जीव और ब्रह्मा की एकता का विश्लेषण करते हुये गंगा तट पर बैठे हुए एक तत्वदर्शी कह रहे थे कि जीव ईश्वर का ही अंश है। जो गुण ईश्वर में हैं वे जीव में भी मौजूद हैं।
सुनने वालों में से एक ने पूछा—भगवन्! ईश्वर तो सर्वश्र और सर्व शक्तिमान है। पर जीव तो अल्पज्ञ और अल्प सामर्थ्य वाला है, फिर इस भिन्नता के रहते एकता कैसी?
प्रवचनकर्ता ने जिज्ञासु से कहा—’एक लोटा गंगा जल भर लाओ। वह नीचे बहती हुई गंगा में से जल भर लाया। उससे पूछा गया—गंगा के जल और इस लोटे के जल में कोई अंतर तो नहीं है? जिज्ञासु ने कहा—नहीं।
तत्वदर्शी ने पूछा—सामने गंगाजल में नावें चल रही हैं। एक नाव इस लोटे के जल में भी चलाओ। जिज्ञासु ने कहा—लोटा छोटा है, इससे थोड़ा-सा जल है, इतने में भला नाव कैसे चलेगी?
प्रवचनकर्ता ने गम्भीर होकर कहा—प्रिय! जीव एक छोटे दायरे में सीमाबद्ध होने के कारण लोटे के जल के समान अल्पज्ञ और अशक्त बना हुआ है। यदि यह जल पुनः गंगा में लौट दिया जाय तो उसे ईश्वर जैसी सर्वज्ञता और सर्वशक्ति सम्पन्नता सहज ही प्राप्त हो सकती है।
जिज्ञासु की समझ में ईश्वर और जीव की स्थिति का अन्तर आ गया और वह यह भी जान गया कि संकीर्णता का सीमा बन्धन हटा कर कोई भी जीव ईश्वर बन सकता है।