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April 1963

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अंतर्गतमलो दुष्टस्तीर्थ स्नान शतैरपि।

न शुष्यति यथा भाण्डं सुराया दहितं चतत्॥

—चाणक्य

“जिसका हृदय द्वेष अथवा विकारों से दूषित है, ऐसा दुष्ट सौ बार तीर्थ स्नान से भी शुद्ध नहीं हो सकता, जैसे मदिरा का पात्र आग में तपाने से भी शुद्ध नहीं होता।”

ब्राह्मणों में करीब 450 ऐसी उपजातियाँ हैं जिनमें परस्पर रोटी-बेटी का व्यवहार नहीं होता। यदि ब्राह्मण मात्र में वह दायरा बढ़ा दिया जाय तो सबको कितनी अधिक सुविधा होगी, उसकी कल्पना प्रत्येक समझदार आसानी से कर सकता है। संकीर्णता भी इससे घटेगी और आत्मीयता का दायरा बढ़ेगा। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी अपना दायरा बढ़ाते हुए एकता की दिशा में बढ़ने का आध्यात्मिक लक्ष पूरा कर सकते हैं।

नशेबाजी और माँसाहार की असुरता का व्यापक प्रसार मनुष्यों की मनोभूमि में दिन-दिन तमोगुण बढ़ाता जा रहा है। दया, करुणा, मैत्री, आत्मीयता, न्याय की मानवीय सत्प्रवृत्तियों से माँसाहार का वैर है। दोनों एक दूसरे के घोर प्रतिकूल हैं। जीभ के स्वाद जैसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए जो दूसरों को प्राणान्तक पीड़ा दे सकता है उसमें देवत्व की, मनुष्यता की स्थिरता कैसे रहेगी? माँसाहार, आहार का नहीं, एक नैतिक प्रश्न है। इसे नैतिक स्तर पर ही विचारा जाना चाहिए। अगणित काम ऐसे हैं, जो नैतिक प्रश्न हटा दिया जाय तो वे लाभ-कारक सिद्ध हो सकते हैं। भाई-बहिनों का विवाह होने लगे तो बड़ी आर्थिक सुविधा रहे, पर नैतिक कारणों से हम उसे लाभदायक होते हुए भी स्वीकार नहीं कर सकते। माँसाहार स्वास्थ्य के लिए लाभदायक भी होता हो तो भी इससे उसको नैतिक समर्थन नहीं मिल सकता। उसका परित्याग ही किया जाना चाहिए।

नशेबाजी में केवल हानि ही हानि है, लाभ कुछ नहीं। तमाखू, गाँजा, चरस, भाँग, अफीम, शराब से किसी का कुछ लाभ नहीं होता। हानि अपार है। शरीर खोखला होता है और मन में दुष्प्रवृत्तियाँ उठती हैं। शरीर और मन दोनों क्षेत्रों में नशेबाजी से भारी हानि होती है। धन का अपव्यय इतना अधिक होता है कि यदि उसे रोका जा सके तो वह बचत उत्थान के कार्यों में भारी योगदान दे सकती है। नशा सेवन से उत्पन्न हुई शारीरिक और मानसिक मलीनता मनुष्य के नैतिक जीवन को प्रभावित करती है। भावनाओं का परिवर्तन करने के लिए नशेबाजी को छोड़ना आवश्यक है।

सुधार और निर्माण का आन्दोलन माँसाहार सुधार और नशेबाजी को छोड़ने के साथ सुसंबद्ध है। यदि यह तुच्छ सी बातें भी न छोड़ी जा सकीं तो असत्य, कामुकता, बेईमानी जैसे बड़ी बुराइयाँ कैसे दूर होंगी?

स्वास्थ्य की समस्या का हल करने के लिए, व्यायाम और श्रमशीलता को जन जीवन में प्रधान स्थान मिलना चाहिए। आहार बिहार के सुसंयम का सफाई और नियमितता का प्रयत्न होना चाहिए। आर्थिक कठिनाइयों को सुलझाने के लिए मितव्ययिता और सादगी को अपनाया जाना आवश्यक है। सामाजिक शान्ति के लिए न्याय, समानता, उदारता का आचरण होना चाहिए। इन सत्प्रवृत्तियों को स्थिति के अनुसार हम अपने व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित करने लगें तो निश्चय ही उससे श्रेष्ठ परम्पराओं का जन्म होगा और दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करने लगेंगे।

यही सभी प्रक्रियाएँ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत कार्यान्वित की जानी हैं। इसका श्रीगणेश अपने परिवार से होना है। इसलिए जब इस बात की आवश्यकता है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को समझे, जो सुना और समझा गया है उसे कार्यान्वित करने के लिए कटिबद्ध हो।

बूँद-बूँद जोड़ने से घड़ा भर जाता है, पतले धागे मिलकर मोटा मजबूत रस्सा बनाते हैं। हम सबका सम्मिलित प्रयत्न युग-निर्माण के रूप में परिणित हो सकता है। युग बदल सकता है बशर्ते कि हम स्वयं बदलें। बहुत कुछ हो सकता है बशर्ते कि हम स्वयं भी कुछ करने को तैयार हों। अपने बदलने, सुधरने और करने की अब आवश्यकता है। इस परिवर्तन के साथ ही हमारा समाज, राष्ट्र और संसार बदलेगा। प्रलोभनों और आकर्षणों में अपने आपको घुलाते रहने की अपेक्षा अब हमें आदर्शवाद की प्रतिष्ठापना करने के लिए कष्ट उठाने की भावनाएँ अपने अन्दर उत्पन्न करनी हैं। यही उत्पादन विश्व शान्ति की सुरम्य हरियाली के रूप में दृष्टि-गोचर हो सकेगा।


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