कर्मायत्तं फलं पुँसाँ बुद्धिः कर्मानुसारिणी।
तथापि सुधियश्चार्याः सुविचार्येव कुर्वते॥
—चाणक्य
“फल मनुष्य के कर्म के अधीन है और बुद्धि कर्म के अनुसार आगे बढ़ने वाली है, तथापि विद्वान और सज्जन व्यक्ति अच्छी तरह से विचार करके ही कोई कार्य करते हैं।”
हो, अन्ततः श्रेयस्कर ही सिद्ध होता है। सन्तोष और आनन्द उसी में मिल सकता है।
मनुष्य जाति समय-समय पर विभिन्न प्रयोग करती रही है, अतीत में समय-समय पर उसने अनुभवों से लाभ उठाया और भूलों को सुधारा है। यदि समुचित प्रयत्न किये जाय तो वह सीधी चाल पर चलने के लिये फिर भी उद्यत हो सकती है। शान्ति का आकाँक्षी मनुष्य, उसके उचित मूल्य को चुकाने के लिए रजामंद हो भी सकता है। यह कोई असंभव बात नहीं है कि भौतिकवाद के दुष्परिणामों को भली प्रकार देख लेने के बाद विश्व-मानव की अन्तरात्मा पुनः आध्यात्मवाद की ओर मुड़ पड़े। इस प्रकार का तनिक-सा परिवर्तन यदि हो सके, दृष्टि कोण में जरा सा अन्तर आ जाय, जितनी चेष्टा कुमार्ग पर चलने की रहती है उससे आधी भी सन्मार्ग की ओर होने लगे, तो युग परिवर्तन का स्वप्न साकार होने में देर ही कितनी लगेगी?
पाप कर्मों की योजना, तैयारी एवं सफलता अत्यधिक चतुरता पर निर्भर रहती है। कम प्रयत्न, कम साहस, कम प्रतिज्ञा और कम बुद्धिमता से पाप कर्म कर सकना संभव नहीं हो सकता। यदि कोई वैसा दुस्साहस करेगा तो उसकी कलई जल्दी ही खुल जायगी। पाप करना और उसे छिपा लेना,