प्रगाढ़ स्नेह-सौजन्य का आह्वान

April 1963

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यों परिवर्तन सभी कठिन होते हैं, पर व्यक्तियों का परिवर्तन सब से कठिन कार्य है। मकान, कारखाने, सड़क, पुल आदि को पुराने ढंग से बदलकर यदि नई डिजाइन का बनाना हो तो वह कार्य भी कठिन होता है। और व्यक्ति का, जो अनेक आदतों, संस्कारों, प्रवृत्तियों, वासनाओं, विश्वासों और मान्यताओं का समूह है, बदला जाना तो और भी कठिन है। इस कठिनाई को समझते हुए भी इसे करना तो पड़ेगा ही। जिस दुनिया में आज हम रह रहे हैं वह निश्चित रूप से इस स्थिति में पहुँच गई है कि अब उसे बदला ही जाना चाहिए। युग-परिवर्तन समय की अनिवार्य आवश्यकता है, इसकी उपेक्षा करने पर सामूहिक सर्वनाश का ही विकल्प सामने रह जायगा।

युग-निर्माण की विचार धाराएँ अपने-अपने देश, समाज, व्यक्ति के अनुरूप अपने-अपने क्षेत्रों में समस्त विश्व में फैलानी हैं। अपनी परिस्थिति, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों के लोग अपने-अपने ढंग से उसे कार्यान्वित करेंगे। इसका आरम्भ मात्र “अखण्ड-ज्योति परिवार” द्वारा हो रहा है। यह आरम्भ कितना ही छोटा क्यों न हो उसका उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है। अपने इस छोटे क्षेत्र में ही यह प्रयोग आरम्भ कर रहे हैं, ताकि इसका अनुकरण बड़े विशाल क्षेत्र में हो सके ।

“अखण्ड ज्योति परिवार” के प्रत्येक सदस्य को हम उस दृष्टि से देखते हैं जैसे कि कोई वयोवृद्ध व्यक्ति अपने निज के कुटुम्ब परिवार को देखता है। जिस प्रकार हम में से हर एक को अपना-अपना परिवार सुविकसित करना है, उसी प्रकार हम भी “अखण्ड-ज्योति परिवार” के सदस्यों को अपना निजी कुटुम्ब मानकर उसे ऐसा सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनाना चाहते हैं जिसे देखकर दूसरों को भी उसी ढाँचे में ढलने की प्रेरणा मिले। पर हमारे यह प्रयत्न सफल तभी हो सकते हैं जब प्रत्येक परिजन हमें भी वैसी-ही आत्मीयता की दृष्टि से देखे और जो कहा या लिखा जा रहा है उसे भावनापूर्वक सुने समझे। उपेक्षित बूढ़े लोग जिस प्रकार अपनी बेकार बकझक करते रहते हैं और घर के लोग उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते यदि वही स्थिति अपनी भी रही तो वह स्वप्न साकार न हो सकेंगे, जिन्हें देखने के लिये ही जीवित रहने की हमारी इच्छा शेष है।

हमारी आकाँक्षा इसी प्रकार पूर्ण हो सकती है युग-निर्माण की प्रयोग प्रक्रिया इसी तरह कार्यान्वित हो सकती है कि परिवार के सभी स्वजन “अखण्ड-ज्योति” को अपनी सत्परामर्शदात्री युग-प्रेरणा अनुभव करते हुए उसे ध्यानपूर्वक सुनें—समझें। हम सम्पादक, साहित्यकार या आचार्यजी बनकर नहीं रहना चाहते। हमारा स्थान अपने परिवार में वही होना चाहिये जो उसी घर से रक्त संबंधित अभिभावकों का होता है। इतनी आत्मीयता भी यदि हम लोगों के बीच न बन सकी तो उपेक्षित परदेशी की स्थिति में परिजनों के गुण-कर्म-स्वभाव में वह परिवर्तन लाना हमारे लिए कैसे संभव हो सकेगा?

स्वजनों के ‘प्रगाढ़ सौजन्य की ही हमें आशा है। इसी आशा के बल पर इतना बड़ा संकल्प किया गया। अब तक जितना मिला है उससे ज्यादा आगे मिलना चाहिये क्योंकि अब तक जितने कदम उठाये गये हैं यह अगला कदम उन सबसे अधिक बड़ा है और कठिन भी। इसके लिये परिजनों का प्रगाढ़ सौजन्य न मिला तो हमारे पैर लड़खड़ाने लगेंगे। इसका ध्यान रखना प्रत्येक परिजन का कर्तव्य है। इस कर्तव्य की उपेक्षा न की जानी चाहिए।


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