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April 1963

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अजात मृत मूर्खाणाँ वरमाद्यौन चान्तिमः।

सकृद दुखः करावाद्यौ अन्तिमस्तु पदे-पदे॥

—हितोपदेश

“जो पुत्र पैदा ही न हुआ हो अथवा पैदा होकर मर गया हो अथवा मूर्ख हो, इन तीनों में पहले दो ही तीसरे की अपेक्षा अधिक अच्छे हैं। क्योंकि वे दोनों तो एक बार ही दुःख देते हैं, जबकि तीसरा (अर्थात् मूर्ख पुत्र) पद-पद पर दुःख कारक होता है।”

मनोभूमि में गहराई तक प्रवेश करने के लिए अपना समय और मनोयोग नियमित रूप से लगाते रहने का व्रत लेना चाहिए। स्वयं स्वाध्यायशील बनें, मनन और चिन्तन द्वारा आत्म-निर्माण के लिए सद्विचारों को व्यवहारिक जीवन में उतारें, अपने परिवार के हर सदस्य को इस लाभ से लाभान्वित होने के लिए प्रेरित करें। साथ ही यह भी प्रयत्न करें कि अपने समीपवर्ती क्षेत्र, में सभी प्रिय परिचित जनों में उस विचारधारा का विस्तार हो। जिन पर भी अपना प्रभाव हो, उन्हें ऐसी प्रेरणा देनी चाहिए कि वे सद्विचारों को नियमित रूप से अपनाने की अभिरुचि उत्पन्न करें। प्रभाव वही सराहनीय है जिससे प्रभावित व्यक्तियों को उत्कर्ष की प्रेरणा मिले। जिस में भी सुसंस्कारों का बीजाँकुर दिखाई पड़े उसे सींचने के लिए हमें अवसर और अवकाश निकाल ही लेना चाहिए।

हम “अखण्ड-ज्योति” के सदस्य इस गतिविधि को सच्चे मन से अपनावेंगे तो अपना परिवार दिन दूना रात चौगुना बढ़ेगा। सज्जनों का समुदाय बढ़ना उनका अल्पमत में न रह कर बहुमत तक पहुँच जाना इस बात का परिपुष्ट प्रमाण होगा कि युग परिवर्तन की पुण्य प्रक्रिया सफलता के बिल्कुल समीप जा पहुँची है। इस प्रजातंत्र के युग में जिसे वोट अधिक मिल जाते हैं वही दल या व्यक्ति राज्य शासन संभालता है। उसी की इच्छा सारी प्रजा को माननी पड़ती है। सज्जनता का, सद्भावना का, मानवता का यदि बहुमत होगा, अधिक संख्या में लोग इस प्रकार के बन जायेंगे तो उसका प्रतिफल भी यही होगा कि अल्पमत वाले दुर्बुद्धियुक्त व्यक्तियों को बहुमत के आगे झुकने को विवश होना पड़े। आज सद्भावना अल्पमत में है तो दुष्प्रवृत्तियों के आगे उन्हें परास्त होना पड़ता है, कल जब दुर्भावनाएं अल्पमत में होगी तो उन्हें सद्भावनाओं का आधिपत्य स्वीकार करना होगा। हमें यही सब तो करना है।

हमारा एक भी प्रिय परिजन ऐसा न रहे जो अपने प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत होने पर भी सद्विचारों में अभिरुचि लेने के लिए प्रेरणा प्राप्त न करे। स्वाध्याय का साधन “अखण्ड ज्योति” प्रस्तुत करती है, सत्संग की प्रेरणा पूर्ति हम स्वयं करें। उभय पक्षीय लाभों के प्रभाव से अपने परिवार को पूरी तरह लाभान्वित करें। इसमें हमारा धर्म-कर्तव्य पालन होता है, स्वजनों का जीवन सुधारता है और युग-निर्माण का एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न होता है। ऐसे उपयोगी कार्य के लिए हमें प्रयत्नशील होना ही चाहिए।


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