जी ने स्वीकृति से शिर हिलाया और कहा यही मेरी शिक्षा का साराँश है जो तुमने समझा है। अपने दोषों को ढूंढ़ने, समझने और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते रहने पर ही तुम शान्तिपूर्वक जीवन यापन कर सकोगे।
इस धर्म शिक्षा का साराँश जानते तो सब हैं पर भेद है कि मानने वाले कोई विरले ही निकलते हैं। ब्रह्मा जी की शान्ति आज भी सबके सामने प्रस्तुत है, यदि इस पर चला जा सके तो आनन्दमय जीवन में कोई अड़चन न रहे।