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April 1963

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न शुद्रोऽपि प्रथम सुकृता पेक्षया संश्रयाय।

प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किम्पुनर्यस्तयोच्चैः॥

—कालिदास

“अपने साथ उपकार करने वाला मित्र यदि दैवयोग से अपने घर आ जाय तो सामान्य मनुष्य भी प्रेमपूर्वक उसका आदर करते हैं, उससे विमुख नहीं होते, फिर उच्चाशय व्यक्तियों का तो कहना ही क्या है।”

दंड से बचे रहना साधारण चतुरता का काम नहीं है। जो लोग इतना कर सकते हैं वे इससे आधी भी चतुरता सत्कर्मों में लगादे तो जीवनमुक्त नहीं तो महापुरुष अवश्य ही बन सकते हैं।

सचाई का मार्ग सीधा और सरल है। कम बुद्धिमान आदमी भी ईमानदारी का आचरण कर सकता है। सन्मार्ग पर चलने लगना वस्तुतः कुछ विशेष कठिन नहीं है। थोड़ी-सी सादगी अपना ली जाय, जरा सी मेहनत और बढ़ा दी जाय, मन की लोलुपता को जरा-सा रोक लिया जाय तो ईश्वर का पुत्र-मनुष्य जो आत्मा बनकर इस धरती पर अवतीर्ण हुआ है यहाँ से परमात्मा बन कर वापिस जाने की शानदार सफलता प्राप्त कर सकता है। जीवन का पूरा-पूरा लाभ ले सकता है।

प्रयत्न से सब कुछ हो सकता है। प्रयत्न से युग भी बदला जा सकता है। प्रगति के पथ पर हर दिशा में तेजी से कदम बढ़ाते-चलने वाले मनुष्य के लिए यह बात क्यों कठिन होनी चाहिये कि वह विवेकसंगत दृष्टिकोण के साथ अपनी जीवन-नीति निर्धारित करे, और यदि पिछले दिनों कुछ भूल होती रही है तो उसे साहसपूर्वक सुधार ले? इस प्रकार का मोड़ अब आने ही वाला है। विश्व-मानव की अंतरात्मा अब आकुलता पूर्वक यह चाहने लगी है कि समय बदले, परिस्थितियाँ उलटें, और शोक−संताप उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों पर अंकुश लगे। अन्तरिक्ष से, दशों दिशाओं से यही प्रतिध्वनि उठती है और ईश्वरीय आश्वासन मिल रहा है कि यह परिवर्तन निकट भविष्य में होकर रहेगा।

नाव में लगे रहने वाले पतवार चाहे कितने ही तुच्छ प्रतीत क्यों न हों नौका की दिशा बदलने का श्रेय उन्हीं को मिलता है। रेल की लाइन बदलने वाले, मोटर को घुमाने वाले, जहाजों की दिशा फेरने वाले पुर्जे छोटे-छोटे होते हैं पर इन शक्तिशाली यंत्रों का संचालन इन्हीं के आधार पर संभव होता हैं। घोड़े के मुँह में रहने वाली लगाम, ऊंट की नकेल, बैल की नाथ, हाथी का अंकुश, सरकस का शेर का हंटर जरा-जरा से ही तो होते हैं पर उन्हीं से यह शक्तिशाली पशु नियंत्रण में रखे और उपयोग में लाये जाते हैं। समाज भी एक प्रबल एवं शक्तिशाली यंत्र वाहन के समान है।

जब तक मानव मन में भरी हुई दुष्प्रवृत्तियों को हटा कर उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना न होगी तब तक संसार की एक भी उलझन न सुलझेगी।

प्रवृत्तियों के परिवर्तन की दिशा में हर मनुष्य चाहे वह कितना ही अयोग्य एवं तुच्छ क्यों न हो, कुछ-न-कुछ कर सकता है। ऐसा कर्तृत्व जन-मानस में उत्पन्न किया जाना चाहिए। प्रश्न केवल यह है कि इसे करे कौन? नींव का पत्थर, नाव का पतवार, रेल की पटरी, मोटर का पेट्रोल, देखने में तुच्छ भले ही लगें पर अनिवार्य आवश्यकता तो उन्हीं की रहती है। यह आवश्यकता पूर्ण न हो तो इन शक्तिशाली यंत्रों की गतिविधियाँ रुकी ही पड़ी रहेंगी। आज प्रगति का अभियान इसी लिए रुका पड़ा है कि उसे अग्रगामी बनाने वाले लौह पुरुष दृष्टि गोचर नहीं होते। सस्ती वाहवाही लूटने वाले लुटेरे हर जगह मौजूद हैं, नाम बड़ाई के भूखे भिखारी जनसेवा के सदावर्त से अपनी भूख बुझाने के लिए इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहते हैं, पर बीज की तरह गल कर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत जो हो सकें ऐसा साहस किन्हीं बिरलों में ही होता है।

युग निर्माण की नींव खोदी जा रही है, उस विशाल भवन के निर्माण की योजना बन चुकी है। अब केवल नींव में रखे जाने वाले पत्थरों की तलाश है। भारत भूमि की विशेषता और ऋषि-रक्त की महत्ता पर जब ध्यान देते हैं तो यह विश्वास सहज ही हो जाता है कि कर्तव्य की पुकार सुनने और उसे पूरा करने वाले तत्व यहाँ सदा से रहे हैं और अब भी उनका बीज नाश नहीं हुआ है।


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