दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदत्रं भक्ष्यते नित्यं वायते तादृपूर्ण प्रथा॥
—चाणक्य
“दीपक अन्धकार को खाता है और काले काजल को जन्म देता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति प्रतिदिन जैसा अन्न खाता है उसका वैसा ही परिणाम होता है।”
जितनी अधिक देर तक मन में उच्च भावनाओं का प्रवाह बहा रहे उतना ही अच्छा है। ऐसा साहित्य हमारे लिए संजीवन बूटी का काम करेगा। उसे पढ़ना अपने अत्यन्त प्राणप्रिय कामों में से एक बना लेना चाहिए। सुलझे हुए विचारों के सच्चे मार्गदर्शक न मिलने के अभाव की पूर्ति इस साहित्य से ही संभव है। आज उलझे हुए विचारों के लोग बहुत हैं। धर्म के नाम पर आलस्य, अकर्मण्यता, निराशा, दीनता, कर्तव्य की उपेक्षा, स्वार्थपरता, संकीर्णता की शिक्षा देने वाले सत्संगों से जितनी दूर रहा जाय उतना ही कल्याण है।
कहीं से भी, किसी प्रकार से भी जीवन को समुचित बनाने वाले, सुलझे हुए उत्कृष्ट विचारों को मस्तिष्क में भरने का साधन जुटाना चाहिए। स्वाध्याय से, सत्संग से, मनन से, चिन्तन से जैसे भी बन पड़े वैसे यह प्रश्न करना चाहिए कि हमारा मस्तिष्क उच्च विचारधारा में निर्मग्न रहे। यदि इस प्रकार के विचारों में मन लगने लगे, उनके आनन्द का अनुभव होने लगे तो समझना चाहिए कि आधी मंजिल पार कर ली गई।