भोगे रोग भयं कुले च्युत भयं वित्तेनुषालाद् भयं,
माने दैन्यभयं बले रिपुमय रुपे जरायाँ भयम्।
शास्त्रे बादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं,
सर्ववस्तु भयावहं भुवि नृणाँ वैराग्य मेवाभयम्॥
—भर्तृहरि
“भोगों में रोग का भय है, ऊँचे कुल में पतन का भय है, धन में राज का, मान में गरीबी का, बल में शत्रु का तथा रूप में वृद्धावस्था का भय है। शास्त्र में वादविवाद का, गुण में दुष्ट व्यक्तियों का तथा शरीर में काल का भय है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सभी वस्तुएँ भयपूर्ण हैं, भय से रहित तो केवल वैराग्य ही हैं।”
कथा, पाठ आदि के आयोजन पैसा खर्च करने से बिना समय लगाये भी हो सकते हैं, पर कुछ काम ऐसे हैं जिनके लिए स्वयं ही कष्ट उठाना पड़ता है। अपने मुँह से खाये बिना पेट नहीं भरेगा, स्वयं पढ़े बिना विद्या नहीं आवेगी, स्वास्थ्य सुधारने के लिए आप ही व्यायाम करना पड़ता है। यह कार्य दूसरों से नहीं कराये जा सकते। इसी प्रकार ज्ञान-यज्ञ के लिए अपनी अभिरुचि, अपनी श्रद्धा, अपना श्रम, अपना समय लगाना आवश्यक है।