उत्तमा स्वयमाख्याता पितुः ख्याता च मध्यमाः।
अधमा मातुलात् ख्यात् श्वसुर हयाताधमावमा॥
—अज्ञात
“उत्तम पुरुष स्वयं अपने नाम से प्रसिद्ध होते हैं, मध्यम पुरुष अपने पिता के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, निम्न श्रेणी वाले मामा के नाम से ख्याति प्राप्त करते हैं और सबसे नीचे दर्जे के व्यक्ति ससुर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं।”
चिर संचित संस्कार धीरे-धीरे ही दूर होते हैं। छोड़ देने की इच्छा रहते हुये भी अभ्यास में आई नई बातें बार-बार प्रबल हो उठती हैं और प्रयत्नों को असफल करने की रचना रचती हैं। यह कठिनाई प्रत्येक आत्मसुधार करने वाले के सामने आती है। सफल वही होता है जो असफलताओं से खिन्न होकर प्रयत्न नहीं छोड़ता। बार-बार भूलें होना स्वाभाविक है पर उन्हें सुधारने की प्रक्रिया छोड़ी नहीं जानी चाहिए। निराश हुये बिना, बार-बार लौट आने वाले बुरी आदतों को सुधारने में लगा ही रहना चाहिए।
अपनी अच्छाइयों को भी समझना चाहिये। जो सद्गुण मौजूद हैं उन्हें बढ़ाना चाहिए, जो नहीं हैं उन्हें उत्पन्न करना चाहिये। नशेबाजी की आदत किसी को जन्म से ही नहीं होती। पीछे से सीखी जाती है। जो सद्गुण हमें अब तक के वातावरण में प्राप्त नहीं हो सके हैं, उन्हें सीखने का अभ्यास अब आरम्भ किया जा सकता है। सिखाने से बन्दर जैसा उद्दण्ड जानवर तरह तरह के खेल तमाशे करना सीख जाता है तो कोई कारण नहीं कि मन पर लाठी के बल से नियन्त्रण रखा जाय, प्यार पुचकार से समझाया जाय तो वह भी सद्गुणों को अपने स्वभाव का अंग न बना ले। यह कार्य कठिन दीखता तो है पर वस्तुतः वैसा नहीं है।