Quotation

April 1963

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मधु संचय

*******

(संकलित)

कब जाना शलभ बिचारे न जलना उसकी नादानी है,

शबनम का कतरा क्या जाने वह मोती है या पानी है।

कंटक में कलियाँ पलीं चटखकर फूल बनी अलि मँडराया,

ये क्या जाने अलि तब तक है जब तक यह खिली जवानी है।

जो देने में ही सुख पाते प्रतिदान नहीं माँगा करते,

जिनको विश्वास अडिग निजपर वरदान नहीं माँगा करते॥

जिन पर सागर को गर्व वही लहरें अपहृत हो जाती हैं,

बन मेघ श्याम अम्बर के नीले आँगन में छा जाती हैं।

सागर का प्रेम अगाव विकल हो आवाहन करता जाता,

थे सजल घटायें सावन बन, धरती पर चू-चू जाती हैं।

जिनको वसुधा से प्रेम स्वर्ग का दान नहीं माँगा करते,

जिनको विश्वास अडिग निजपर वरदान नहीं माँगा करते॥

—भोलानाथ ‘बिम्ब’

यह जिन्दगी है एक यज्ञ

जिस में हमें है होम देना,

जिन्दगी है सतत चलना

जिन्दगी है सतत जलना।

भूल जायें हम कि चलना

भूल जायें हम कि बढ़ना।

तो मरण में जिन्दगी में फर्क क्या है?

लौ नहीं यदि उठ रही हो दीप का फिर मूल्य क्या है?

लौ नहीं यदि उठ रहीं हो दीप का फिर मूल्य क्या है?

—महेश सन्तोषी

केवल नारी नहीं सुनो हम साथी हैं, भगिनी माँ हैं।

नहीं वासना का साधन हैं, हम ममता हैं, गरिमा हैं।

आँचल में जीवन धारा है, कर में आतुर राखी है।

मस्तक पर सिन्दूर बिन्दू, अनुराग त्याग की सीमा है।

हैं गृहिणी, सहषर्म चारिणी, कुल दीपक की बाती हैं।

आज हमारा रूप प्रदर्शन करते तुम बाजारों में,

लगा रहे हो चित्र हमारे गली गली दीवारों में,

तुम राखी का मूल्य चुकाते बहनों को अपमानित कर,

गृह लक्ष्मी का चित्रण करते विज्ञापन बाजारों में।

देख तुम्हारी कुरुचि लाज से धरती में गड़ जाती हम।

—गंगारानी वर्मा

परोपकार-हीन व्यक्ति भूमि हेतु भार है,

किसी बड़े विचारवान का बड़ा विचार है—

कि जो परोपकार-लीन है तथा उदार है,

वही महान है, वही बड़ा सभी प्रकार है,

बड़े बनो, बनो न किन्तु भूमि भार के लिए?

मनुष्य का शरीर है—परोपकार के लिए॥

तमाम भूमि लोक आज रोग शोक से भरा,

कुभावना मिटा रही मनुष्य की परम्परा,

समाज के बचाव का रहा न और आसरा,

पुकारती तुम्हें अधीरता भरी वसुन्धरा,

सहायता करो, व्यथाभरी पुकार के लिए।

मनुष्य का शरीर है-परोपकार के लिए॥

—श्री ‘राजेश’

तुम देकर शाप चले जाना,

मैं अगर आदमी हूँ, वरदान बना लूँगा।

फट सकता ज्वालामुखी तुम्हारे अन्तर का,

सम्भव है समझो तुम अभिनय अभिनन्दन

हो सकता मेरे दिवस, फिरे तुम आशिष दो

मजबूरी से बँध कर पूजा के बन्धन में,

इसीलिए न मैं कदमों में शीश झुकाऊँगा।

बन सकता कभी न गुञ्जन मैं इस नन्दन में,

चाहे जो लाख भुजंग भले विष लिपटायें

लग सकता नहीं कलंक भलारे? चन्दन में?

तुम बनकर, प्रिय पाषाण भुवन में खोजना

मैं अगर पुजारी हूँ भगवान बना लूँगा॥

—चतुरीसिंह निर्मल


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles